प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत –
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत विभिन्न तथाकथित प्राचीन साहित्य, शिलालेख, शिलापाठियों के अधिष्ठान, नागरीलिपि के पुरातत्वीय शास्त्रीय ग्रंथ और विभिन्न अन्य स्रोतों से प्राप्त किए जा सकते हैं। ये स्रोत निम्नलिखित हैं:
- पुरातात्विक स्रोत
- साहित्यिक स्रोत
- विदेशी यात्रियों के विवरण
पुरातात्विक स्रोत –
प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए पुरातात्विक सामग्रियाँ सर्वाधिक प्रमाणिक है | जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित है –
1. अभिलेख –
- अभिलेख पाषण शिलाओं,स्तंभों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं एवं प्रतिमाओं पर उत्खनित हैं |
- अभिलेखों के अध्ययन को इपीग्राफी कहते है |
- सर्वाधिक प्राचीन पठनीय अभिलेख अशोक के हैं, जो प्राकृत भाषा में हैं |
- पूर्व हैदराबाद राज्य में स्थित मास्की एवं गर्जरा (मध्यप्रदेश) से प्राप्त अभिलेखों में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख है, उसे प्रायः देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी’ राजा कहा गया है |
- अशोक के अधिकांश अभिलेख ‘ब्राह्मी लिपि’ में हैं, जो बायें से दायें लिखी जाति थी |
- पश्चिमोत्तर प्रान्त से प्राप्त उसके अभिलेख ‘खरोष्ठी लिपि’ में हैं जो दायें से बायें लिखी जाती है |
- पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान से प्राप्त अशोक के शिलालेखों में यूनानी एवं आर्मेइक लिपियों का प्रयोग हुआ है|
- अशोक के शिलालेखों को सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप को 1857 ई० में सफलता मिली |
- सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख 2500 ई०पू० के हड़प्पा कालीन हैं जो मुहरों पर भावचित्रात्मक लिपि में अंकित हैं | जिसका प्रमाणिक पाठ अभी तक असंभव बना हुआ है |
- प्रथम श्रेणी के अभिलेखों में अधिकारों और जनता के लिए किए गये सामजिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक राज्यादेशों एवं निर्णयों की सूचना रहती है -जैसे अशोक के अभिलेख |
- द्वितीय श्रेणी के अभिलेख वे अनुष्ठानिक अभिलेख हैं जिन्हें बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव आदि सम्प्रदायों के मतानुयायियों ने स्तंभों, प्रस्तर फलकों मंदिरों एवं प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण कराया |
- तृतीय श्रेणी के वे अभिलेख हैं, जिसमें राजाओं की विजय प्रशस्तियों का आख्यान तो है, लेकिन उनके दोषों का उल्लेख नहीं है |
- गैर-राजकीय अभिलेखों में यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त गरुड़ स्तम्भ लेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिससे द्वितीय शताब्दी ई०पू० के मध्य भारत में भागवत धर्म विकसित होने का प्रमाण मिलता है |
- ‘भारतवर्ष’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख हाथीगुम्फा अभिलेख में मिलता है |
- ‘दुर्भिक्ष’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख सौहगौरा अभिलेख में मिलता है |
- एरण (मध्यप्रदेश) से प्राप्त वराह-भगवान पर हूणराज तोरमण का लेख अंकित है |
- भूमि अनुदान पत्र – ये प्रायः ताँबे की चादरों पर उत्कीर्ण है | इनमें राजाओं और सामंतों द्वारा भिक्षुओं, ब्राह्मणों, मंदिरों, विहारों, जागीरदारों और अधिकारीयों को दिए गए गाँवों, भूमियों और राजस्व सम्बन्धी, दानों का विवरण है | जो प्राकृत, संस्कृत, तमिल एवं तेलुगू भाषाओं में लिखे गए हैं |
