![सुमेरियन सभ्यता- उद्भव, विकास, सामजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति [UPSC NCERT Note]](https://mlvvxpsmh4vh.i.optimole.com/w:150/h:150/q:mauto/rt:fill/g:ce/f:best/https://naraynum.com/wp-content/uploads/2023/11/Sumerian-Civilization-2.jpg)
सुमेरियन सभ्यता (Sumerian Civilization) –
मैसोपोटामिया की सभ्यता एवम् नगर राज्यों का विकास दजला एवं फरात नदियों के मध्य क्षेत्र में विकसित हुआ | इस क्षेत्र में यह विकास नवपाषण काल में प्रारंभ हुआ और मैसोपोटामिया के उत्तरी क्षेत्र में उत्तरी सीरिया के निचले घास के मैदान तथा दूसरा क्षेत्र दक्षिणी मैसोपोटामिया था, जो ऊपरी हिस्सा कहलाता था | यहाँ निचले क्षेत्र में उम्मदबधियाह, हस्सुना तथा समरा और उसके बाद हलफ संस्कृतियों का विकास हुआ जबकि दूसरे (ऊपरी क्षेत्र) में 30 वेद तथा सुसियाना संस्कृतियों का विकास हुआ |
उम्मदबधियाह इस क्षेत्र की प्राचीनतम संस्कृति थी जहाँ के निवासियों ने अण्डाकार निवास स्थल बनाए बाद के काल में घरों की दीवारों पर चित्रकारी की भी शुरुआत की | ये निवासी मृदभांड बनाने की कला से भी परिचित थे | जंगली पशुओं के शिकार के अतिरिक्त ये जौं, तिलहन और सफ़ेद मटर की खेती भी करते थे | लगभग 6000 ई०पू० के आसपास इस संस्कृति के पश्चात् यहाँ हस्सुना संस्कृति (6000-5250 ई०पू०) अस्तित्त्व में आई | इस संस्कृति के दौरान गाँव तथा यहाँ की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई | इस संस्कृति के एक स्थल यरीम टेप (Yarim Tape) से एक विशाल भवन संरचना वाले अन्नागार के प्रमाण मिले हैं | पशुपालन के अलावा यहाँ गेंहूँ, जौ और तिलहन की खेती की जाति थी | इस स्थल से कई-कई कमरों वाले घरों के भी प्रमाण मिले हैं | इस स्थल के मृदभांड बहुत कलात्मक और चित्रकारी युक्त थे इन्हें हस्सुना डीलैक्स वेयर का नाम दिया गया है | संभवतः सर्वप्रथम तांबा धातु का इन्होने प्रयोग किया | ये कीमती पत्थारों को दूसरे प्रदेशों से आयात कर औजारों का निर्माझा करते थे | यहाँ से प्राप्त पत्थर की मुद्राक (Seal) इस संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती है |
टिगरीस (Tigrus) नदी के किनारे बगदाद से 100 किमी उत्तर में बसे Tell-es-sawaan नामक स्थल से हमें हस्सुन से भी विकसित समरी संस्कृति की जानकारी मिलती है | जिनका तकनीकी स्तर काफी उच्च था और दूसरे क्षेत्रों से इन्होने व्यापारिक संबंध भी स्थापित किए | मृतकों का शवाधान ये चटाइयों में लपेट कर कीमती पत्थरों तथा तांबे के आभूषणों को शव के साथ रखते थे | यहाँ से प्राप्त अल्वास्टर पत्थर की सुन्दर आकृतियाँ इनके धार्मिक कार्यों की धोतक हैं | एक मंदिर परिसर के नीचे 130 में अधिकतर बच्चों को दफ़नाने के प्रमाण मिले हैं | कृषि के अलावा यहाँ सिचाई व्यवस्था भी काफी उन्नत थी | इस काल के महत्वपूर्ण भवन T आकार के थे जो बाद में सुमेरियन T आकार से मंदिरों में विकसित हुए |
5500-4700 ई०पू० के आसपास हल्फ सस्कृति जो उत्तरी सीरिया, टर्की तथा उत्तर-पश्चिमी इराक में अस्तित्व में आई, इसका अन्य विकसित संस्कृतियों से सम्पर्क और आदान-प्रदान हुआ | इस काल में ‘थोलाई’ एक प्रकार के गोलभवन, जो चाबीनुमा था को अन्नागार के तौर पर प्रयोग किया जाता था इसके अलावा यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में भी इस्तेमाल होता था | इस संस्कृतियों की निवासियों ने कृषि के अलावा सुन्दर मृदभांडों का निर्माण किया | जिन पर Textile डिज़ाइन बने होते थे तथा ये डीलक्स बर्तन सुदूर के प्रदेशों में निर्यात किए जाते थे ये मृदभांड लेबनाॅन में रामशामरा स्थल पर मैडिट्रेनियन समुद्र तक तथा उतर येवान झील तक टर्की से प्राप्त हुए है | इस काल में वस्त्र उद्योग काफी विकसित था | तांबाधातु की जानकारी लोगों को थी | दूर प्रदेशों से व्यापार से साथ-साथ इन्होने कबीलाई आधार पर सामजिक संगठन का विकास कर लिया इस प्रकार यहाँ राजनैतिक तथा सामाजिक ढांचे के विकास के प्रमाण मिलते हैं |
