
जलवायु का अर्थ (Meaning of Climate) –
किसी स्थान पर लम्बे समय तक पायी जानेवाली मौसमी दशाओं को जलवायु कहते हैं | प्रो० ट्रिवार्था के अनुसार, ” जलवायु दिन-प्रतिदिन की ऋतु-अवस्थाओं के विभिन्न रूपों का मिश्रण अथवा सामान्यीकरण है |” इसके लिए तीन प्रमुख तत्व- ताप, वायुदाब और वर्षा मुख्य हैं | ऋतुएँ, हवाओं की गति व दिशा, तापमान, वायुभार, वर्षा आदि मिलकर किसी देश की जलवायु निर्धारित करती है |
भारत की जलवायु मानसूनी जलवायु कही जाति है | भारत में मुख्य रूप से दक्षिणी-पश्चिमी मानसून और उत्तरी-पूर्वी व्यापरिक हवाओं के प्रभाव से वर्षा होती है | ये दोनों पवने वर्ष की दो अलग-अलग ऋतुओं में बहती हैं | इसीलिए भारत की जलवायु मानसूनी जलवायु कहलाती है | जब सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में रहता है तो हिन्द महासागर से आर्द्रतायुक्त पवनें चलती हैं, जिससे समस्त भारत में व्यापक वर्षा होती है | इसे दक्षिणी-पश्चिमी मानसून कहते हैं और जल सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है तो उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक हवा स्थल से जल की ओर बहती हैं, जिससे भारत के कुछ भागों में वर्षा होती है | शेष भाग शुष्क रहता है | इस तरह से वर्ष में दोनों पवने अपने निश्चित समय में प्रवाहित होकर अपना कार्य करती हैं |
मौसम का अर्थ (Meaning of Weather) –
किसी स्थल की अल्पकालीन वायुमंडलीय दशाओं को मौसम कहते हैं | मौसम किसी एक निश्चित समय में किसी निश्चित स्थान के वायु दाब, तापमान, आर्द्रता, वर्षा, पवन की दिशा इत्यादि की जानकारी देता है | प्रो० ट्रिवार्था के अनुसार, ”किसी स्थान की अल्पकालीन वायुमंडल की दशाओं, तापक्रम, भार, वायु, आर्द्रता तथा वृष्टि के सम्मिलित रूप को मौसम कहते हैं |”
जलवायु एवं मौसम में अंतर (Differences between Climate and Weather) –
मौसम तथा जलवायु में निम्नअंतर है –
क्र.सं. | मौसम | क्र.सं. | जलवायु |
---|---|---|---|
1. | किसी स्थान पर विशेष समय की अल्पकालिक वायुमंडलीय दशाएँ उस स्थान का मौसम कहलाती हैं | | 1. | किसी स्थान या प्रदेश की दीर्घकालिक वायुमंडलीय दशाओं के औसत को जलवायु कहते हैं | |
2. | मौसम अल्प समय में बदल जाता है | | 2. | जलवायु में परिवर्तन एक लम्बी अवधि में होता है | |
3. | एक स्थान पर एक ही दिन में मौसम कई बार बदल सकता है अर्थात् कई प्रकार का हो सकता है | | 3. | जलवायु किसी स्थान या प्रदेश में एक की प्रकार की होती है अर्थात् बदलती नहीं है | |
4. | मौसम अल्पकालिक होता है | | 4. | जलवायु 31 वर्षों की वायुमंडलीय घटनाओं का औसत होती है अर्थात् मौसम का औसत होती है | |
5. | मानव-जीवन पर मौसम का प्रभाव अल्पकाल के लिए होता है | | 5. | मानव जीवन पर जलवायु का प्रभाव दीर्घकाल तक होता है | |
भारतीय जलवायु को प्रभावित करने वाले करक (Factors Affecting Indian Climate) –
पृथ्वी पर सभी जगह एक जैसी जलवायु नहीं पायी जाती है। तापमान, वर्षा और वायुदाब के कारण जलवायु में अन्तर पाया जाता है। भारतीय जलवायु को प्रभावित करनेवाले कारक निम्न हैं-
- स्थिति और उच्चावच
- पवनों की दिशा
- समुद्री दशा
- भूमध्य रेखा से दूरी।
1. स्थिति और उच्चावच-
