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प्रागैतिहासिक काल इतिहास नोट्स [UPSC Notes Based on NCERT]

by mayank
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प्रागैतिहासिक काल इतिहास नोट्स [UPSC Notes Based on NCERT]

प्रागैतिहासिक काल इतिहास

भारत में पाषाणकालीन सभ्यता की खोज का कार्य सर्वप्रथम 1863 ई० में आरम्भ हुआ, जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान राबर्ट ब्रूस फुट ने पल्लवरम् (मद्रास) से पूर्व पाषाण कालीन उपकरण (पत्थर के हाथ की कुल्हाड़ी) प्राप्त किया | ब्रिटिश भू-वैज्ञानिक और पुरातत्वविद् राबर्ट ब्रूस फूट ने भारतीय संस्थान जिओलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के लिए भारत में इतिहास पूर्व स्थानों का भू-विज्ञान संबंधी सर्वेक्षण किया था जिन्हें भारत के इतिहास पूर्व अध्ययन का संस्थापक माना जाता है |

प्रागैतिहासिक काल का विभाजन –

प्राचीन इतिहास को तत्कालिक मानवों द्वारा उपयोग किये गए उपकरणों एवं औजारों के आधार पर विभिन्न कालों में विभाजित किया है –

  1. पालिओलिथिक काल ​​(पुरापाषाण काल): 2500,000 ईसा पूर्व – 10,000 ईसा पूर्व
  2. मेसोलिथिक काल (मध्य पाषाण युग): 10,000 ईसा पूर्व – 7000 ईसा पूर्व
  3. नियोलिथिक काल ​​(नवपाषाण काल): 7000 ईसा पूर्व – 1000 ईसा पूर्व
  4. चाल्कोलिथिक काल ​​(ताम्रपाषाण काल): 3000 ईसा पूर्व – 500 ईसा पूर्व
  5. लौह युग: 1500 ईसा पूर्व – 200 ईसा पूर्व

पुरापाषाण काल (शिकार एवं खाद्य संग्रहण युग) –

भारत में मानव के प्राचीनतम अस्तित्व का संकेत द्वितीय हिमावर्त्तन (ग्लेसिएशन) काल की परतों से प्राप्त पत्थर के उपकरणों से मिलता है, जिसका काल 25,00,000 ई०पू० बताया जाता है | आदिम मानव को धातुओं का ज्ञान नहीं था, उसके पास निश्चित घरों का आभाव था | खेती करना, आग जलाना और बर्तन बनाने की कला का भी ज्ञान नहीं था | वे शिकार द्वारा जानवरों के मांस और ऐसे फलों एवं सब्जियों, कंद-मूलों (खाद्य संग्रह) पर जीवन व्यतीत करते थे, जो जंगलों में उपजाते थे |

पुरापाषाण युग की मुख्य विशेषताएँ –
  1. इस युग में भारत में ‘नेग्रिटो’ जाति के मानव रहते थे, जो खुली हवा, नदी घाटियों, गुफाओं और चट्टानी आश्रयों में रहना पसन्द करते थे |
  2. इस युग में मानव ने भोजन को इकठ्ठा करना सीख चुका था |
  3. इस युग का मानव फल और सब्जियाँ खाकर और शिकार करके अपना गुजारा करते थे |
  4. इस युग के मानव को मकान, मिट्टी के बर्तन, खेती का कोई ज्ञान नहीं था। बाद के चरणों में ही उन्होंने आग की खोज कर ली |
  5. पूर्व पुरापाषाण युग में चित्रकला के रूप में कला के साक्ष्य मिलते हैं।
  6. इस युग में मनुष्य हाथ की कुल्हाड़ी, चॉपर, ब्लेड, ब्यूरिन और स्क्रेपर्स जैसे बिना पॉलिश किए हुए, खुरदरे पत्थरों का इस्तेमाल करते थे।
  7. भारत में पुरापाषाणकालीन पुरुषों को ‘क्वार्टजाइट’ पुरुष भी कहा जाता है क्योंकि पत्थर के उपकरण क्वार्टजाइट नामक कठोर चट्टान से बने होते थे।

