![रूस की क्रान्ति: कारण, उद्देश्य एवं परिणाम [Russian Revolution UPSC NCERT Notes]](https://mlvvxpsmh4vh.i.optimole.com/w:auto/h:auto/q:mauto/f:best/id:239afeba033ba768c1e1c02408707d72/https://naraynum.com/Russian-Revolution-UPSC-NCERT-Notes-2.jpg)
रूस की क्रान्ति –
19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में लगभग समस्त यूरोप में सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिवर्तन हो चुके थे। सामन्तवादी कुचक्र से जनमानस को छुटकारा मिल चुका था। अधिकांश क्षेत्रों में राजशाही का अन्त हो गया था तथा शासन की बागडोर मध्यम वर्ग के हाथों में आ गयी थी किन्तु रूस अभी भी जारशाही शासन-व्यवस्था का शिकार था। इसी निरंकुश जारशाही व्यवस्था के विरुद्ध जनान्दोलन हुआ जो रूस की क्रान्ति के नाम से प्रसिद्ध है। रूसी क्रान्ति का विश्व के इतिहास में विशेष महत्त्व है क्योंकि इस क्रान्ति ने न केवल राजनीतिक क्षेत्र में वरन् आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन किये। रूस की क्रान्ति ने बुर्जुआ वर्ग (पूँजीपति) व्यवस्था का सफाया कर दिया तथा देश के शासन पर सर्वहारा वर्ग (श्रमिक) का आधिपत्य स्थापित किया। रूस में इस क्रान्ति ने वास्तविक समाजवाद की स्थापना की।
क्रान्ति से पूर्व रूस की दशा –
1. रूस की सामाजिक दशा –
1861 ई० से पूर्व रूस सामन्तवादी व्यवस्था का शिकार था। उस समय रूसी समाज में तीन वर्ग थे-उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग और सर्वहारा वर्ग ।
उच्च वर्ग में जारशाही के सदस्य, सामन्त, उच्च अधिकारी आदि सम्मिलित थे। इनका जीवन सुखी एवं समृद्ध था। इस वर्ग के पास धन की अधिकता के कारण विलासी जीवन की सभी सुविधाएँ मौजूद थीं, इस वर्ग के लोग अपनी जमीनों पर कृषिदास या अर्द्धदासों (जिन्हें रूस में सर्फ कहा जाता था) से खेती करवाते थे। दूसरा वर्ग मध्यम वर्ग था। इसमें लेखक, विचारक, दार्शनिक, छोटे व्यापारी व छोटे सामन्त सम्मिलित थे। तीसरा वर्ग सर्वहारा वर्ग था। इसमें कृषिदास (सर्फ), कारीगर एवं मजदूर सम्मिलित थे। इस वर्ग की दशा सोचनीय थी। इन्हें कठोर परिश्रम के बाद भी भरपेट भोजन नहीं मिल पाता था। समाज में भी इन्हें कोई स्थान प्राप्त नहीं था। कुलीन वर्ग के लोग इन्हें घृणा की दृष्टि से देखते थे। रूसी समाज में भ्रष्टाचार एवं शोषण का बोलबाला था।
2. रूस की आर्थिक दशा-
रूस आर्थिक दृष्टि से एक पिछड़ा देश था। इस समय रूस की बहुसंख्यक जनता का मुख्य व्यवसाय कृषि था। राज्य की अधिकांश भूमि पर सामन्तों एवं कुलीनों का कब्जा था। कृषकों को भू-स्वामित्व नहीं प्राप्त था। उन्हें कृषि -उपज का अधिकांश हिस्सा करों के रूप में देना पड़ता था। अधिकांश किसानों को सामन्तों की भूमि पर बेगार करना पड़ता था। भूमि दास बहुत कम मजदूरी पर सामन्तों की जमीन पर कड़ी मेहनत करते थे। कल-कारखानों में भी मजदूरों को बहुत कम मजदूरी मिलती थी । वास्तव में रूस की बहुसंख्यक जनता भूख से परेशान थी। रूसी जनता की दरिद्रता एवं भुखमरी ने रूस में क्रान्ति का वातावरण तैयार कर दिया।
3. रूस की राजनीतिक दशा –