कर्क रेखा भारत को दो भागों में बाँटती है। भारत का विस्तार 8° से 37° उत्तरी अक्षांशों के बीच है। भारत के उत्तर में हिमालय की पर्वत श्रेणियाँ पायी जाती हैं, जो शीत ऋतु में उत्तर की ओर से आनेवाली शीत हवाओं से हमारी रक्षा करती हैं, जिससे यहाँ की जलवायु शीतल नहीं होने पाती। ये हिन्द महासागर से आनेवाली मानसूनी पवनों को रोककर वर्षा करने में सहायता करती हैं, जिससे भारत की जलवायु समकारी होती है। भारतीय भूमि के लिए अनिवार्य आर्द्रता के भण्डार के रूप में इनका महत्त्व और बढ़ जाता है। उत्तरी पर्वत के कारण ही सम्पूर्ण भारत में उष्ण कटिबन्धीय जलवायु पायी जाती है। कर्क रेखा के दक्षिण का भाग भूमध्य रेखा (Equator) के बीच में पड़ता है जिससे भारत के दक्षिणी भाग में उष्ण कटिबन्धीय जलवायु पायी जाती है। उष्ण कटिबन्धीय जलवायु की निम्न विशेषताएँ पायी जाती हैं-
- उष्ण कटिबन्धीय जलवायु में वर्ष भर ऊँचा तापमान पाया जाता है।
- यहाँ की जलवायु शुष्क होती है।
- उष्ण कटिबन्धीय जलवायु में वर्षा ग्रीष्म ऋतु में होती है।
2. पवनों की दिशा-
भारत उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबन्ध में स्थित है, इसलिए यहाँ पर स्थलीय पवनों का प्रभाव रहता हैं। यदि भारत में मौसमी हवा न बहती तो सम्पूर्ण भारत मरुस्थल में बदल जाता। उत्तरी गोलार्द्ध में उपोष्ण वायुदाब पेटी में स्थायी हवाएँ चलती हैं जो विषुवत् रेखीय निम्न वायुदाब कटिबन्ध की ओर चलती हैं और पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं। इन्हें उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक पवन कहते हैं। इन पवनों से पश्चिमी भाग में और तटीय क्षेत्रों में थोड़ी वर्षा होती है और शेष क्षेत्र शुष्क रहता है।
जब किसी क्षेत्र में ऊपर से नीचे की ओर वायु का भार ज्यादा हो जाता है, तो वहाँ का तापमान ज्यादा हो जाता है और स्थल तथा जलीय भाग असमान रूप से गर्म हो जाता है। गर्मी में स्थलीय भाग में तापमान ज्यादा होने से वायुभार कम हो जाता है जिससे हवाएँ समुद्र से स्थल की ओर बहने लगती हैं, जिन्हें मानसूनी पवनें कहते हैं। समुद्र के ऊपर से बहने के कारण ये हवाएँ आर्द्रतायुक्त होती हैं जिनसे समस्त उत्तरी भारत में वर्षा होती है।
3. समुद्री दशा –
किसी भी स्थान की जलवायु पर समुद्री दशा का भी प्रभाव पड़ता है। भारत के दक्षिणी भाग में तीनों ओर समुद्र है जो दक्षिणी भारत की जलवायु को प्रभावित करता है। समुद्र के समीप स्थित भागों में दैनिक और वार्षिक तापान्तर कम रहता है। इन भागों की जलवायु सम रहती है। समुद्र से दूरी बढ़ने के साथ ही जाड़े और गर्मी की मात्रा बढ़ जाती है।
4. भूमध्य रेखा से दूरी –
भारत के दक्षिण में भूमध्य रेखा स्थित है जिससे भारत के दक्षिण में भयंकर गर्मी पड़ती है। भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें वर्ष भर सीधी पड़ती हैं इसलिए जो भाग भूमध्य रेखा के समीप होता है वहाँ पर ज्यादा गर्मी पड़ती है। भूमध्य रेखा से दूरी बढ़ने के साथ ही तापमान की मात्रा भी कम होती जाती है।
मानसून का अर्थ (Meaning of Monsoon) –
मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है जिसका तात्पर्य मौसम या ऋतु है। मौसम का आवर्तन मानसूनी जलवायु की प्रमुख विशेषता है। भारत में इस प्रकार की हवाएँ वर्ष में दो बार उच्च वायु भार से निम्न वायु भार की ओर चलती हैं। ग्रीष्म ऋतु में ये हवाएं समुद्र से स्थल की ओर चलती हैं, जबकि शीत ऋतु में ये हवाएँ स्थल से समुद्र की ओर बहती हैं। ग्रीष्म ऋतु तथा शीत ऋतु के मौसम के मध्य पवनों की दिशा में 120° का अन्तर पाया जाता है। इन पवनों की न्यूनतम गति तीन मीटर प्रति सेकण्ड होती है इसलिए इन्हें मानसूनी पवनें कहते हैं।
मानसून की रचना (Mechanism of Monsoon) –
मानसून की रचना के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं। इसके लिए सबसे मुख्य और प्राचीन मत है स्थलीय और जलीय हवाएं जो शीत ऋतु में स्थल की ओर और ग्रीष्म ऋतु में जल की ओर बहती हैं। ग्रीष्म ऋतु में अधिक तापमान के कारण स्थल पर निम्न वायुदाब का केन्द्र बन जाता है जिससे हवाएँ समुद्र से स्थल की ओर चलने लगती हैं, जबकि शीत ऋतु में इसके बिल्कुल विपरीत होता है। समुद्री भाग पर निम्न वायुदाब के केन्द्र के कारण हवाएँ स्थल से समुद्र की ओर बहती हैं। आधुनिक शोधों के कारण अब यह मत मान्य नहीं है। अब वैज्ञानिक मानसून की उत्पत्ति के लिए जेट पवनों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इस मत के अनुसार मानसून की उत्पत्ति वायुमण्डलीय पवन के संचार से होती है जिसमें तिब्बत का पठार मुख्य है। ऊँचाई पर स्थित होने के कारण ये पठार गर्म होकर भट्ठी की तरह काम करता है। इस कारण इन अक्षांशों (20° उत्तरी अक्षांश से 20° दक्षिणी अक्षांश) में धरातल एवं क्षोभमण्डल के बीच वायु का एक आवृत्त बन जाता है।
क्षोभमण्डल में उष्णकटिबन्धीय पुरवा जेट तथा उपोष्ण कटिबन्धीय पछुआ जेट धाराओं के चलने से वायुमण्डल की आर्द्रतायुक्त हवाएँ ऊपर क्षोभमण्डल में पहुँचकर विभिन्न दिशाओं में फैल जाती हैं और निम्न क्षोभमण्डल में बहने लगती हैं। अधिक ऊँचाई पर पहुँचकर यही हवाएँ घनीभूत होकर भारतीय महाद्वीप में मानसूनी पवनों को उत्पन्न करती हैं, जिनसे समस्त भारत में वर्षा होती हैं।
भारत की ऋतुएँ –
भारतीय जलवायु में विषमता के कारण ही इसे वार्षिक ऋतु चक्र में विभाजित किया गया है जिससे इसकी जलवायु को आसानी से समझा जा सके। भारतीय ऋतुओं को चार मुख्य भागों में बाँटा गया है-
- शीत ऋतु (Winter Season)
- ग्रीष्म ऋतु (Summer Season)
- वर्षा ऋतु (Rainy Season)
- शरद ऋतु।
1. शीत ऋतु –
भारत में यह ऋतु 15 दिसम्बर से 15 मार्च तक रहती है। इसे शीत ऋतु कहते हैं। इस ऋतु में सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में रहता है। इस ऋतु में हवाएँ स्थल से समुद्र की और चलती हैं। उत्तरी मैदानी भाग में उच्च वायुदाब के कारण व्यापारिक हवाएँ चलती हैं। इस समय उत्तरी भारत का औसत तापमान 10° से 15° सेल्सियस के बीच रहता है और दक्षिण का तापमान 20० से 25० सेल्सियस पाया जाता है। उत्तरी भारत में शीतलहर का प्रकोप जारी रहता है।
भारत में शीत ऋतु सुहावनी होती है। सुबह के समय कोहरा पाया जाता है और दिन में आकाश स्वच्छ रहता है। शीत ऋतु में कभी-कभी व्यापारिक पवनों से वर्षा होती है। गेहूं की फसल के लिए यह ऋतु लाभप्रद होती है। मैदानी भागों में पश्चिम से पूर्व वर्षा की मात्रा घटती जाती है। विशोभ के कारण तापमान में कभी कई दिनों तक अचानक गिरावट आ जाती है जो बाद में सही हो जाती है। व्यापारिक पवनों से सबसे ज्यादा वर्षा तमिलनाडु के तटीय भाग में होती है।