पुरापाषाण युग को मानव द्वारा प्रयुक्त होने वाले हथियारों के स्वरूप और जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. पूर्व पुरापाषाण काल (2500000 ई०पू० से 100000 ई०पू०)
  2. मध्य पुरापाषाण काल (100000 ई०पू० से 40000 ई०पू०)
  3. उत्तर पुरापाषाण काल (40000 ई०पू० से 10000 ई०पू०)
पूर्व पुरापाषाण काल –
  • अधिकांस हिमयुग आरम्भिक पुरापाषाण युग में ही व्यतीत हुआ है | इसका प्रमाण है – कुल्हाड़ी या हस्त-कुठार (हैंड-एक्स), विदारणी (क्लीवर) और गंडासा (खंडक) का उपयोग |
  • इस युग में चूना पत्थर का उपयोग औजार बनाने में भी किया जाता था।
  • भारत में प्राप्त हुई प्रस्तर कुल्हाड़ियाँ प्रायः पश्चिम एशिया, यूरोप एवं आफ्रीका से प्राप्त कुल्हाड़ियाँ जैसी ही हैं |
  • निम्न पुरापाषाण युग के अधिसंख्य स्थल, सिंधु नदी की सहायक ‘सोहन नदी’ की घाटी में पाए गये हैं |
  • पहली बार सोहन क्षेत्र से सम्बन्धित साक्ष्य मिलने के कारण इसे ‘सोहन संस्कृति’ की संज्ञा भी दी गयी है |
  • अनेक स्थल कश्मीर तथा थार के मरुस्थल (डीडवाना क्षेत्र) में भी मिलते हैं |
  • निम्न पुरापाषाण कालीन हथियार मिर्जापुर जिले की बेलनघाटी (उ.प्र.) एवं भीमबेटका की गुफाओं (भोपाल म.प्र.) में भी मिले हैं |
  • पूर्व पुरापाषाण युग के प्रमुख स्थल –
    • सोन घाटी (वर्तमान पाकिस्तान में)
    • थार मरुस्थल
    • कश्मीर
    • मेवाड़ का मैदान
    • सौराष्ट्र
    • गुजरात
    • मध्य भारत
    • दक्कन का पठार
    • छोटानागपुर का पठार
    • कावेरी नदी के उत्तर में
    • बेलन घाटी
मध्य पुरापाषाण काल –
  • इस युग में प्रस्तर शल्कों से निर्मित विभिन्न प्रकार के फलक, वेधनी, छेदनी, और खुरचनी का प्रयोग होता था, जो सम्पूर्ण भारत में पाये गये हैं |
  • इस युग में उपकरण छोटे, हल्के और पतले थे।
  • इस युग में अन्य उपकरणों की तुलना में हाथ की कुल्हाड़ियों के उपयोग में कमी आई।
  • इस युग का शिल्प कौशल नर्मदा नदी के किनारे-किनारे अनेक स्थानों पर और तुंगभद्रा नदी के दक्षिणावर्ती स्थानों पर भी पाया जाता है |
  • मध्य पुरापाषाण युग के महत्वपूर्ण स्थल –
    • यूपी में बेलन घाटी
    • लूनी घाटी (राजस्थान)
    • सोन और नर्मदा नदियाँ
    • भीमबेटका
    • तुंगभद्रा नदी घाटी
    • पोतवार पठार (सिंधु और झेलम के बीच)
    • संघाओ गुफा (पेशावर, पाकिस्तान के पास)
उत्तर पुरापाषाण काल –
  • इस युग में आर्द्रता कम हो गयी थी और जलवायु अपेक्षाकृत गर्म होते जाने के कारण हिमयुग की अंतिम अवस्था आरम्भ हो चुकी थी |
  • इसी युग में आधुनिक प्रारूप के मानव (होमोसेपियन्स) का आविर्भाव हुआ |
  • इस युग के प्रस्तर फलक और कुल्हाड़ियाँ आन्ध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केन्द्रीय मध्य प्रदेश, दक्षिण उत्तर प्रदेश, पूर्व बिहार (वर्तमान झारखण्ड) के पठारी भाग में पाए गये हैं |
  • गुजरात के टिब्बों के ऊपरी तलों पर एक उच्च पुरापषाणीय भंडार भी मिला है, जिसमें शल्क फलक, तक्षणियाँ और खुरचनियाँ सम्मिलित हैं |
  • उत्तर पुरापाषाण काल के प्रमुख स्थल –
    • भीमभेटका (भोपाल के दक्षिण) –  यहाँ हाथ की कुल्हाड़ियाँ और क्लीवर, ब्लेड, स्क्रेपर्स और कुछ ब्यूरिन पाए गए हैं।
    • छोटा नागपुर पठार (बिहार)
    • महाराष्ट्र
    • उड़ीसा
    • आंध्र प्रदेश में पूर्वी घाट