विदेशी अभिलेख –
- विदेशों से प्राप्त अभिलेखों में एशिया माइनर में बोगजकोई नामक स्थल से लगभग ई०पू० 1400 का सन्धि पत्र अभिलेख मिला है, जिसमें मित्र, वरुण, इंद्र एवं नासत्य नामक वैदिक देवताओं के नाम उत्कीर्ण हैं |
- मिस्र के तेलूअल-अमनों में मिट्टी की कुछ तख्तियाँ मिली हैं, जिन पर बेबिलोनिया के कुछ शासकों के नाम उत्कीर्ण हैं, जो ईरान व भारत के आर्य शासकों के नामों जैसे हैं |
- पार्सिपोलिल एवं बेहिस्तून अभिलेखों से ज्ञात होता है कि ईरानी सम्राट दारा प्रथम ने सिन्धु नदी घाटी पर अधिकार कर लिया था |
महत्वपूर्ण अभिलेख, शासक एवं उनकी विशेषताएँ –
क्र०सं० | अभिलेख | शासक एवं अभिलेख की विशेषताएँ |
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1. | हाथी गुम्फा अभिलेख | कलिंग राज खारवेल (तिथि रहित अभिलेख) |
2. | जुनागढ़ (गिरनार अभिलेख) | रूद्रदामन (सुदर्शन झील के बारे में जानकारी) |
3. | नासिक अभिलेख | गौतमीपुत्र शातकर्णि (गौतमी बलश्री तथा सातवाहनों की उपलब्धियाँ) |
4. | प्रयाग स्तम्भ अभिलेख | समुद्रगुप्त (इनकी दिग्विजयों की जानकारी) |
5. | ऐहोल अभिलेख | पुलकेशिन द्वितीय (पुलकेशिन द्वितीय के विजयों का वर्णन, विशेष रूप से उसने हर्षवर्धन को कैसे पराजित किया।) |
6. | मन्दसौर अभिलेख | मालवा नरेश यशोवर्मन (रेशम बुनकर की श्रेणियों की जानकारी) |
7. | ग्वालियर अभिलेख | प्रतिहार नरेश भोज (प्रतिहार वंश की वंशावली के बारे में सूचना) |
8. | भितरी एवं जुनागढ़ अभिलेख | स्कंदगुप्त (हूणों पर विजय का विवरण) |
9. | देवपाड़ा अभिलेख | बंगाल का शासक विजयसेन (उसके सीमा विस्तार तथा विजयों का उल्लेख मिलता है।) |
10. | बांसखेड़ा और मधुबन अभिलेख | हर्षवर्धन (हर्षवर्धन की उपलब्धियों पर प्रकाश) |
11. | बालाघाट एवं कार्ले अभिलेख | सातवाहनों की उपलब्धियाँ |
12. | अयोध्या अभिलेख | शुंगों की उपलब्धियाँ |
13. | भरहुत अभिलेख | सुंगनरेण शब्द खुदे होने से शुंगों द्वारा निर्मित |
14. | एरण अभिलेख | भानुगुप्त सती-प्रथा का पहला लिखित साक्ष्य |
2. मुद्रायें –
- 206 ई०पू० से लेकर 300 ई० तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से मुद्राओं की सहायता से ही प्राप्त होता है |
- इसके पूर्व के सिक्कों पर लेख नहीं है और उन पर जो चिन्ह बने हैं उनका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है |
- ये सिक्के ‘आहत सिक्के (Punch Marked) ‘ कहलाते है |
- मुद्राओं का उपयोग दान-दक्षिणा, क्रय-विक्रय, तथा वेतन-मजदूरी के भुगतान में होता था |
- शासकों की अनुमति से व्यापारिक संघों (श्रेणियों) ने भी अपने सिक्के चलाये थे |
- सर्वाधिक मात्रा में मुद्रायें मौर्योत्तर काल की मिलती हैं, जो सीसा, पोटीन, ताँबा, कांसे,चाँदी तथा सोने से बनी हैं |
- कुषाण शासकों द्वारा जारी स्वर्ण सिक्कों में जहाँ सर्वाधिक शुद्धता थी, वहीं गुप्तों ने सबसे अधिक मात्रा मई स्वर्ण सिक्के जारी किये |
- धातु के टुकड़ों पर ठप्पा मारकर बनाई गयी बुद्धकालीन आहत मुद्राओं पर पेड़, मछली, सांड़, हाथी, अर्द्धचन्द्र आदि वस्तुओं की आकृति होती थी |
- मुद्राओं से तत्कालीन आर्थिक दशा तथा सम्बन्धित राजाओं की साम्राज्य सीमा का भी ज्ञान हो जाता है |
- कनिष्क के सिक्कों से उसका बौद्ध धर्म का अनुयायी होना प्रमाणित होता है |
- समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर ‘यूप ‘ बना है जबकि कुछ पर ‘अश्वमेध पराक्रम:’ शब्द उत्कीर्ण है, जिसमें उसे वीणा बजाते हुए भी दिखाया गया है |