2. ग्रीष्म ऋतु –
भारत में ग्रीष्म ऋतु 15 मार्च से 15 मई तक होती है। इस समय सूर्य भूमध्य रेखा पर सीधे पड़ता है। इस समय तापमान लगभग 40° सेल्सियस तक रहता है। मई के महीने में तापमान 48° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। इस ऋतु में तटीय प्रदेश तथा आन्तरिक भागों में ताप का अन्तर बहुत अधिक पाया जाता है क्योंकि तटीय भागों में स्थलीय तथा जलीय हवाएँ चलती हैं। उत्तरी भारत में न्यूनतम तापमान 21° सेल्सियस तथा दक्षिण के पूर्वी भाग में तापमान 27° सेल्सियस से अधिक पाया जाता है।
ग्रीष्म ऋतु में तापमान अधिक रहने के कारण वायुदाब में कमी हो जाती है जिसे मानसून का निम्न वायुदाब गर्त कहते हैं। इसके चारों ओर वायु का परिसंचरण होने से देश के उत्तरी-पश्चिमी भाग में निम्न वायुदाब के केन्द्र में शुष्क और गर्म हवाएँ चलती हैं। ये हवाएँ दोपहर से रात तक चलती हैं। स्थानीय भाषा में इनको ‘लू’ कहते हैं। कभी इन्हीं पवनों के कारण भयंकर तूफान आता है जिससे वर्षा होती और ओला भी पड़ता है। इससे गर्मी से राहत मिलती है। गर्मी में असम और बंगाल में इस वर्षा को ‘काल बैसाखी’ कहते हैं। दक्षिणी भाग कर्नाटक एवं केरल को आम्रवृष्टि के रूप में वर्षा प्राप्त होती है। यह वर्षा आम कहवा और चाय की फसल के लिए अति उत्तम होती है। यह वर्षा गरज, चमक के साथ मूसलाधार रूप में होती है।
3. वर्षा ऋतु –
वर्षा ऋतु 15 मई से 15 सितम्बर तक रहती है। इस समय निम्न दाब का केन्द्र ज्यादा सघन हो जाता है। इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ भूमध्य रेखा को पार करके भारत की ओर बढ़ने लगती हैं। फैरल के नियम के अनुसार ये हवाएँ भारत तक पहुँचते ही मानसूनी पवनों में बदलकर वर्षा के लिए उपयुक्त दशाएँ उत्पन्न करती हैं। जुलाई में सबसे ज्यादा तापमान 40° सेल्सियस थार के मरुस्थल में पाया जाता है। इस समय पछुवा जेट हवाएँ उत्तर की और बढ़ती हैं और न्यून वायुदाब क गर्त को पश्चिम की ओर खिसकाने में सहयोग देती हैं। यह गर्त 90० 30° पूर्व की ओर पहुँचकर पुरवा जेट पवनों को आकर्षित करता है, जिससे मानसून का विस्फोट होता है।
4. शरद ऋतु –
अक्टूबर या सितम्बर के अन्त में सूर्य कर्क रेखा से विषुवत् रेखा की ओर खिसकने लगता है जिससे वायुदाब का केन्द्र भी बदलने लगता और इससे मानसून लौटने लगता है। मानसूनी हवाएँ इस समय एकदम क्षीण हो जाती हैं और वर्षा को मात्रा भी कम होने लगती है, जिससे प्रतिचक्रवात की स्थिति उत्पन्न होने लगती है और आकाश स्वच्छ हो जाता है। तापमान पुनः बढ़ने लगता है जिससे आर्द्रता के कारण उमस का प्रभाव हो जाता है।
भारत में ऋतुओं के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि शीत ऋतु और ग्रीषा ऋतु में कुछ समय बढ़ा सुहावना रहता है। इस समय न अधिक गर्मी रहती है, न अधिक सर्दी। इस समय को बसन्त ऋतु कहा जाता है। इसी प्रकार शरद् ऋतु और शीत ऋतु के समय को शिशिर ऋतु कहते हैं।
लौटता मानसून –