मध्य पाषाण युग (शिकार एवं पशुपालन युग ) –

  • मेसोलिथिक शब्द दो ग्रीक शब्दों – ‘मेसो’ और ‘लिथिक’ से मिलकर बना है, जिनका अर्थ क्रमशः ‘मध्य’ और ‘पत्थर अर्थात् पाषाण’ है | इसी लिए इस काल को मध्य पाषाण युग के नाम से भी जाना जाता है |
  • इस युग में मानव शिकार करके मछली पकड़ कर तथा कन्द-मूल का संग्रह कर उसी से अपना पेट भरते थे |
  • इस युग के प्रस्तर उपकरणों में परिष्कार आया और उनका आकार भी छोटा हो गया |
  • मध्य पाषाण-कालीन स्थल राजस्थान, दक्षिणी उ.प्र., मध्य व पूर्वी भारत तथा कृष्णा नदी के दक्षिण में बहुतायत से पाए गये हैं | यहाँ पर मानव बस्ती 5000 वर्षों तक रही |
  • मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान का बागोर पशुपालन का प्राचीनतम प्रमाण प्रस्तुत करते हैं, जिसका समय 5000 ई०पू० हो सकता है |
  • मध्य पाषाण कालीन महादहा (उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले) से बड़ी मात्रा में हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं |
मध्यपाषाण युग की विशेषताएँ –
  • इस युग के लोग शुरू में शिकार, मछली पकड़ने और भोजन इकट्ठा करने पर निर्भर थे, लेकिन बाद में उन्होंने  जानवरों को पालतू बनाया और पौधों की खेती की, जिससे कृषि का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
  • पालतू बनाया जाने वाला पहला जानवर कुत्ते का जंगली पूर्वज था। भेड़ और बकरियाँ सबसे आम पालतू जानवर थे।
  • मेसोलिथिक लोग गुफाओं और खुले  मैदानों पर कब्जा करने के साथ-साथ अर्ध-स्थायी बस्तियों में रहते थे।
  • इस युग के लोग मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास करते थे और इसलिए वे मृतकों को खाद्य पदार्थों और अन्य सामानों के साथ दफनाते थे।
  • इस युग के विशिष्ट उपकरण माइक्रोलिथ थे – लघु पत्थर के उपकरण आमतौर पर क्रिप्टो-क्रिस्टलीय सिलिका, चैलेडोनी या चर्ट से बने होते थे, जो ज्यामितीय और गैर-ज्यामितीय आकार दोनों के होते थे। उनका उपयोग न केवल उपकरण के रूप में किया जाता था, बल्कि उन्हें लकड़ी या हड्डी के हैंडल पर बांधने के बाद मिश्रित उपकरण, भाला, तीर की नोक और दरांती बनाने के लिए भी किया जाता था। इन माइक्रोलिथ्स ने मेसोलिथिक मनुष्य को छोटे जानवरों और पक्षियों का शिकार करने में सक्षम बनाया।
  • मध्यपाषाण काल ​​के लोगों ने जानवरों की खाल से बने कपड़े पहनना शुरू कर दिया।
  • मेसोलिथिक लोग कला प्रेमी थे और उन्होंने रॉक कला की शुरुआत की थी। इन चित्रों की विषयवस्तु अधिकतर जंगली जानवर होते थे और ऐसे चित्रों में शिकार के दृश्य, नृत्य और भोजन संग्रह का भी चित्रण किया जाता था। ये शैल चित्र धार्मिक प्रथाओं के विकास के बारे में जानकारी देते हैं और लिंग के आधार पर श्रम विभाजन को भी दर्शाते हैं।
  • गंगा के मैदानों पर पहला मानव उपनिवेश इसी काल में हुआ।
महत्वपूर्ण मध्यपाषाण स्थल –
  • राजस्थान में बागोर भारत के सबसे बड़े और सबसे अच्छे प्रलेखित मध्यपाषाणकालीन स्थलों में से एक है। बागोर  कोठारी नदी पर है जहां जानवरों की हड्डियों और सीपियों के साथ माइक्रोलिथ की खुदाई की गई है।
  • मध्य प्रदेश में आदमगढ़ जानवरों को पालतू बनाने का सबसे पहला साक्ष्य प्रदान करता है।
  • भारत भर में लगभग 150 मेसोलिथिक रॉक कला स्थल हैं, जिनमें मध्य भारत में भीमबेटका गुफाएं (मध्य प्रदेश), खरवार, जावरा और कथोटिया (एमपी), सुंदरगढ़ और संबलपुर (ओडिशा), एझुथु गुहा (केरल) जैसे समृद्ध केंद्र हैं। 
  • तापी, साबरमती, नर्मदा और माही नदी की कुछ घाटियों में भी माइक्रोलिथ पाए गए हैं ।
  • गुजरात में लंघनाज और पश्चिम बंगाल में बिहारानपुर भी महत्वपूर्ण मध्यपाषाणकालीन स्थल हैं । लंघनाज से जंगली जानवरों (गैंडा, काला हिरण आदि) की हड्डियाँ  खोदी गई हैं। इन स्थानों से कई मानव कंकाल और बड़ी संख्या में माइक्रोलिथ बरामद हुए हैं।
  • यद्यपि अधिकांश मध्यपाषाण स्थलों पर मिट्टी के बर्तन अनुपस्थित हैं, वे लंघनाज (गुजरात) और मिर्ज़ापुर (यूपी) के कैमूर क्षेत्र में पाए गए हैं। 