रूस की राजनीतिक दशा चिन्ताजनक थी। रूस के जार निरंकुश शासक थे तथा राज्य के अधिकारी जनता के साथ कठोर आचरण व अत्याचार करते थे। रूसी जनता प्रगतिशील पाश्चात्य विचारों से प्रभावित रूसी विचारकों एवं लेखकों के लेखों व विचारों से प्रभावित हो गयी थी। इसी समय कार्ल मार्क्स के समाजवादी विचारों से प्रभावित होकर कुछ नेता रूस में समाजवादी विचारधारा व समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के प्रयास में जुट गये। रूस के इन नेताओं के नेतृत्व में बहुत से श्रमिक संगठनों की स्थापना हुई। रूस में सर्वप्रथम 1898 ई० में रूसी समाजवादी प्रजातान्त्रिक दल की स्थापना हुई। वैचारिक मतभेद के कारण 1903 ई० में यह दल दो गुटों में विभाजित हो गया। इसमें एक गुट मेन्शेविक और दूसरा गुट बोल्शेविक के नाम से विख्यात हुआ।
मेन्शेविक दल का प्रमुख नेता करेन्स्की था। इस दल के लोग शान्ति और अहिंसा के समर्थक थे। मेन्शेविक दल के लोग वैधानिक रूप से शासन में परिवर्तन के पक्ष-पोषक थे। बोल्शेविक रूस का शक्तिशाली राजनीतिक दल था। देश के अधिकांश श्रमिक व मजदूर इस दल के सदस्य थे। इस दल के लोग क्रान्तिकारी व हिंसक विचारधारा के पक्ष पोषक थे। यह दल क्रान्ति करके बलपूर्वक शासन- सत्ता पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। लेनिन इस दल का प्रमुख नेता था।
1905 ई० की रूसी क्रान्ति –
रूस में जनता पर बर्बर अत्याचार किये जा रहे थे। रूस का तत्कालीन शासक जार निकोलस द्वितीय स्वयं एक क्रूर एवं निर्दयी जार था। उसने अपने शासन काल में जनता के साथ अमानवीय व्यवहार किया तथा उन्हें कुचलने के लिए कठोर नीति अपनायी। सामान्य जनता के भाषण, लेखन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कठोर प्रतिबन्ध लगे हुए थे तथा गैर-रूसी लोगों को रूसी बनाने की प्रक्रिया भी जारी थी।
रूस में कुलीनतन्त्र का समाज पर व्यापक प्रभाव था। यह वर्ग विशेषाधिकारों का दुरुपयोग करता था। सामान्य जनता का जीवन अभावग्रस्त एवं कष्टों से भरा था। राज्य व सेना के उच्च पदों पर इस वर्ग का एकाधिकार स्थापित था। रूस के सामन्त जार की निरंकुशता के समर्थक थे।
रूस में राजकीय अधिकारियों का नैतिक एवं चारित्रिक पतन हो गया था। राजकीय अधिकारी अनैतिक तरीके अपनाकर जनता का आर्थिक शोषण करते थे। इस समय जनता समाजवादी विचारों से प्रभावित होकर अपने अधिकारों की माँग करने लगी थी। रूसी जनता हिंसा पर उतारू थी। जगह-जगह हड़ताल, धरना व प्रदर्शन का दौर प्रारम्भ हो गया था। इसी बीच 1904 ई० में रूस-जापान युद्ध में रूसी सेना को पराजित होना पड़ा। रूस के क्रान्तिकारी आन्दोलन को इससे और भी बल मिला।
1905 ई० की रूसी क्रान्ति की घटनाएँ –
रूसी सेना की पराजय का समाचार सुनकर रूसी जनता के सब्र का बाँध टूट गया। सारे देश में ‘जारशाही का नाश हो. युद्ध का अन्त हो, क्रान्ति की जय हो, जनता की जय हो, सर्वहारा वर्ग जिन्दाबाद’ के नारे गूंजने लगे। इसी बीच 22 जनवरी, 1905 को जब मजदूरों के एक संगठन के प्रतिनिधि पादरी गोपन के नेतृत्व में अपने बीबी-बच्चों के साथ एक शांतिपूर्ण जलूस के रूप में जार को एक प्रार्थना-पत्र देने उसके सेंट पीटर्सबर्ग स्थित राजमहल जा रहे थे तब उन निहत्थे मजदूरों पर निर्ममतापूर्वक गोलियाँ बरसायी गयीं। एक हजार से अधिक मजदूर मारे गये और हजारों की संख्या में घायल हुए। यह हृदय विदारक घटना रूसी इतिहास में खूनी रविवार के नाम से प्रसिद्ध है। इस भीषण नरसंहार की खबर फैलते ही रूसी जनता हिंसक हो गयी तथा स्थान-स्थान पर जनता ने विद्रोह कर दिया।