15 सितम्बर के पश्चात् मानसून के लौटने की दिशा दक्षिण की ओर होती है। समस्त क्षेत्रों में मानसून लौटने का समय अलग-अलग होता है। पश्चिमी बंगाल में 15 अक्टूबर और आंध्र प्रदेश में 1 नवम्बर के बाद फिर ये हवाएँ दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर चली जाती हैं। इस समय तापमान कम होने लगता है और हल्की ठण्ड पड़ने लगती है। इन पर्वतों से तमिलनाडु के तटीय भाग में वर्षा होती हैं। इन पवनों से कभी-कभी चक्रवात की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिनसे तटीय भागों में भारी नुकसान होता है।
दक्षिणी भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति के कारण मानसून की दो शाखाएँ पायी जाती हैं-
- अरब सागर का मानसून,
- बंगाल की खाड़ी का मानसून ।
1. अरब सागर का मानसून –
अरब सागर को पार करके भारत में पहुँचनेवाला मानसून बंगाल की खाड़ी के पहले ही भारत में प्रवेश करता है और ज्यादा समय तक रहता है। महाराष्ट्र में यह 5 जून तक और मालाबार तट के दक्षिणी भागों में यह और भी पहले पहुँचता है। जब उत्तरी भारत में वर्षा खत्म हो जाती हैं तब भी मालाबार तट के दक्षिणी भाग में इस मानसून से वर्षा होती रहती है। इन हवाओं का प्रभाव दक्षिण से उत्तर तथा पश्चिम से पूर्व की ओर क्रमशः घटता जाता है। पश्चिमी घाट के पर्वतों को पार करके जब ये हवाएँ पूर्वी ढालों से नीचे उतरती हैं तो इनमें बहुत कम नमी रह जाती है। इस नमी के कारण यहाँ कम वर्षा होती है। यह भाग वृष्टि छाया प्रदेश कहलाता है। पश्चिमी तट पर स्थित मंगलौर के तट पर इन हवाओं से 280 सेमी तक वर्षा होती है, जबकि पश्चिमी घाट को पार करने पर बंगलुरू में वर्षा की मात्रा घटकर 50 सेमी तथा चेन्नई में 38 सेमी ही रह जाती है।
अरब सागर के मानसून की एक शाखा नर्मदा, ताप्ती नदियों की घाटियों से होती हुई गुजरात, मध्य प्रदेश और बिहार में वर्षा करती है। एक शाखा कच्छ की खाड़ी से अरावली पर्वत की समान दिशा में प्रवाहित होती है। और बिना वर्षा किये हिमालय के प्रदेशों से जा टकराती है। इन हवाओं से जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेशों के ढालों पर अच्छी वर्षा होती है।
2. बंगाल की खाड़ी का मानसून –
बंगाल की खाड़ी (Bay of Bengal) का मानसून अरब सागर के मानसून की अपेक्षा ज्यादा शक्तिशाली होता है। जब विषुवत्रेखीय निम्न वायुदाब की पेटी का विस्तार उत्तरी भारत तक हो जाता है तब आस्ट्रेलिया में चलने वाली दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक पवनें भी भारत की ओर मुड़ जाती हैं। विषुवत् रेखा पार करने पर इनकी दिशा उत्तर की ओर हो जाती है। विश्व में सबसे ज्यादा वर्षा इन्हीं पवनों से होती है।
बंगाल की खाड़ी का प्रबलतम मानसून असोम की गारो, खासी और जयन्तिया पहाड़ियों से टकराकर घनघोर वर्षा करता है। इन पर्वतों का आकार कीपाकार है। 1357 मीटर की ऊँचाई पर स्थित माॅसिनराम को वर्ष भर में औसत 1,125 सेमी वर्षा प्राप्त होती है। मेघालय के मॉसिनराम में संसार की सबसे ज्यादा वर्षा होती है। इन घाटियों से निकलने पर वर्षा की मात्रा कम हो जाती है।
पूरब की ओर गारो, खासी से उत्तर की ओर हिमालय के कारण मानसून की दिशा पहले पूरब से पश्चिम फिर पंजाब पहुँचते- पहुँचते दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम हो जाती है। जब यह मानसून गंगा की घाटी की तरफ मुड़ता है तब उत्तर-पूरब की अपेक्षा दक्षिण-पश्चिम में कम वर्षा करता है। कोलकाता में 115 सेमी, पटना में 102 सेमी और इलाहाबाद में 82 सेमी वर्षा जून से सितम्बर तक होती है। ये स्थान समुद्र से दूर होते हैं जिससे हवाओं की वर्षा शक्ति कम हो जाती है। इन स्थानों पर हिमालय पर्वत हवाओं को रोककर वर्षा करने में सहायता देता है। जो स्थान हिमालय पर्वत से दूर है या जहाँ पर कोई अवरोध नहीं है वहाँ पर कम वर्षां होती है।