नव पाषाण काल (अन्न उत्पादक युग) –

  • विश्व के सन्दर्भ में नव पाषाण युग का आरम्भ 9000 ई०पू० में आरम्भ होता है लेकिन ब्लूचिस्तान के मेहरगढ़ में एक ऐसी प्राचीन भारतीय बस्ती मिली है, जिसका समय 7000 ई०पू० बताया जाता है |
  • इस युग ले लोग पाॅलिशदार पाषाण हथियारों का प्रयोग करते थे | वे विशेष रूप से पत्थर की कुल्हाड़ियाँ प्रयुक्त करते थे, जो देश के पहाड़ी क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में पायी गई हैं |
  • पाॅलिशदार पाषाण हथियारों के अतिरिक्त वे सूक्ष्म पाषाण फलकों का भी प्रयोग करते थे |
  • नवपाषाण युग के निवाशियों को सबसे पहले अन्न उगाने का श्रेय जाता है |
  • कृषि कार्य की प्रक्रिया में वे पत्थर की कुदालों और नुकीले पाषाण डंडों से जमीन तोड़ते थे |
  • वे मिट्टी और सरकंडे से निर्मित गोलाकार तथा आयताकार घरों में निवास करते थे |
  • इस युग में लोग घर बनाकर स्थायी रूप से रहना सीख गए थे |
  • बुर्जहोम (कश्मीर) तथा चिरांद (छपरा, सारण) में पाषाणयुगीन लोग पाॅलिशदार पाषाण उपकरणों के अतिरिक्त बड़ी मात्रा में हड्डियों से निर्मित उपकरणों का भी प्रयोग करते थे |
  • बुर्जहोम के लोग ‘धूसर मृद्भांडों’ का प्रयोग करते थे |
  • यहाँ कब्रों में पालतू कुत्ते भी अपने मालिकों के शवों के साथ दफनाये जाते थे | यह प्रथा भारत के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं पायी गयी |
  • इस काल के लोग कृषि के अतिरिक्त पशुपालन भी करते थे | वे गाय, बैल, भेड़, एवं बकरी पालते थे |
  • मेहरगढ़ के नव पाषाणीय लोग गेहूँ, जौं और रुई उपजाते थे, जबकि इलाहाबाद के पास चावल उगाने का प्रमाण मिलता है |
  • नव पाषाण कालीन अनेक स्थायी निवासियों को कृषि कार्य के कारण अनाज रखने तथा पकाने, खाने और पीने के लिए बर्तनों की आवश्यकता महसूस हुई | अतः कुम्भकारी सर्वप्रथम इसी युग में परिलक्षित होती है |
  • यहाँ आरम्भ में हाथ से मृदभांड निर्मित होते थे, बाद में मिट्टी के अधिकांश बर्तन चाक पर बनने लगे |
  • इनमें पालिशयुक्त काला मृदभांड, धूसर मृदभांड एवं मन्द वर्ण मृदभांड सम्मिलित हैं |
  • नवपाषाण युगीन सेल्ट, कुल्हाड़ियाँ, बसूले, छेनी आदि उपकरण उड़िसा (ओड़िशा) और छोटानागपुर (झारखण्ड) के पहाड़ी क्षेत्रों में भी पाये गये हैं |
नवपाषाण युग की विशेषताएँ –
  • उपकरण और हथियार – लोग पॉलिश किए गए पत्थरों से बने उपकरणों के अलावा माइक्रोलिथिक ब्लेड का भी  उपयोग करते थे। सेल्ट का उपयोग ज़मीनी और पॉलिश की गई हाथ की कुल्हाड़ियों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण था। उन्होंने हड्डियों से बने औजारों और हथियारों का भी उपयोग किया – जैसे सुई, स्क्रेपर्स, बोरर, एरोहेड इत्यादि। नए पॉलिश किए गए उपकरणों के उपयोग से मनुष्यों के लिए खेती करना, शिकार करना और अन्य गतिविधियों को बेहतर तरीके से करना आसान हो गया।