दक्षिण मैसोपोटामिया में उर शहर के कुछ दूरी पर स्थित अलग उब्बेद नामक स्थल पर सुमेरियन सभ्यता का विकास हुआ | 4000 ई०पू० के बाद यहाँ की संस्कृति ग्रामणीकरण से धीरे-धीरे शहरी संस्कृति में परिवर्तित हुई | कस्बों और शहरों का विकास हुआ | जैसे- सुसा, उकैर, उरूक, इरिडू, उर इत्यादि इस काल के महत्वपूर्ण स्थल थे | इन स्थलों के मध्य में मंदिर तथा उसके आस-पास बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं | मन्दिर के आसपास पुजारी, उच्चवर्ग तथा शिल्पी वर्ग निवास करते थे तथा इसके बाहर कृषकों के निवास स्थल थे | इरिडू शहर में इस काल में करीब 5000 से अधिक जनसंख्या थी | एक ही स्थल पर बार-बार मंदिर निर्माण से उस स्थल की ऊंचाई आसपास के क्षेत्र की अपेक्षा बढ़ गई थी इस काल में मंदिर की पवित्रता की अवधारणा शुरू हो गई थी | कालांतर में सीढ़ीनुमा सुमेरियन मंदिरों का विकास इन्हीं मंदिरों से हुआ इस काल से इनके सामजिक संगठन में भी बदलाव देखने को मिलता है | मंदिरों के आकार भी अपेक्षाकृत बढ़ने लगे तथा मंदिरों के पुजारी की बढ़ती हुई शक्ति इस काल में एक केंद्रीकृत शक्ति होने का प्रमाण देती है | इस प्रकार इस काल में सुमेरियन नगर-राज्यों का विकास हुआ तथा इसके बाद के काल को नगर-राज्यों का काल कहा जाता है |
नगर राज्य या उरूक काल (City States/URUK Period) –
इस काल की खास विशेषता थी की नगरीय केन्द्रों का स्थापित होना, जिनसे बाद की शहरी सभ्यता का उदय हुआ | इस काल में विभिन्न नगरों के उदय के कारण राज्यों का काल काल या इसे उरूक नामक नगर, जो इस काल का प्रमुख नगर केन्द्र था, के नाम पर उरूक काल भी कहा जाता है | यह इस काल के पांच प्रमुख नगर राज्यों मे से एक था और सबसे अधिक उत्खनित स्थल भी था। पांच प्रमुख नगर उर, उरूक, किश, लगाश तथा निप्पुर थे। इस काल में जनसंख्या मे वृद्धि हुई जिसका कारण था बढ़ी जन्म दर और घुम्मकडों का स्थायी निवास इत्यादि । जिससे नगरों की जनसंख्या और उनका क्षेत्र भी बढ़ा। इस काल के शुरू में यानि 3500 ई०पू० में दक्षिणी मेसोपोटामिया मे 17 गांव 3 कस्बे तथा केवल एक ही छोटा शहर था। लेकिन 3200 ई०पू० तक गांवों की संख्या 112, छोंटे कस्बें 10 और एक शहर था। लेकिन 200 वर्षो के पश्चात् गांवों की संख्या 112 से 124 छोटे कस्बें 10 से 20 तथा शहर एक से 20 तथा एक बड़ा शहर बन गया था। इस काल में सामाजिक और तकनीकी परिवर्तन भी हुए। इन परिवर्तनों ने पूर्णतः ग्रामीण उब्बेद संस्कृति को एकीकृत शहरी संस्कृति में बदल दिया। जिसमें बड़े-बड़े सार्वजनिक भवनों (मन्दिरों) का निर्माण और लेखन काल का विकास, नए प्रकार के मृदभांड, सिलेंडर आधार की मुद्रांको का प्रचलन शामिल है। इन सभी ने एक नगरीय क्रांति की इसके साथ समाज में भिन्नताएं तथा विशेषीकरण हुआ ।
इस काल में मेसोपोटामिया के विभिन्न नगरों के बीच आपसी प्रतिस्र्पधा शुरू हो गई थी। प्रत्येक नगर के मध्य उस नगर के प्रमुख देवता का मन्दिर होता था । उरूक का मुख्य देवता Anu (अनु) था जो आकाश का देवता भी था । इ-अन्ना प्रेम की देवी थी। नगर में इनके भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। एक मन्दिर चूने के पत्थरों से निर्मित था। जो 86X33 मीटर का था जिसकी दिवारों और स्तम्भो पर पकी मिट्टी के शंक (Cones) से डिजाइन बने हुए थे। इसी तरह अन्य शहरों जैसे मिप्पुर, किश, सरेडू, उर, लगाश इत्यादि के भी अपने देवता थे और ये मंदिर भी भव्य तथा इंटों के चबूतरे पर निर्मित थे। सामान्य नगरों से इनकी ऊंचाई 15-16 मीटर तक थी ।
मंदिरों के अनेक महत्वपूर्ण कार्य थे और मंदिरों में पुजारी का मुख्य स्थान था। मंदिरों का मुख्य कार्य कृषि के लिए नहरें खुदवाना और पानी की व्यवस्थ करना था। इसके बदले में मंदिर को कृषकों से लगान के रूप मे अन्न की प्राप्ती होती थी और इसे मंदिरों में जमा किया जाता था। मंदिर के परिसर में रहने वाले कारीगर, दुकानदार और बुनकर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करते थे, बाद में जिन्हें व्यापार के लिए बेचा जाता था। ये सभी कारीगर मंदिर के समीप ही निवास करते थे। मंदिर के समीप रहने वालों का सामाजिक स्तर अपेक्षाकृत ऊंचा था। कृषक एवम् अन्य वर्ग के लोग मंदिर के परिधि से बाहर निवास करते थे। समाज की इस नई सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के लिए कानून, उसके अधिकार तथा एक अलग व्यवस्था द्वारा संचालित होने लगी जिसमें मन्दिर के पुजारी की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