रूसी जनता की हिंसक भीड़ के सामने अक्टूबर में जार को झुकना पड़ा। उसने रूसी जनता के सामने घोषणा की कि रूस के सभी नागरिकों को आर्थिक स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक रूप से भी स्वतन्त्र होगा। वह अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म का आचरण कर सकेगा। धर्म के आधार पर राज्य की ओर से कोई भेद-भाव नहीं किया जायेगा। रूसी जनता को भाषागत स्वतंत्रता होगी तथा किसी भी व्यक्ति को कानून के आधार पर ही दण्डित किया जायेगा अथवा जेल भेजा जायेगा। यथाशीघ्र जापान से सन्धि करके युद्ध को रोक दिया जायेगा। इस क्रान्ति के फलस्वरूप जार ने रूसी जनता को भाषण, प्रेस और संगठन की स्वतन्त्रता प्रदान की तथा ड्यूमा नाम की एक निर्वाचित संस्था (संसद) को कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया।
1905 ई० की रूसी क्रान्ति की असफलता –
जार जल्दी ही अपने वादे से मुकर गया। रूस की सेना एवं सरकारी कर्मचारियों के सहयोग से उसने पुनः निरंकुश जारशाही व्यवस्था को बनाये रखने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार 1905 ई० की क्रान्ति के द्वारा लाये गये परिवर्तन अस्थायी सिद्ध हुए किन्तु इस क्रान्ति ने जनता को जागरूक बनाकर एक और क्रान्ति के लिए तैयार कर दिया।
1917 ई० की रूसी क्रान्ति –
सन 1917 की रूस की क्रान्ति विश्व इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इसके परिणामस्वरूप रूस से निरंकुश ज़ार के स्वेच्छाचारी शासन का अन्त हुआ तथा रूसी सोवियत संघात्मक समाजवादी गणराज्य (Russian Soviet Federative Socialist Republic) की स्थापना हुई। यह क्रान्ति दो भागों में हुई थी – मार्च 1917 में, तथा अक्टूबर 1917 में। पहली क्रांति के फलस्वरूप सम्राट को पद-त्याग के लिये विवश होना पड़ा तथा एक अस्थायी सरकार बनी। अक्टूबर की क्रान्ति के फलस्वरूप अस्थायी सरकार को हटाकर बोल्शेविक सरकार (कम्युनिस्ट सरकार) की स्थापना की गयी।
1789 ई. में फ्रांस की क्रांति ने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की भावना का प्रचार कर यूरोप के जनजीवन को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। रूसी क्रान्ति की व्यापकता अब तक की सभी राजनीतिक घटनाओं की तुलना में बहुत विस्तृत थी। इसने केवल निरंकुश, एकतन्त्री, स्वेच्छाचारी, ज़ारशाही शासन का ही अन्त नहीं किया बल्कि कुलीन जमींदारों, सामंतों, पूंजीपतियों आदि की आर्थिक और सामाजिक सत्ता को समाप्त करते हुए विश्व में मजदूर और किसानों की प्रथम सत्ता स्थापित की। मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा को मूर्त रूप पहली बार रूसी क्रान्ति ने प्रदान किया। इस क्रान्ति ने समाजवादी व्यवस्था को स्थापित कर स्वयं को इस व्यवस्था के जनक के रूप में स्थापित किया। यह विचारधारा 1917 के पश्चात इतनी शक्तिशाली हो गई कि 1950 तक लगभग आधा विश्व इसके अन्तर्गत आ चुका था।
1917 ई० की रूसी क्रान्ति के कारण –
1917 ई० की रूसी क्रान्ति एक खूनी क्रान्ति थी। यह रूस के इतिहास में साम्यवादी क्रान्ति के नाम से प्रसिद्ध है। रूसी क्रान्ति के निम्नलिखित प्रमुख कारण थे :