  • कृषि – नवपाषाण युग के लोग भूमि पर खेती करते थे और रागी और  कुलथी जैसे फल और मक्का उगाते थे । वे गाय, भेड़ और बकरियों को भी पालते थे।
  • मिट्टी के बर्तन – कृषि के आगमन के साथ, लोगों को अपने अनाज का भंडारण करने के साथ-साथ खाना  पकाने, उत्पाद खाने आदि की भी आवश्यकता होती है, इसीलिए कहा जाता है कि इस चरण में मिट्टी के बर्तन बड़े पैमाने पर सामने आए। इस काल के मिट्टी के बर्तनों को ग्रेवेयर, काले-जले हुए बर्तन और चटाई से प्रभावित बर्तन के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया था। नवपाषाण युग के प्रारंभिक चरण में हस्तनिर्मित मिट्टी के बर्तन बनाए जाते थे लेकिन बाद में बर्तन बनाने के लिए पैरों के पहियों का उपयोग किया जाने लगा।
  • आवास और व्यवस्थित जीवन – नवपाषाण युग के लोग आयताकार या गोलाकार घरों  में रहते थे जो मिट्टी और नरकट से बने होते थे। नवपाषाण युग के लोग नाव बनाना भी जानते थे और कपास, ऊन कातना और कपड़ा बुनना भी जानते थे। नवपाषाण युग के लोगों ने अधिक व्यवस्थित जीवन व्यतीत किया और सभ्यता की शुरुआत का मार्ग प्रशस्त किया।
  • नवपाषाणकालीन लोग पहाड़ी क्षेत्रों से अधिक दूर नहीं रहते थे। वे मुख्य रूप से पहाड़ी नदी घाटियों, चट्टानी आश्रयों और पहाड़ियों की ढलानों पर निवास करते थे, क्योंकि वे पूरी तरह से पत्थर से बने हथियारों और उपकरणों पर निर्भर थे।
महत्वपूर्ण नवपाषाण स्थल –
  • कोल्डिहवा और महागरा (इलाहाबाद के दक्षिण में स्थित) – यह स्थल कच्चे हाथ से बने मिट्टी के बर्तनों के साथ-साथ गोलाकार झोपड़ियों का प्रमाण प्रदान करता है। चावल का भी प्रमाण मिलता है, जो न केवल भारत में बल्कि विश्व में कहीं भी चावल का सबसे पुराना प्रमाण है।
  • मेहरगढ़ (बलूचिस्तान, पाकिस्तान) – सबसे पुराना नवपाषाण स्थल, जहां लोग धूप में सूखी ईंटों से बने घरों में रहते थे और कपास और गेहूं जैसी फसलें उगाते थे ।
  • बुर्जहोम (कश्मीर) – घरेलू कुत्तों को उनके मालिकों के साथ उनकी कब्रों में दफनाया गया था; लोग गड्ढों में रहते थे और पॉलिश किए गए पत्थरों के साथ-साथ हड्डियों से बने औजारों का भी इस्तेमाल करते थे।
  • गुफकराल (कश्मीर) – यह नवपाषाण स्थल घरों में गड्ढे वाले आवास, पत्थर के औजार और कब्रिस्तान के लिए प्रसिद्ध है।
  • चिरांद (बिहार) – नवपाषाण काल ​​के लोग हड्डियों से बने औजारों और हथियारों का इस्तेमाल करते थे।
  • पिकलिहल, ब्रह्मगिरि, मास्की, टक्कलकोटा, हल्लूर (कर्नाटक) – लोग पशुपालक थे। वे भेड़-बकरियाँ पालते थे। राख के टीले मिले हैं।
  • बेलन घाटी (जो विंध्य के उत्तरी विस्तार और नर्मदा घाटी के मध्य भाग पर स्थित है) – यहां तीनों चरण यानी पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण युग क्रम से पाए जाते हैं।