मंदिरों के कार्यो में बढ़ोतरी के साथ उनके आकार में भी वृद्धि होने लगी तथा मन्दिरों के पुजारियों की राजनैतिक स्थिति भी मजबूत होने लगी। कृषि योग्य भूमि तथा बढ़ती जनसंख्या की पानी व्यवस्था के लिए नहरों का निर्माण करवाया गया। नहरें बनाने, उनका उचित रखरखाव तथा पानी के बंटवारे के लिए अनेक कर्मचारी नियुक्त किए गए। जिस कारण लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त हुए तथा वेतन के तौर पर उन्हें अन्न भी दिया जाने लगा। शुरू में हिसाब-किताब रखने का कार्य मौखिक रूप से किया जाता था लेकिन कांलातर में कार्य बढ़ने के कारण संकेत लिपि तथ कीलनुमा लिपि का आविष्कार भी इन्हीं मन्दिरों में हुआ। इस प्रकार हम देखते है कि सिचांई व्यवस्था तथा नौकरशाही के कारण ही मैसोपोटानिया में सुमेरियन सभ्यता का विकास हुआ। इस काल में मन्दिर शिक्षा के भी प्रमुख केन्द्र थे। कारीगरों, लिपिकों तथ नौकरों को प्रशिक्षण देना तथा जन साधारण को शिक्षा देना मंदिरों का ही उतरदायित्व था |
राजनैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था (Political and Social System) –
इस काल में राज्यों की राजनैतिक संरचना धर्म पर आधारित थी। प्रत्येक नगर-राज्य का अपना अलग देवता था, सारी प्रजा उसी की सन्तान मानी जाती थी। पुजारी का राजनैतिक महत्व बहुत था क्योंकि वह सभी प्रशासनिक, धार्मिक और सामाजिक कार्यों का प्रधान था। राज्य में नहरे खुदवाना और सिचाई का प्रबंध उसके कार्यों में शामिल था। इस कार्य के लिए उसने अनेक व्यक्ति नियुक्त किए हुए थे। मन्दिरों में पुजारी तथा अन्य नौकरशाही के लोगों का वर्ग सबसे उतम माना जाता था। इसके बाद मन्दिरों में कार्य करने वाले कारीगरों, प्रशासकों तथा व्यापारियों का स्थान था। लिपि के अविष्कार के बाद हिसाब-किताब रखने वालों का महत्व काफी बढ़ गया था। लेकिन यह उन्नति अपेक्षाकृत बाद में हुई। मन्दिरों में कार्यरत वर्ग परिसर के आस पास के क्षेत्र में निवास करता था। कृषकों तथा अन्य व्यक्ति मंदिर परिसर से बाहर निवास करते थे। इस प्रकार हम सामाजिक स्थिति के अनुसार प्रत्येक वर्ग के रहने के स्थान तथा उनकी प्राथमिकताओं को देख सकते हैं जिनका केन्द्र बिन्दु मन्दिर तथा उनके पुजारी होते थे।
इस काल में एक ही स्थान पर बार-बार मंदिर निर्माण के कारण उस स्थान की ऊँचाई काफी बढ़ गई बाद में इन्हीं से सुमेरियन जिग्गुरात या सीढीनुमा मन्दिरों का विकास हुआ। मंदिर इस काल में एक राजनैतिक ईकाई के रूप में भी उभर कर सामने आए तथा इस काल में व्यापार, सिचांई इत्यादि में काफी उन्नति हुई। कुछ विद्वान तो सिचांई व्यवस्थ तथा उसके साथ संबधित नौकरशाही का ही सुमेरियन सभ्यता के विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू मानते है। इस काल में निर्मित मंदिर ही सुमेर की वास्तुकला के नमूने बने। सिलेन्डनुमा मुंद्राक (seals) का प्रचलन जो सर्वप्रथम इसी काल में शुरू हुई जो बाद के काल तक भी चलती रही । Seals मुख्यतः Lapis-Lazuli (लाजवर्द मणि) तथा कीमती पत्थरों से निर्मित थी ये कलात्मक भी थी। इनके अतिरिक्त सुन्दर मूर्तियों, सोना-चांदी और तांबे के आभूषण तथा उन्नत मृदभांड कला का विकास इस काल में हुआ था। धातु से इस काल में बहुधा बर्तन बनाए गए। इस काल की प्रमुख उपलब्धी लेखनकला की शुरूआत थी इसी से इस सभ्यता का विकास हुआ। सर्वप्रथम हमें इनके इ-अन्ना देवी के मंदिर से इसका पता चलता है। लेखनकला में सर्वप्रथम तस्वीर कुरेद कर बनाई जाती थी बाद में कलाकार लेखनी की शुरूआत हुई। लेकिन इस काल में प्रत्येक चीज या विचार को एक चिन्ह दिया गया जिनकी एक Phonetic Value रही । मिट्टी की तखतियों (Tablets) पर लेखन की शुरूआत हुई। इन पर वस्तुओं की सूची जो भेजी गई या प्राप्त की गई दोनों अंकित होती थी। ये अभी केवल प्रशासनिक एवम् आर्थिक कार्यो के लिए ही प्रयुक्त होती
थी। इस काल की समाप्ती तक मैसोपोटामिया में समकालीन सभ्यताओं की अपेक्षा काफी प्रगति हो चुकी थी। अगला काल जिसे जेमदेत नस्र काल (3100-2900 ई०पू०) कहा जाता हैं, इसमें सर्वप्रथम बाहर की संस्कृतियों से सम्पर्क भी स्थापित हो गए तथा इसे अर्न्तराष्ट्रीयकरण का काल भी कहा जाता है।