- इण्डो-यूनानी तथा इण्डो-सीथियन शासकों के इतिहास के प्रमुख स्रोत सिक्के है |
- सातवाहन राजा शातकर्णी की एक मुद्रा पर जलपोत उत्कीर्ण होने से उसके द्वारा समुद्र विजय का अनुमान लगाया गया है |
- चन्द्रगुप्त द्वितीय की व्याघ्र शैली (चाँदी) की मुद्राओं से उसके द्वारा पश्चिम भारत के शकों पर विजय सूचित होती है |
3. स्मारक एवं भवन –
- उत्तर भारतीय मंदिरों की कला शैली ‘नागर शैली’ कहलाती है |
- दक्षिण भारतीय मंदिरों की कला शैली ‘द्रविड़ शैली’ कहलाती है |
- जबकि दक्षिणापथ के वे मंदिर जिनमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का प्रयोग हुआ है, ‘वेसर शैली’ के मंदिर कहलाते है |
- जावा के ‘बोरोबुदुर मंदिर’ से वहाँ नवीं शताब्दी में महायान बौद्ध धर्म की लोकप्रियता प्रमाणित होती है |
4. मूर्तिकला –
- कुषाण काल, गुप्त काल और गुप्तोत्तर काल में जो मूर्तियाँ निर्मित की गयीं, उनसे जन-साधारण की धार्मिक आस्थाओं और मूर्तिकला का ज्ञान मिलता है |
- कुषाण कालीन मूर्तिकला में जहाँ विदेशी प्रभाव अधिक है, वहीं गुप्तकालीन मूर्तिकला में स्वाभाविकता परिलक्षित होती है जबकि गुप्तोत्तर कला में सांकेतिकता अभिक है |
- भरहुत, बोधगया, साँची, और अमरावती की मूर्तिकला कई जन-सामान्य के जीवन की यथार्थ झांकी मिलती है |
5. चित्रकला –
अजन्ता गुफा में उत्कीर्ण ‘माता और शिशु’ तथा ‘मरणासन्न-राजकुमारी’ जैसे चित्रों की शश्वता सर्वकालिक है, जिससे गुप्तकालीन कलात्मक और तत्कालीन जीवन की झलक मिलती है |
6. अवशेष –
- पाकिस्तान में सोहन नदी घाटी में उत्खनन द्वारा प्राप्त पुरापाषण युग के पत्थर के खुरदरे हथियारों/औजारों से अनुमान लगाया गया है कि भारत में 4 लाख से 2 लाख वर्ष ईसा पूर्व मानव रहता था |
- 10 से 6 हजार वर्ष ई०पू० वह कृषि कार्य, पशुपालन, कपड़ा बुनना, मिट्टी के बर्तन बनाना तथा पत्थर के चिकने औजार बनाना सीख गया था |
- गंगा-यमुना के दोआब में पहले काले और लाल म,मृदभांड और फिर भूरे रंग के मृदभांड प्राप्त हुए |
- मोहनजोदड़ो में 500 से अधिक मुहरें प्राप्त हुई हैं जो हड़प्पा संस्कृति के निवासियों के धार्मिक विश्वासों की ओर इंगित करती हैं |
- बसाढ़ (प्रारंभिक वैशाली) से 274 मिट्टी की मुहरें मिली हैं |
- कौशाम्बी में व्यापक स्तर पर किए गये उत्खनन कार्य में उदयन का राजप्रसाद और घोषितराम नामक एक विहार मिला है |
- अंतरजीखेड़ा आदि की खुदाइयों से ज्ञात होता है कि देश में लोहे का प्रयोग ई०पू० 1000 के लगभग आरम्भ हो गया था |
- रोमिला थापर के अनुसार लोहे का उपयोग 800 ई०पू० आरंभ हुआ |
- दक्षिण भारत में अरिकमेडु नामक स्थल की खुदाई से रोमन सिक्के, दीप का टुकड़ा तथा बर्तन आदि मिले है, जिससे यह पुष्ट हुआ है कि ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में रोम तथा दक्षिण भारत के मध्य घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था |
साहित्यिक स्रोत –
प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत कई हैं। ये स्रोत भारतीय इतिहास, संस्कृति, समाज, धर्म और राजनीति के विविध पहलुओं को समझने में महत्वपूर्ण हैं। नीचे कुछ प्रमुख साहित्यिक स्रोतों का उल्लेख किया गया है –
वैदिक साहित्य –
- इसके अंर्तगत वेद तथा उससे सम्बंधित ग्रंथ, पुराण, महाकाव्य, स्मृति अदि हैं |
- भारत में सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘वेद’ का शाब्दिक अर्थ ज्ञान होता है |
- श्रवण परम्परा में सुरक्षित होने के कारण इसे ‘श्रुति’ भी कहा जाता है |
- कालान्तर में वेदव्यास ने ‘वेदों’ को संकलित कर दिया |