ताम्र पाषाण काल –

  • नवपाषाण युग का अंत होते-होते धातुओं का प्रयोग आरम्भ हो गया था |
  • पत्थर के साथ-साथ पहली धातु के रूप में ताँबे के उपकरणों का भी प्रयोग होने लगा |
  • ताम्र पाषाणकालीन लोग मुख्यतः ग्रामीण समुदाय के थे और देश के ऐसे भागों में फैले थे, जहाँ पहाड़ी जमीन और नदियां थीं | भारत में इस अवस्था से सम्बद्ध स्थल दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में पाये गए हैं |
  • तिथि क्रम की दृष्टि से भारत में ताम्रपाषाणीय बस्तियों की अनेक शृखंलायें हैं | जिनमें से कुछ प्राक् हड़प्पीय हैं, कुछ हड़प्पाकालीन, तो कुछ हड़प्पेत्तर हैं |
  • राजस्थान का कालीबंगा और हरियाणा का बनवाली प्राक् हड़प्पीय ताम्र पाषाणिक अवस्था है, जबकि कोटदीजी और कयथा की संस्कृति हड़प्पाकालीन है |
  • इस युग में लोगों ने पहाड़ियों से कम दूरी पर नदी तटों पर घर बनाये |
ताम्रपाषाण युग की विशेषताएँ –
  • कृषि एवं पशुपालन – पाषाण-ताम्र युग में रहने वाले लोग पशुओं को पालते थे और खाद्यान्न की खेती करते थे। वे गाय, भेड़, बकरी, सुअर और भैंस पालते थे और हिरण का शिकार करते थे। यह स्पष्ट नहीं है कि वे घोड़े से परिचित थे या नहीं। लोग गोमांस तो खाते थे लेकिन बड़े पैमाने पर सूअर का मांस नहीं खाते थे। ताम्रपाषाण काल ​​के लोग गेहूँ और चावल का उत्पादन करते थे, वे बाजरे की भी खेती करते थे। उन्होंने कई दालें भी पैदा कीं जैसे मसूर, काला चना, हरा चना और घास मटर। कपास का उत्पादन दक्कन की काली कपास मिट्टी में किया जाता था और निचले दक्कन में रागी, बाजरा और कई बाजरा की खेती की जाती थी। पूर्वी क्षेत्रों में पत्थर-तांबा चरण के लोग मुख्य रूप से मछली और चावल पर रहते थे, जो अभी भी देश के उस हिस्से में एक लोकप्रिय आहार है।
  • मिट्टी के बर्तन – पत्थर-तांबे के चरण के लोग विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते थे, जिनमें से एक को काले और लाल मिट्टी के बर्तन कहा जाता है और ऐसा लगता है कि यह उस युग में व्यापक रूप से प्रचलित था। गेरू रंग के मिट्टी के बर्तन भी लोकप्रिय थे। कुम्हार के चाक का प्रयोग किया जाता था तथा सफेद रेखीय डिज़ाइन वाली चित्रकारी भी की जाती थी।
  • ग्रामीण बस्तियाँ – पाषाण युग में रहने वाले लोगों की विशेषता ग्रामीण बस्तियाँ थीं  और वे पक्की ईंटों से परिचित नहीं थे। वे मिट्टी की ईंटों से बने फूस के घरों में रहते थे। इस युग में सामाजिक असमानताओं की शुरुआत भी हुई, क्योंकि मुखिया आयताकार घरों में रहते थे जबकि आम लोग गोल झोपड़ियों में रहते थे। उनके गांवों में विभिन्न आकार, गोलाकार या आयताकार आकार के 35 से अधिक घर होते थे। ताम्रपाषाणिक अर्थव्यवस्था को ग्रामीण अर्थव्यवस्था माना जाता है।