जेमवेत नस्र काल (Protoliterate Period) –
इस काल का नाम एक शहर जो कि बगदाद तथा बिलोन के मध्य स्थित है, के नाम पर पड़ा। यह उरूक काल का ही विकसित रूप था। क्योंकि इस काल में धार्मिक तथा धर्मनिरपेक्ष मुद्रांकों का प्रचलन, वास्तुकला तथा अधिकतर मृदभांड पहले काल जैसे ही है। लेकिन कुछ नए मृदभांड भी प्रचलन में आए जिन पर किया गया चित्रण इरान की ऐसामाहद संस्कृति के प्रभाव को दर्शाता है। लेकिन इस काल में धातु ज्ञान, कला, लेखन कला, तथा नौकरशाही में काफी विकास हुआ जो एक प्रफुल्लित सभ्यता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है |
इस काल में सुमेर में बाहर से अनेक लोग आए जिस कारण जनसंख्या में वृद्धि हुई। इसके साथ ही अन्तराष्ट्रीयता का युग प्रारंभ हुआ क्योकि दक्षिण-पश्चिमी इरान में जिसका मुख्य केन्द्र सूसा (Susa) था में, ऐलामाइट संस्कृति का प्रारंभ हुआ। इन दोनों के आपस में व्यापारिक संबंध स्थापित हुए। जेमदेत नस्र के मृदभांड तथा मुद्रांक इरानी पठार में टेप याहया जो कि उरूक से 100 मील पूर्व में स्थित था तक मिलती है। इसके अतिरिक्त सुमेरियन प्रकार के मुद्रांक सूसा में ऐलामाइट भाषा में लिखे मिलने लगे। ये मुद्रांक इरानी पठार में याहया, स्याल्क, शहर-ए-सोख्ता, हिस्सार इत्यादि के अतिरिक्त तुर्कनेनिस्तान तक प्राप्त होते हैं। इन सभी स्थलों पर समान लिखे मुद्रांक, मृदभांड, बड़े-2 भवन प्राप्त होते है। इन दोनों संस्क तियों का सम्पर्क बढ़ी जनसंख्या के लिए नए क्षेत्रों की खोज, नए संसाधन, व्यापार और बाजार के कारण हुआ इरानी क्षेत्र में सुमेरियन संस्कति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
ऐतिहासिक युग –
मैसोपोटानिया में ऐतिहासिक युग से पूर्व अनेक प्रतिस्पर्धी नगर राज्य थे। सुमेरियन लेखों में हमें अति प्राचीन काल में जिसुद्र के शासन काल में जल प्रलय होने का उल्लेख मिलता है। इन अभिलेखों में इस जल प्रलय के पूर्व तथा बाद के इन दो युगों मे विभाजन मिलता है। जलप्रलय से पूर्व का युग काल्पनिक लगता है। क्योंकि इनमें कई राजवशों का काल लाखों साल तथा बहुत सी मिथ्या घटनाओं को इसमें जोड़ दिया गया है। पुरातात्विक साक्ष्यों से जल प्रलय के प्रमाण तो स्पष्ट मिलते है। प्रो० यूनार्ड वूली को उन नगर में 40 फीट नीचे 11 फीट मोटी मिट्टी की तह प्राप्त हुई जो संभवत फरात नदी में आई बाढ़ के कारण बनी थी। इसके अलावा सत्य और कल्पना का एक मिश्रण गिल्गामेश आख्यान में भी मिलता है जो कि एरेक का एक क्रूर शासक था जिसे मार के लिए देवताओं ने श्याबानी नामक देत्य का सृजन किया। जलप्रलय के बाद के काल में हमें ऐतिहासिकता प्राप्त होती है और सुमेरियन शासकों की महत्वपूर्ण सूची मिलती है। जिसमें शासको के क्रमबद्ध नाम, उनके शासन काल इत्यादि मिलते है। इसमें हमें उसके चार प्रसिद्ध राजाओं का नाम भी मिलता है, जो बाद के सुमेरियन साहित्य में भी वर्णित है।
सुमेरियन राज्य सरंचना –
प्रारंभिक काल में सुमेर में छोटे-छोटे नगर राज्यों का उदय हो गया था जिनकी प्रभुसता शहर तथा इसके आस पास के कुछ गांवों तक ही सीमित थी। प्रत्येक नगर के मुख्य देवता का मंदिर मध्य में स्थित होता था। जहां पर पुजारी निवास करता था । वही समस्त प्रशासनिक, धार्मिक तथा आर्थिक कार्य नौकरशाही की मदद से सम्पन्न करता था। हांलाकि प्रत्येक नगर में नागरिकों की एक संस्था भी होती थी, जिसका वर्णन बाद के अभिलेखों में मिलता है। गिल्गामेश के आख्यानों से पता चलता है कि उस समय राज्य में 2 संस्थाएं महत्वपूर्ण थी। आपातकाल में इनकी बैठकें होती थी। जैसे गिल्गामेश के काल में अग्गा के शासक द्वारा गिल्गामेश को आत्मसर्पण के संदेश के समय हुई।