भारत में वर्षा का वितरण (Distribution of Rainfall in India) –
मानसून की अनियमितता और अनिश्चितता के कारण ही भारत में वर्षा का वितरण असमान है। भारत की स्थिति और उच्चावच की विषमताओं के कारण पर्वतीय और तटीय प्रदेश में वर्षा का वार्षिक औसत जहाँ 300 सेमी रहता है वहीं राजस्थान में यह औसत 50 सेमी से कम पाया जाता है। भारत की 90% वर्षा मानसूनी पवनों से होती है और शेष चक्रवाती पवनों से ऋतु विभाजन के आधार पर प्रदेश में मानसून से 35 सेमी, पीछे हटते मानसून से 4 सेमी तथा गर्मी में 9 सेमी और शेष वर्षा शीतकाल में होती है।
क्षेत्रीय वितरण और वर्षा की मात्रा के आधार पर भारत में वर्षा के चार प्रमुख क्षेत्र हैं-
- अधिक वर्षा वाले क्षेत्र – इन क्षेत्रों में 200 सेमी से ज्यादा वर्षा होती है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत असोम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नगालैण्ड और पश्चिमी बंगाल आते हैं। दक्षिणी भारत के पश्चिमी तटीय भाग भी अधिक वर्षा वाले क्षेत्र हैं। बंगाल की खाड़ी के मानसून की एक शाखा उत्तर तथा उत्तर-पूर्व दिशा में ब्रह्मपुत्र की घाटी की ओर बढ़ जाती है। इसके उत्तर पूर्वी भारत में अत्यधिक वर्षा होती है। उत्तर- पूर्वी भाग में वर्षा सर्वाधिक होती है।
- मध्यम वर्षा वाले क्षेत्र – इन क्षेत्रों में 100 सेमी से 200 सेमी वर्षा होती है। इस भाग में पश्चिमी तटवर्ती भागों के पूर्वोत्तर ढाल, पश्चिमी बंगाल के दक्षिणी- पश्चिमी भाग, ओडिशा, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, हिमालय का तराई क्षेत्र और मध्य प्रदेश मध्यम वर्षा वाले क्षेत्र में आते हैं।
- न्यून वर्षा वाले क्षेत्र – इन क्षेत्रों में 50 सेमी से 100 सेमी तक वर्षा होती है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत हरियाणा, पंजाब, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरी-दक्षिणी आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक तथा दकन का पठारी भाग सम्मिलित हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा कम होने से यहाँ अकाल पड़ जाता है। इन क्षेत्रों में सिचाई की आवश्यकता रहती है।
- शुष्क क्षेत्र – जिन क्षेत्रों में 50 सेमी से भी कम वर्षा होती है वे शुष्क क्षेत्र कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी गुजरात और तमिलनाडु का रायल सीमा क्षेत्र आता है। वर्षा की कमी के कारण ये भाग हमेशा सूखे की चपेट में रहते हैं। यहाँ पर सिंचाई के बिना कृषि कार्य असम्भव है।
भारत में वर्षा की विशेषताएँ (Qualities of Rainfall in India) –
भारतीय वर्षा की निम्न विशेषताएँ हैं-
- भारत की अधिकांश वर्षा जून से सितम्बर के महीने में मानसूनी पवनों से होती है।
- भारतीय वर्षा का समय अनिश्चित और अनियमित है।
- भारत में वर्षा का वितरण बहुत असमान है। जैसे मेघालय के चेरापूँजी के निकट मॉसिनराम में वार्षिक वर्षा का औसत 1080 सेमी तथा राजस्थान में 10 सेमी ही रहता है।