  • कला और शिल्प – ताम्रपाषाण काल ​​के लोग विशेषज्ञ ताम्रकार थे। वे तांबे को गलाने की कला जानते थे और पत्थर के अच्छे कारीगर भी थे। वे कताई और बुनाई जानते थे और कपड़ा बनाने की कला से भी अच्छी तरह परिचित थे। हालाँकि, उन्हें लिखने की कला नहीं आती थी।
  • पूजा – ताम्रपाषाणकालीन स्थलों से पृथ्वी देवियों की छोटी मिट्टी की मूर्तियाँ मिली हैं। इस प्रकार यह कहना संभव है  कि वे देवी माँ की पूजा करते थे। मालवा और राजस्थान में, शैलीबद्ध बैल टेराकोटा से पता चलता है कि बैल एक धार्मिक पंथ के रूप में कार्य करता था।
  • शिशु मृत्यु दर – ताम्रपाषाण काल ​​के लोगों में शिशु मृत्यु दर अधिक थी, जैसा कि  पश्चिम महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में बच्चों को दफनाने से स्पष्ट है।  खाद्य उत्पादक अर्थव्यवस्था होने के बावजूद शिशु मृत्यु दर बहुत अधिक थी। हम कह सकते हैं कि ताम्रपाषाणिक सामाजिक और आर्थिक पैटर्न ने दीर्घायु को बढ़ावा नहीं दिया।
  • आभूषण – ताम्रपाषाण काल ​​के लोग आभूषणों और सजावट के शौकीन थे। महिलाएँ सीप और हड्डी के आभूषण पहनती थीं और अपने बालों में बारीक काम वाली कंघियाँ रखती थीं। उन्होंने कारेलियन, स्टीटाइट और क्वार्ट्ज क्रिस्टल जैसे अर्ध-कीमती पत्थरों के मोतियों का निर्माण किया।
महत्वपूर्ण ताम्रपाषाण स्थल –
  • अहार (बनास घाटी, दक्षिण पूर्वी राजस्थान) – इस क्षेत्र के लोग गलाने  और धातुकर्म का काम करते थे, अन्य समकालीन समुदायों को तांबे के औजारों की आपूर्ति करते थे। यहाँ चावल की खेती होती थी।
  • गिलुंड (बनास घाटी, राजस्थान) – यहां स्टोन ब्लेड उद्योग की खोज की गई थी।
  • दैमाबाद (अहमदनगर, महाराष्ट्र)  – गोदावरी घाटी में सबसे बड़ा जोर्वे संस्कृति स्थल । यह  कांस्य गैंडा, हाथी, सवार के साथ दो पहिया रथ और एक भैंस जैसे कांस्य वस्तुओं की प्राप्ति के लिए प्रसिद्ध है।
  • मालवा (मध्य प्रदेश) – मालवा संस्कृति की बस्तियाँ अधिकांशतः  नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर स्थित हैं। यह सबसे समृद्ध ताम्रपाषाण मिट्टी के बर्तनों और स्पिंडल व्होरल का प्रमाण प्रदान करता है।
  • कायथा (मध्यप्रदेश)- कायथा संस्कृति की बस्ती अधिकतर  चम्बल नदी तथा उसकी सहायक नदियों पर स्थित थी। घरों में मिट्टी के प्लास्टर वाले फर्श, मिट्टी के बर्तनों में पूर्व-हड़प्पाकालीन तत्वों के साथ-साथ तेज धार वाली तांबे की वस्तुएं भी मिलीं।
  • चिरांद, सेनुआर, सोनपुर (बिहार), महिषदल (पश्चिम बंगाल) – ये इन राज्यों में प्रमुख ताम्रपाषाण स्थल हैं  ।
  • सोनगांव, इनामगांव और नासिक (महाराष्ट्र) – यहां ओवन और गोलाकार गड्ढे वाले बड़े मिट्टी के घर  पाए गए हैं।
  • नवदाटोली (नर्मदा पर) – यह देश की सबसे बड़ी ताम्रपाषाणकालीन बस्तियों में से एक थी। यह  10 हेक्टेयर में फैला हुआ था और लगभग सभी खाद्यान्नों की खेती की जाती थी।
  • नेवासा (जोर्वे, महाराष्ट्र) और एरण (मध्य प्रदेश) – ये स्थल अपनी गैर-हड़प्पा संस्कृति के लिए जाने जाते हैं।