नगर राज्यों में वास्तविक प्रभुत्व पुजारियों का ही था और राज्य में एक प्रकार का धार्मिक प्रजातंत्र स्थापित था । उस काल में मन्दिर ही समस्त शक्तियों का केन्द्र थे। बाद में सम्पन्नता बढ़ने के कारण तथा बाहरी आक्रमणों के कारण सेनापति का महत्व भी धीरे-धीरे बढ़ने लगा था। कालान्तर में राजतंत्र की स्थापना हो गई। इसके साथ-साथ मन्दिर के प्रतिद्वंदी के रूप में राजमहल भी आ गया। राज्य के समस्त कार्य जो पहले मंदिरों में होते थे वह अब महल में भी होने लगे। जैसे: प्रशासन, कर इक्कठा करना, नई नहरों का निर्माण तथा सिचाई व्यवस्था आदि। इस प्रकार मन्दिर तथा महल सुमेरियन राज्य के दो मुख्य स्तम्भ बन गए। लेकिन बाद में मन्दिरों के कार्य धीरे-धीरे घटते गए और वे अब केवल धार्मिक तथा समाज की भलाई के कामों तक ही सीमित रह गए तथा दूसरी और राजाओं की शक्ति में बढ़ोत्तरी हुई तथा वंशानुगत राजतंत्र की स्थापना हो गई। इस प्रकार लुगल पटेसी क्रमशः राजा तथा देवता के प्रतिनिधि के रूप में प्रयुक्त होते थे। इनमें कोई भेद नहीं रह गया था और प्रत्येक शासक यह उपाधि धारण करने लगा था। प्रारंभ में लुगुल का पद अस्थाई होता था परन्तु कालांतर में नगर राज्यों के आपसी कलह बढ़ने के कारण व्यवहार में यह स्थाई हो गया। कहीं-कहीं तो प्रधान मन्दिरों के प्रधान पुजारी लुगलों के समान राजनैतिक नेता बन गए थे जिन्हें ‘एनसी’ कहा जाता थ |
साम्राज्यवाद का उदय –
तीसरी सहस्त्राब्दी में सुमेर में राजनैतिक एकता की जरूरत प्रतीत होने लगी। सारगोन तथा उसके उतराधिकारियों ने देश में राजनैतिक एकता स्थापित की थी। इसलिए वहां अपनी सता बनाए रखने के लिए अक्कादी नरेशों ने व्यक्तिगत अनुयायियों का दल या सेना बनाई तथा मन्दिर की भूमि को उनमें बांट दिया। राजा के प्रति आस्था का सिंद्धात भी उसी काल में प्रतिपादित हो लोकप्रिय हो गया। राज्य का प्रशासन सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए विभिन्न नगरों में अपने गर्वनर नियुक्त किए गए तथा नरमसिन के काल में तो उन्हें ‘राजा का दास’ की उपाधि धारण करनी होती थी। इसके अतिरिक्त न्यायालयों में राजा के नाम पर शपथ की पद्धती भी चली। यह राजा को दैविक सम्मान का दर्जा प्रदान करने के लिए शुरू हुई। पूरे राज्य में समान पंचांग लागू कर समस्त राज्य में एकता लाने का कार्य भी इन राजाओं ने किया। राजवंश के इस काल में राजा का पद वंशानुगात था। राजाओं ने अपनी मूर्तियां मन्दिरों में भी रखवाई और राजा को पवित्र किए जाने के अनुष्ठान किए जाने लगे। नरमसिन के नाम के साथ देवता शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। बाद में यह प्रथा सुमेर में भी काफी लोकप्रिय हुई और राजा के प्रति भक्ति के सिद्धान्त का प्रतिपादन होने लग |
न्याय व्यवस्था –
प्रारंभ में सुमेरियन राज्य में न्याय का कार्य रीति-रिवाजों एवम् वंश परम्पराओं पर आधारित था । परन्तु सुमेर में अलग-अलग जातियों के आगमन से समाज में अन्तः विरोध उत्पन्न होने लगे। तब शासकों ने स्थिति को सुधारने के लिए नए कानून बनाए तथा तृतीय शताब्दी में सभी कानूनों को संग्रहित कर एक व्यवस्थित कानून संहिता का निर्माण किया जो बैबीलोनिया के महान सम्राट हम्मुराबी की संहिता से भी कई सौ वर्ष पहले की है। लेकिन हाल के शोध कार्यों से कई नगर राज्यों की विधि संहिताओं को भी प्रकाश में लाया गया हैं।
सुमेर की न्यायव्यवस्था में प्रारंभ से ही मन्दिर के पुजारियो की भूमिका महत्वपूर्ण थी। साम्राज्य काल में भी पुजारी ही न्यायधीश होते थे। स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे न्यायालय थे। कुछ नगर राज्यों में नागरिक सभाओं को भी न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। वादी और प्रतिवादी को स्वंय अपना पक्ष रखना पड़ता था तथा न्यायधीश पुराने फैसलों के आधार पर फैसले सुनाते थे। सुमेर की दण्ड व्यवस्था काफी उदार थी। फैसलों में वादी के अनुसार अपराधी को दण्ड दिया जाता था। सरकारी कर्मचारी वादी की सहायता करते थे। किसी भी मुकद्दमें पर तभी विचार किया जाता था जब वादी स्वयं या उसके परिवार का कोई सदस्य न्यायलय के फैसले को लागू करवाने का वचन देता था। इसके अतिरिक्त सुमेरियन कानूनों के अनुसार आकिस्मक एवम् संकल्पित मानव हत्या में कोई अंतर नहीं था। अनजाने में हत्या हो जाने पर भी मृतक व्यक्ति के परिवार को अपराधी द्वारा धन दिया जाना होता था। आम मुकद्दमों में जैसे तलाक के मामलें में व्याभिचारिणी पत्नी को पति को तलाक न देकर दूसरी पत्नी की दासी के रूप मे पहली पत्नी को रखना होता था। कानून के समक्ष सभी नागरिक समान नहीं थे। अपितु उन्हें उनके वर्ग के अनुसार ही दण्ड दिया जाता था जैसे उच्च वर्ग के व्यक्ति की हत्या दूसरे वर्ग की हत्या से अधिक संगीन मानी जाती थी। भागे हुए दास को शरण देने वाले व्यक्ति को उसका जुर्माना भरना पड़ता था ।