- किसानों की दयनीय स्थिति- रूस की बहुसंख्यक जनता की, जिसका जीवन कृषि पर आधारित था, शासन द्वारा उपेक्षा की गयी। इस समय कृषकों को भू-स्वामित्व प्राप्त करने के लिए बड़ी धनराशि राजकोष में जमा करनी पड़ती थी। कृषकों को करों के भारी बोझ का सामना करना पड़ता था । कठोर परिश्रम के बाद भी इन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता था। सामन्त वर्ग के लोग इनसे जबरन बेगार कराते थे। इस प्रकार रूस की बहुसंख्यक जनता जार शासन से पूरी तरह असन्तुष्ट थी एवं क्रान्ति के पथ पर चलने को तैयार थी।
- श्रमिकों की हीन दशा – यद्यपि 19वीं सदी में रूस का औद्योगिक विकास हुआ तथा देश में बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हुए किन्तु धनिक वर्ग के लोग इन उद्योगों से अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने के लिए मजदूरों का शोषण करने लगे। मजदूरों को कम-से-कम वेतन दिया जाता था तथा उनसे अधिक-से-अधिक काम लिया जाता था। इस प्रकार मजदूरों की क्रय शक्ति घट गयी तथा उनमें घोर असन्तोष पैदा हो गया। मजदूरों का यह असन्तोष भी क्रान्ति का एक मुख्य कारण बना।
- साम्यवादी विचारों का प्रभाव – मार्क्स और लेनिन के साम्यवादी विचारों में सर्वहारा वर्ग (मजदूर) अपने सुनहरे भविष्य की कल्पना करने लगा था। वह जारशाही की दुर्व्यवस्था से निकलकर साम्यवादी व्यवस्था को अपनाने के लिए तैयार हो गया।
- 1905 ई० की क्रान्ति का प्रभाव – यद्यपि 1905 ई० की क्रान्ति द्वारा लाये गये परिवर्तन अस्थायी सिद्ध हुए किन्तु इस क्रान्ति ने जनता को जागरूक बनाकर राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष की प्रेरणा प्रदान की। 1905 ई० की क्रान्ति ने रूस की जनता को जनतन्त्र का महत्त्व समझा दिया था। इसलिए इसी क्रान्ति ने जनता को रूस में वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की।
- जार की निरंकुशता – रूस की निरंकुश जारशाही व्यवस्था ने रूसी जनता को क्षुब्ध कर दिया। केवल उच्च वर्गों के लोगों को छोड़कर देश की बहुसंख्यक जनता जारशाही का मुखर विरोध करने लगी। कालान्तर में जनता का यह विरोध क्रान्ति का मुख्य कारण बन गया। जार निकोलस द्वितीय निकम्मा था तथा वह अपनी महारानी एलेक्जैण्ड्रा और ढोंगी साधु रासपुतिन के गलत परामर्श से रूसी जनता के ऊपर अत्याचार करता था ।
- सेना का असन्तोष- प्रथम विश्वयुद्ध में रूसी सैनिकों को झोंक दिया गया किन्तु उनके लिए आवश्यक युद्ध-सामग्री, भोजन, वस्त्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इस युद्ध में साधनों के अभाव के कारण रूसी सेना को पराजय व अपमान का घूँट पीना पड़ा। इस युद्ध में 6 लाख रूसी सैनिक मारे गये तथा लगभग 20 लाख बन्दी बनाये गये। फलत: सेना में भी घोर असन्तोष व्याप्त हो गया जो कालान्तर में 1917 ई० की क्रान्ति का कारण बना।
- रूसी जनता की सोचनीय आर्थिक स्थिति – उद्योगपतियों द्वारा रूसी मजदूरों का आर्थिक शोषण किया जाता था और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने पर उन्हें राष्ट्रद्रोही मानकर कठोर दण्ड दिया जाता था। मजदूरों के पास अपनी सुरक्षा के लिए राजनीतिक अधिकार भी नहीं थे। फलतः दिन-प्रतिदिन उनकी आर्थिक दशा कमजोर होती चली गयी। अन्ततः वे क्रान्ति के प्रबल पक्षधर हो गये।