लौह युग –

लौह युग मानव इतिहास का वह काल है जो कांस्य युग के बाद आता है। आमतौर पर इसकी शुरुआत 1200 ईसा पूर्व के आसपास और अंत लगभग 600 ईसा पूर्व माना जाता है।

प्रारंभिक लौह युग के दौरान, उपकरण और हथियार बनाने के लिए पसंद की धातु के रूप में लोहे ने कांस्य का स्थान ले लिया। यह परिवर्तन लौह अयस्क की उपलब्धता और इसे गलाने और बनाने में आसानी के कारण था।

लोहे के उपयोग के कांसे की तुलना में कई फायदे थे। लोहा कांसे की तुलना में अधिक मजबूत होता है, इसलिए लोहे से बने उपकरण और हथियार अधिक टिकाऊ होते हैं। लोहा भी कांस्य की तुलना में कम महंगा है, जिससे यह व्यापक लोगों के लिए अधिक सुलभ हो गया है।

प्रारंभिक लौह युग के दौरान सबसे महत्वपूर्ण विकासों में से एक लेखन की शुरूआत थी। इससे विचारों के प्रसार और ज्ञान को पहले से कहीं अधिक बड़े पैमाने पर साझा करने की अनुमति मिली।

प्रारंभिक लौह युग महान परिवर्तन और प्रगति का समय था। यह वह काल था जिसमें नई सभ्यताओं का उदय और अन्य सभ्यताओं का पतन देखा गया। यह वह समय था जब लोगों ने अपने आस-पास की दुनिया का पता लगाना और काम करने के नए तरीकों की खोज करना शुरू कर दिया था। यह वह समय था जब मानव जाति ने भविष्य की ओर अपना पहला कदम रखा था।

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