सामाजिक व्यवस्था (Social System) –
समेरियन समाज में मुख्य तीन वर्ग थे। उच्च वर्ग में शासक, राजपरिवार के सदस्य, उच्चाधिकारी तथा पुरोहित शामिल थे। इनका समाज में प्रतिष्ठित स्थान था तथा ये बड़े-बड़े महलों और घरों में निवास करते थे। दूसरा वर्ग मध्यम श्रेणी का था जिसमें कृषक, व्यापारी, लिपिक, शिल्पी तथा कारीगर इत्यादि शामिल थे। निम्नवर्ग में दास तथा सर्फ शामिल थे।
सुमेरियन समाज में स्त्रियों की स्थिती काफी उच्च थी तथा उन्हें बहुत से ऐसे अधिकार प्राप्त थे जो किसी अन्य सामाजिक संस्कृति में देखने को नहीं मिलते। लेकिन कानूनी रूप में उन्हें अपने पति की सम्पति ही माना जाता था और पत्नी को बेचने तक का प्रावधान था। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता था। विवाह उपरान्त पति का वधु के दहेज पर अधिकार नहीं था, उसे पत्नी अपनी इच्छानुसार खर्च करती थी। यहीं नही पति तथा पुत्र के ना होने पर परिवार की सम्पति का अधिकार भी उसी का था। वह सार्वजनिक तथा धार्मिक कार्यों में भाग ले सकती थी। यहां तक कि अपने पति से स्वतंत्र होकर व्यापार में भी हिस्सा लेती थी। उसे व्याभिचारिणी होने पर भी तलाक नहीं दिया जा सकता था, लेकिन इस स्थिती में वह दूसरी पत्नी की दासी के रूप में रहती थी। कुछ कन्याओं को मंदिर में देवदासियों के तौर पर भी दान में दिया जाता था इस प्रथा में देवार्पित करने पर उत्सव मनाया जाता था और उसे धन इत्यादि भी भेंट किया जाता था। स्त्रियों से अपेक्षा की जाती थी कि वे ज्यादा से ज्यादा सन्तान पैदा करे और ऐसा ना होने पर उसे तलाक दिया जा सकता था।
निम्न वर्ग की स्त्रियों का जीवन उच्च वर्ग की स्त्रियों से भिन्न था। उन्हें वे भौतिक सुख प्राप्त नहीं थे जो उच्च वर्ग की स्त्रियों को प्राप्त थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों का जीवन काफी विलासी था वे श्रृंगार प्रिय थी। पुरातात्विक उत्खनन के दौरान शाही समाधि में एक रानी की कब्र से एक लघु प्रसाधन पेटका (Vanity Box) प्राप्त हुई हैं। जिसमें सोने और कीमती रत्नों की विभिन्न वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त उच्च वर्ग की स्त्रियां अंगूठियां, कर्णहार, कर्ण के गहने, पावं के गहने, कड़े इत्यादि पहनती थी। केश विन्यास के लिए कंघे और फूलों का प्रयोग किया जाता था । स्त्रियों चोली और ब्लाउज पहनती थी। पुरूष सामान्यतः लुंगी प्रकार का वस्त्र पहनते थी । पुरुष घर के बाहर जाने पर लंबा चोला प्रकार का वस्त्र धारण करने की प्रथा थी । इसके अतिरिक्त मृतक समाधि में राजा के साथ रानियों और नौकरों के दफनाने के प्रमाण से सती प्रथा जैसी किसी प्रथा के प्रचलन की जानकारी मिलती है।
आर्थिक व्यवस्था (Economic System) –
मेसोपोटामिया के अधिकांश क्षेत्रों में रेत के टीले है तथा बीच में दजला और फरात नदियों के आस-पास की जमीन समतल तथा उपजाऊ है। पहले यह दलदली भूमि थी लेकिन उब्बेद संस्कृति के काल में इस दलदली भूमि को कृषि योग्य बनाया गया तथा अतिरिक्त पानी नहरों द्वारा दूर के क्षेत्रों को सिंचित करने के लिए प्रयोग किया जाने लगा। नगर राज्यों के कालों तथा बाद में साम्राज्य काल में भी पुजारियों तथा शासकों ने नहरों का निर्माण करवाया तथा सिंचाई व्यवस्था की सुविधा उपलब्ध करवाई। इस कारण अतिरिक्त उत्पादन पर जोर दिया गया इससे फिर बाहर दूसरे प्रदेशों से विभिन्न वस्तुओं का आयात किया जाने लगा। जैसे यहां प्राकृतिक संसाधनों की कमी थी और इसलिए यहाँ लकड़ी प्रचूर मात्रा में उपलब्ध नही थी और ना ही पत्थर । जबकि ये दोनों चीजें महलों और मन्दिरों के निर्माण के लिए आवश्यक थे। इसलिए इन दोनों वस्तुओं का बाहर से आयात किया जाता था ।