- रूसी विचारकों का योगदान – अनेक प्रगतिशील रूसी विचारकों ने अपने लेखों द्वारा रूस की परम्परावादी व्यवस्था की जमकर आलोचना की तथा कार्ल मार्क्स, निकोलाई लेनिन, टालस्टाय, तुर्गनेव आदि विचारकों ने रूस की शिक्षित जनता को प्रभावित कर एक वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न कर दी। इन विचारकों ने रूस के किसानों और मजदूरों को संगठित होकर संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान की। कार्ल मार्क्स की पुस्तक ‘दास कैपिटल’ अत्यन्त प्रसिद्ध है।
- भीषण अकाल – जिस समय रूसी जनता जार की दुर्व्यवस्था के कारण भूख से व्याकुल होकर हाय-हाय कर रही थी, उसी समय रूस में भीषण अकाल पड़ गया जिससे सर्वहारा वर्ग की कठिनाइयाँ अत्यधिक बढ़ गयीं। फलत: भूखे-नंगे मजदूर और किसान क्रान्ति का मार्ग चुनने को बाध्य हो गये।
1917 की रूसी क्रान्ति की घटनाएँ
प्रथम विश्वयुद्ध के भयंकर नरसंहार एवं धन-जन की अपार हानि के फलस्वरूप रूस की आर्थिक दशा सोचनीय हो गयी थी। रूस के लोग अन्न के अभाव में भूख से तड़पने लगे। फलत: जारशाही के विरुद्ध 7 मार्च, 1917 ई० को भूखी-नंगी जनता ने पेट्रोग्राड नगर में जलूस निकाला। नगर में होटलों आदि में गरमागरम रोटियों व अन्य खाद्य सामग्रियों को देखकर भूखी-प्यासी जनता का धैर्य टूट गया और भीड़ ने रोटियों की लूट मचा दी। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए उच्चाधिकारियों ने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया परन्तु सैनिकों ने भूखी-नंगी जनता पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।
पेट्रोग्राड में इस घटना के दूसरे दिन क्रान्ति हो गयी। क्रान्तिकारी ‘रोटी-रोटी’ चीखते-चिल्लाते सड़कों पर उतर आये। विभिन्न कारखानों आदि में काम करने वाले लाखों मजदूर हड़ताल करके क्रान्तिकारियों में शामिल हो गये। इस प्रकार क्रान्ति ने उग्र रूप धारण कर लिया। क्रान्तिकारी ‘युद्ध बन्द करो’, ‘जार शासन का नाश हो’, ‘जनता का राज्य हो’ जैसे नारे लगाने लगे। साम्यवादी और जार शासन के विरोधी तत्त्वों ने क्रान्तिकारियों को उत्तेजित करना आरम्भ कर दिया। 11 मार्च को सेना ने जार के आदेशों की अवहेलना करते हुए क्रान्तिकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।
क्रान्तिकारियों ने मजदूरों की एक सोवियत (सभा) का गठन किया। इसी दिन 25 हजार सैनिक भी सोवियत के समर्थक बन गये । 12 मार्च को मजदूरों की इस शक्तिशाली सभा ने पेट्रोग्राड (रूस की राजधानी) पर अधिकार कर लिया। राजधानी की सड़कों पर जार के विश्वासपात्र सैनिकों एवं क्रान्तिकारियों के बीच घमासान युद्ध होने लगा । क्रान्तिकारियों की बढ़ती हुई शक्ति से भयभीत जार निकोलस ने सिंहासन त्याग दिया। इस प्रकार 15 मार्च, 1917 ई० को निरंकुश रोमानोव राजवंश का सदा के लिए अन्त हो गया।
क्रान्तिकारियों ने करेन्स्की नेतृत्व में सरकार की स्थापना की, किन्तु यह सरकार रूस की तत्कालीन बिगड़ी हुई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति एवं मजदूरों आदि की समस्या का समाधान करने असफल रही। सरकार की असफलता का लाभ उठाकर लेनिन, जिसका पूरा नाम ब्लादिमीर इलिच यूलियनाव था, ने करेन्स्की सरकार को अपदस्थ करते हुए ट्राटस्की को सोवियत के अध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया। उसके नेतृत्व में बोल्शेविकों ने शक्ति के बल पर 6 नवम्बर, 1917 ई० को पेट्रोग्राड की सभी सरकारी इमारतों