- भारत की 90% वर्षा गर्मी में ही होती है। शीत ऋतु में केवल 10% वर्षा तमिलनाडु तट पर लौटती हुई मानसूनी हवाओं से होती है।
- वर्षा के लिए अवरोध अत्यन्त जरूरी है, इसलिए असोम में ज्यादा वर्षा होती है, क्योंकि यह चारों ओर से गारो और खासी पर्वतमाला से घिरा है जबकि मरुस्थलीय भाग वर्षाविहीन है।
- भारत में वर्षा मूसलाधार होती है जिससे मिट्टी का कटाव होता है।
- भारत में वर्षा कभी कई-कई दिनों तक लगातार होती है तो कभी कई कई दिनों तक पानी नहीं बरसता ।
- भारत में वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण में कम हो जाती है, जबकि शीतकाल में वर्षा की मात्रा पश्चिम से पूर्व की ओर कम होती जाती है।
जलवायु का मानव-जीवन पर प्रभाव –
पर्यावरण में सबसे ज्यादा जलवायु ही मानव-जीवन को प्रभावित करती है। जलवायु के आधार पर ही मानव अपना रहन-सहन, खान-पान और वेश-भूषा निश्चित करता है। भारत में कृषि ही राष्ट्र के अर्थतन्त्र की धुरी है, जो विषम जलवायु के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित है। कृषि के अन्तर्गत उद्योग, व्यवसाय, परिवहन और संचार व्यवस्था प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से दोनों ही जलवायु से प्रभावित होती हैं। भारतीय जलवायु निम्न तरीके से मानव-जीवन को प्रभावित करती है-
- भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ कृषि ही मुख्य उद्यम है जो पूरी तरह से जलवायु, तापमान और वर्षा पर निर्भर करती है। इन्हीं तत्त्वों को ध्यान में रखकर अलग-अलग जगह, अलग-अलग प्रकार की फसलें उगायी जाती हैं।
- भारत के जिन क्षेत्रों में उत्तम और स्वास्थ्यकर जलवायु पायी जाती है वहाँ सघन जनसंख्या पायी जाती है. जैसे गंगा की घाटी और समुद्र तटीय मैदानी भाग। जिन क्षेत्रों में उत्तम जलवायु नहीं पायी जाती है वहाँ विरल जनसंख्या पायी जाती हैं, जैसे पश्चिमी राजस्थान एवं थार के मरुस्थल । यहाँ उष्ण शुष्क जलवायु के कारण जनसंख्या न के बराबर है।
- मानव के आर्थिक क्रिया-कलाप, जैसे- शिकार करना, मछली पकड़ना, लकड़ी काटना, पशुपालन, कृषि उद्योग, व्यापार आदि भी जलवायु से ही नियन्त्रित होते हैं।
- उद्योग-धन्धों पर भी जलवायु का प्रभाव पड़ता है, जैसे हिमालय के पर्वतों में वन उद्योग, मरुस्थल में पशुचारण उद्योग, पश्चिमी बंगाल में जूट उद्योग व मध्य प्रदेश में बीड़ी उद्योग का विकास भी इन प्रदेशों की जलवायु के कारण है।
- परिवहन और यातायात पर भी जलवायु का गहरा प्रभाव पड़ता है। आँधी, तूफान, वर्षा, कुहरा के कारण वायु, रेल और जल परिवहन में व्यवधान पड़ता है जिससे व्यापार प्रभावित होता है।
- जलवायु का प्रभाव मानव निवास पर भी पड़ता है इसलिए भारत में मकान हवादार बनाये जाते हैं। उनमें आँगन व बरामदे होते हैं क्योंकि भारत में गर्मी की ऋतु लम्बी होती है और जाड़े की ऋतु छोटी होती है।
- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और जलशक्ति का उत्पादन भी जलवायु के कारण प्रभावित होता है।
- जलवायु के कारण मानव की कार्य-क्षमता प्रभावित होती है। जिन क्षेत्रों में गर्मी पड़ती है वहाँ मानव जल्दी थक जाता है. जबकि शीत प्रदेशों में रहनेवाले मनुष्यों की कार्यक्षमता ज्यादा होती है।