सिंचाई व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान देता था। सर्वप्रथम मन्दिरों के पुजारियों ने नहरों के निर्माण की शुरूआत की तथा यहां के निवासी बिना वेतन प्राप्ती के यह व्यवस्था करते थे। इनके रख-रखाव, पानी बांटने के अधिकार के बदले में मन्दिरों को अन्न इत्यादि दिया जाता था। जिससे मन्दिर तथा उसके अन्य अनेक कर्मचारियोंके भरण-पोषण से बचे हुए का प्रयोग पुनः नहरों को बनाने तथा रख-रखाव पर खर्च किया जाता था। साम्राज्य काल में भी सम्राटों ने सिचाई व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया। नदी में बाढ़ का पानी इक्कठा कर उसे ढेंकुली या रहट की सहायता से नहरों द्वारा खेतों में पानी पंहुचाया जाता था। इसके अतिरिक्त नहरें यातायात का साधन भी थी इसी मार्ग द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा जाता था।
कृषि (Agriculture) –
सुमेरियन राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत कृषि था तथा सिंचाई के कारण भूमि से अधिक उत्पादन किया जा सकता था। यूनानी विद्वान हेरोडोटस भी मेसोपोटानिया की धरती की उर्वरता से काफी प्रभावित हुआ था। यहां की भूमि काफी उर्वर और उपजाऊ थी। सुमेर में मुख्यतः गेंहू, जौ की खेती की जाती थी। नदियों, नहरों तथा तटीय क्षेत्रों के किनारे, खजूर उगाए जाते थे। सुमेर में बहुत से फलों के बाग भी भी थे। कषि के लिए पानी का उचित प्रबन्ध कराना राज्य का महत्वपूर्ण कार्य था इसके अतिरिक्त विश्व का प्रथम कृषि पंचाग भी यहां विकसित किया गया जिसमे कषि करने के समय, विधि और औजार आदि का पूरा विवरण दिया गया है। खेतों में हल चलाने के लिए गधों एवम् आनेगर का प्रयोग किया जाता था।
पशुपालन (Animal Husbandry) –
कृषि के अतिरिक्त पशुपालन भी एक प्रमुख कार्य था। ये लोग गाय, बैल, भेड, बकरी, सूअर, गधे, ओनेगर इत्यादि पालते थे। यहां पर गाय की देवी के रूप में कल्पना की गई है। उर के समीप निर्मित गौ देवी का मन्दिर बनाया हुआ प्राप्त हुआ है। यहां के भितिचित्रों से उस काल के दूध उद्योग की भी जानकारी मिलती है। पशुओं का प्रयोग पहिए वाली गाड़ियों को खींचने के लिए भी किया जाता था जैसे बैल, गधा, खच्चर तथा आगेनर आदि। नहरों, नदियों से मछली पालने तथा पकडने का कार्य भी किया जाता था। इसके अलावा हल के साथ ही नाली द्वारा बीज डालने की व्यवस्था भी की जाती थी।
उद्योग-धन्धे (Business) –
इनके अतिरिक्त अन्य उद्योग धन्धों का विकास भी सुमेर में हो चुका था। मन्दिरों में संग्रहित कृषि उत्पादों को चीजों में बदलने के लिए, कारीगर उपस्थित थे, जो रेशेदार पदार्थो से धागा तथा कपड़ा बनाते थे। खालों से जूते तथा कपड़े एवम् चीजों का निर्माण किया जाता था। इसके अतिरिक्त बाहर से मंगाई लकड़ी का प्रयोग बढ़ई सुन्दर फर्नीचर बनाने में करते थे। लकड़ी की नांवे और गाड़ियों भी बनाई जाती थीं |
इस काल में धातु ज्ञान काफी विकसित हो चुका था। विदेशों से आयात खनिजों से तांबा टिन, सोना, चांदी और सीसे की चीजें बनाई जाती थी। तांबे और कांसे के औजार तथा बर्तन, सोने-चांदी के आभूषण बनाए जाते थे। वस्त्र उद्योग तो हल्फ काल से ही काफी उन्नत हो चुका था। इस काल का वस्त्र उद्योग भी काफी प्रफुल्लित था। सूती वस्त्र के अतिरिक्त भेडों की उन से ऊनी वस्त्रों को भी यहां बनाया जाता था। इसके अतिरिक्त बर्तन बनाना, ईंट बनाना तथा मूर्तियां बनाने के कार्य में इस काल में शिल्पी तथा कारीगर सिद्धहस्त थे। रथों तथा गाड़ियों में पहियों का प्रयोग आदि सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में हुआ था । रथों के लकड़ी के पहियों पर चमड़े के टायर चढ़ाना इन्हें आता था ।
व्यापार (Trade) –
इस सभ्यता के काल में कृषि के अतिरिक्त व्यापार का काम भी महत्वपूर्ण था। क्योंकि यहां संसाधनों की कमी थी तथा लकड़ी, धातुएं, पत्थर इत्यादि बाहर से मंगवाए जाते थे तथा इसके बदले कृषि उत्पाद जैसेः अनाज, खजूर, वस्त्र, चमडा, ऊनी वस्त्र, फल इत्यादि बाहर भेजे जाते थे। व्यापार में प्रारंभ में मन्दिरों का ही बोलबाला था तथा मन्दिर के सदस्य ही व्यापार करते थे तथा स्थानीय वस्तुओं को बाहर भेज सोना, चांदी रत्न मणियां, तांबा, लकडी तथा पत्थर इत्यादि मंगवाए जाते थे । बाद में कुछ स्वतंत्र व्यापारियों ने भी यह कार्य शुरू किया। इनका व्यापार भूमध्यसागर के तट, एलामाइट, मिस्र तथा सिन्धु तट तक विस्तृत था। आयात की जाने वाली वस्तुओं में अधिकतर विलासिता की चीजें ही होती थी। फारस की खाड़ी में स्थित दिलमुन, ओमान से ताम्र, तोरूस से चांदी, सीरिया, एशिया माइनर से टिन इत्यादि मंगवाया जाता था । सामान एक स्थन से दूसरे स्थान ले जाने के लिए बैल, गधों, ऊंटों से खींची जाने वाली पहिएदार गाडियां तथा नावों का प्रयोग जलयातायात मे किया जाता था। सारगोन के काल में व्यापार में बहुत उन्नति हुई। सिन्धु तथा मिस्र तक के क्षेत्रों से प्राप्त अभिलेखों में उल्लिखित मलुहा का समीकरण मोहनजोदड़ों से किया गया है। जहां से इस समय तांबा आयात किया जाता था ।