पर कब्जा कर लिया। करेन्स्की जान बचाकर विदेश भाग गया। इस प्रकार 1917 ई० में दो क्रान्तियाँ हुईं। पहली क्रान्ति फरवरी क्रान्ति और दूसरी क्रान्ति अक्टूबर क्रान्ति कहलाती है। प्राचीन रूसी कैलेण्डर विश्व के कैलेण्डर से 8. दिन पीछे था। इसीलिए 7 मार्च की क्रान्ति को फरवरी की क्रान्ति और 6 नवम्बर की क्रान्ति को अक्टूबर की क्रान्ति कहा जाता है। लेनिन ने सत्ता पर अधिकार करके 7 नवम्बर, 1917 ई० को रूस को प्रथम विश्वयुद्ध से अलग कर दिया और रूस में साम्यवादी शासन की स्थापना की।
रूसी क्रान्तिकारियों के प्रमुख उद्देश्य –
रूसी क्रान्तिकारियों के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य थे :
- रूसी क्रान्तिकारी रूसी समाज में शान्ति की स्थापना करना चाहते थे। वे निरन्तर युद्ध आदि से ऊब गये थे, इसलिए वे शान्ति चाहते थे।
- कृषकों की आर्थिक दशा में सुधार करने के लिए वे कृषकों को भू-स्वामित्व प्रदान कराने के पक्षधर थे।
- पूँजीपतियों द्वारा मजदूरों का आर्थिक शोषण समाप्त करने के लिए वे उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।
- पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त करना क्रान्तिकारियों का मुख्य उद्देश्य था ।
- रूसी क्रान्तिकारी समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करना चाहते थे।
- रूसी क्रान्तिकारी गैर-रूसी जातियों के साथ समानता के पक्ष- पोषक थे। इस प्रकार रूसी क्रान्तिकारी रूस में स्वतन्त्रता, समानता एवं भाईचारे की भावना पर आधारित प्रगतिशील समाज की स्थापना करना चाहते थे।
रूसी क्रान्ति के परिणाम –
1917 ई० की रूसी क्रान्ति 20वीं शताब्दी के इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना थी। इस क्रान्ति ने न केवल रूस वरन् सम्पूर्ण विश्व पर अमिट प्रभाव स्थापित किये। इस क्रान्ति के परिणाम दूरगामी तथा युगान्तकारी थे-
- इस क्रान्ति के फलस्वरूप रूस में सदियों से चले आ रहे स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश जारशाही शासन का सफाया हो गया।
- इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप रूस में किसानों तथा श्रमिकों का शोषण समाप्त हो गया।
- अभिजात वर्ग (सामन्त ) एवं चर्च की शक्ति का अन्त हो गया।
- देश से पूँजीवादी व्यवस्था समाप्त हो गयी तथा देश की सम्पूर्ण सम्पत्ति एवं उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित हो गया।
- रूस में लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था के आधार पर किसानों एवं श्रमिकों की सरकार बनी।
- देश के संसाधनों का प्रयोग व्यक्तिगत हित के लिए न होकर बहुजन हिताय किया जाने लगा।
- रूस में समाज कल्याणकारी राज्य की स्थापना हुई।
- रूसी साम्राज्यवाद का अन्त हो गया। जो देश रूस के उपनिवेश थे उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान कर दी गयी।
- सामाजिक असमानताएँ समाप्त हो गयीं।
- गैर-रूसी जातियों को समानता का स्तर प्राप्त हुआ तथा उन्हें भाषा एवं संस्कृति की रक्षा का अवसर प्राप्त हुआ
- लेनिन के नेतृत्व में रूस में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई।
- इस क्रान्ति के फलस्वरूप रूस में औद्योगिक विकास की गति तेज हो गयी।
- रूस सोवियत संघ के रूप में विश्व में महाशक्ति के रूप में अवतरित हुआ।