व्यापार के लिए अनुबंद इत्यादि मिट्टी की (तखतियों) पर लिखे जाते थे। बाहर भेजी जाने वाली वस्तुओं तथा बाहर से आने वाली वस्तुओं का उल्लेख इन तखतियों पर किया जाता है। व्यापारिक अनुबन्धों में गवाहो के हस्ताक्षर भी होते थे। यह हुडियों तथा बिल, रसीदों को भी लेन-देन में प्रयोग करते थे। इब्ला नामक स्थल से सुमेरियन लिपि में लिखी हजारों Tablets प्राप्त हुई है जिनसे इस काल के वस्त्र उद्योग तथा अन्तराष्ट्रीय व्यापार का पता चलता हैं इन 15000 Tablets में से 14000 वस्त्र उद्योग, व्यापार विनियम से संबधित है। 500 कृषि तथा कृषि उत्पादन की जानकारी देती है। यह शाही अभिलेखागार अपने प्रकार का एक अनूठा संग्रह है। सुमेर के राजाओं जैसे सारगोन, नरमसिक ने व्यक्गित रूप से व्यापार तथा व्यापारियों की सुविधाओं का ध्यान रखा व्यापारियों की सुरक्षा के लिए उनके आग्रह पर सेना भी भेजी जाती थी । वस्तुओं को विनिमय के लिए धातु का प्रयोग माध्यम के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। इसके लिए चांदी के टुकड़ों का प्रयोग एक निश्चित भार, जो कि एक शेकल का 1/16 भाग था, में होता था । कर के रूप में चांदी तथा अन्य खाधान्न तेल, खजूर, इत्यादि दिए जाते थे। इस काल में व्यापार को लोकप्रिय बनाने के लिए आजकल की तरह कमीशन देने तथा ऐजेन्ट भेजने की प्रणाली भी शुरू हो चुकी थी।
धर्म (Religion) –
सुमेरियन सभ्यता में धर्म का काफी महत्व था । प्रत्येक नगर के अपने 2 देवता होते थे तथा उनकी बड़ी-बड़ी मूर्तियां मदिरों में लगाई जाती थी। मंदिर नगर के मध्य में स्थित होता था। किसी भी स्थान की पवित्रता की भावना यहां पहले से ही आ चुकी थी। इसलिए एक ही स्थल पर बार-बार मंदिर बनाए जाते थे। जिस कारण मन्दिर आसपास के क्षेत्र से 15-16 मीटर तक ऊंचे होते थे | सुमेरवासियों के अनुसार आदिकाल में केवल जल ही जल था जिसकी कल्पना उन्होंने नम्मूदेवी के रूप में की है।
सुमेर का प्रमुख देवता आकाश देव ‘अन’ था जिसे ‘अनु’ भी कहा जाता था। इसकी पूजा समस्त सुमेर में तो की जाती थी । परन्तु प्रमुख रूप से उरूक में होती थी। जहां इसके अनेक भव्य मंदिर बनाए गए। इसे सर्वप्रथम देव राज माना जाता था । एनलिल इनका वायु देव था, इसे देव पिता आकाश का स्वामी इत्यादि भी कहा जाता था। ऐसा माना जाता था कि यही समस्त सृष्टि को अपने नियमों से व्यवस्थित करता है। इसी के कारण सूर्य उदय होता है तथा वनस्पति एवम् अन्न उत्पन्न होता है। यही देव संसद की दण्डाज्ञाओ को कार्यन्वित करने वाला है। नगरों को नष्ट करने वाले इस देव की पूजा निप्पुर में अधिक की जाती थी।
जलदेव के रूप में एनकी की पूजा की जाती थी। इसे ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक भी माना जाता था । यही नदियों, नहरों और सिंचाई अन्य साधनों को नियंत्रित भी करता था। पृथ्वी देवी (निन्माह) का स्थान भी महत्वपूर्ण था इसे पहले ‘की’ कहते थे। पृथ्वी को माता के रूप में पूजा जाता था तथा यही प्रति वर्ष भूमि को हरियाली से ढकती थी । अन्य देवगणों में नीति एवम् आचार का देव ‘इया’ सूर्य देव ‘अतू’ प्रेम की देवी ‘इन्ना’ जिसका चूने के पत्थरों का भव्य 86×33 मीटर का मंदिर उरूक नगर में स्थित था। चन्द्र देव ‘सिन’ की पूजा भी सुमेर में की जाती थी।
मिस्र की भांति सुमेर में भी मृतक संस्कार का पर्याप्त महत्व था । मृतकों को प्रायः मकान के आंगन या कमरे के फर्श के नीचे गाड़ते थे। साधाण व्यक्तियों को चतुर्भुजाकार कब्र में लिटा कर उस पर मेहराब बना दी जाती थी और उसके साथ मृदभांड, दैनिक उपभोग की वस्तुएं, अस्त्र-शस्त्र इत्यादि रखे जाते थे। संभवतः ये वस्तुएं अगले जीवन में प्रयोग के लिए रखी जाती थी । उर की राजसमाधी के उत्खनन से मृत राजा के साथ रानियां, नौकर, अंगरक्षक, सैनिक, दास और बैलों को दफनाने के भी प्रमाण मिले है। ताकि परलोक में भी वे अपने स्वामी की सेवा कर सके।