- वेद कुल चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद |
ऋग्वेद –
- भारत की सर्वाधिक प्राचीन रचना ऋग्वेद में ‘ऋक्’ का अर्थ ‘छंदों तथा चरणों से युक्त मंत्र’ होता है |
- ऋग्वेद में मंत्रों एक संकलन (संहिता) है, जिन्हें यज्ञों के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए ‘होतृ या होता’ ऋषियों द्वारा उच्चारित किया जाता है |
- ऋग्वेद की अनेक संहिताओं में से ‘शाकल संहिता’ ही उपलब्ध है |
- ‘संहिता’ का अर्थ संग्रह या संकलन है |
- सम्पूर्ण संहिता में 10 मण्डल तथा 1028 सूक्त हैं |
- ऋग्वेद की पाँच शाखायें हैं –
- शाकल
- वाष्कल
- आश्वलायन
- शांखायन
- मांडूक्य |
- ऋग्वेद के कुल मंत्रों (ऋचाओं) की संख्या लगभग 10600 है |
- ऋग्वेद में इंद्र के लिए 250 तथा अग्नि के लिए 200 ऋचाओं (मंत्रों) की रचना की गई है |
- ऋग्वेद का 2 से 7वाँ मंडल प्रमाणिक और शेष प्रक्षिप्त माना गया है |
- बाद में जोड़े गए दसवें मंडल में पहली बार ‘शूद्रों’ का उल्लेख किया गया है; जिसे ‘पुरुषसूक्त’ के नाम से जाना जाता है |
- देवता ‘सोम’ का उल्लेख नवें मंडल में है |
- लोकप्रिय ‘गायत्री मंत्र’ (सावित्री) का उल्लेख भी ऋग्वेद में ही मिलता है | जिसकी रचना विश्वामित्र ने की थी | इसका उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मंडल में मिलता है |
सामवेद –
- ‘साम’ का अर्थ ‘संगीत’ या ‘गान’ होता है |
- इसमें यज्ञों के अवसर पर गाये जाने वाले मंत्रों का संग्रह है |
- इन मंत्रों को गाने वाला ‘उद्गाता’ कहलाता था |
- सामवेद के डॉ मुख्य भाग हैं – आर्चिक एवं गान |
- सामवेद के प्रथम द्रष्टा वेदव्यास के शिष्य जैमिनी को माना जाता है |
- सामवेद की प्रमुख शाखाएँ हैं- कौथुमीय, जैमिनीय तथा राणायनीय |
- सामवेद में कुल 1549 ऋचाएं हैं |
- जिसमें मात्र 78 ही नई हैं, शेष ऋग्वेद से ली गई हैं |
- सामवेद को भारतीय संगीत का जनक माना जा सकता है |
यजुर्वेद –
- ‘यजुष’ शब्द का अर्थ यज्ञ है | यजुर्वेद संहिता में यज्ञों को संपन्न कराने में सहायक मंत्रों का संग्रह है, जिसका उच्चारण ‘अध्वुर्यु’ नामक पुरोहित द्वारा किया जाता था |
- यह गद्य एवं पद्य दोनों शैलियों में है |
- यजुर्वेद कर्मकाण्ड प्रधान वेद है | इसके दो भाग हैं – कृष्ण यजुर्वेद एवं शुक्ल यजुर्वेद |
- कृष्ण यजुर्वेद – इसमें छन्दबद्ध मंत्र तथा गद्यात्मक वाक्य हैं | इसकी मुख्य शाखाएँ हैं- तैत्तरीय, काठक, मैत्रायणी तथा कपिष्ठल |
- शुक्ल यजुर्वेद – इसमें केवल मंत्र ही हैं | इसकी संहिताओं को ‘वाजसनेय’ भी कहा गया है, क्योंकि वाजसेनी के पुत्र याज्ञवल्क्य इसके प्रथम द्रष्टा थे | इसमें कुल 40 अध्याय हैं | इसकी मुख्य शाखाएँ हैं- माध्यन्दिन तथा काण्व |
अथर्ववेद –
- उपर्युक्त तीनों संहितायें जहाँ परलोक सम्बन्धी विषयों का प्रतिपादन करती हैं, वहीं अथर्ववेद संहिता लौकिक फल प्रदान करने वाली है |
- ‘अथर्वा’ नामक ऋषि इसके प्रथम द्रष्टा थे | अतः उन्ही के नाम पर इसे ‘अथर्ववेद’ कहा गया है |
- इसके दूसरे द्रष्टा आंगरिस ऋषि के नाम पर इसे ‘अथर्वांगिङरसवेद’ भी कहा जाता है |
- अथर्ववेद में उस समय के समाज का चित्र मिलता है, जब आर्यों ने अनार्यों के अनेक धार्मिक विश्वासों को अपना लिया था |
- अथर्ववेद की दो शाखाएँ हैं – पिप्पलाद एवं शौनक |
- इस संहिता में कुल 20 कांड 731 सूक्त तथा 5987 मंत्रों का संग्रह है |
- इसमें लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद से उद्घृत हैं |
- इसकी कुछ ऋचाएं यज्ञ सम्बन्धी तथा ब्रह्मविद्या विषयक होने के कारण इसे ‘ब्रह्मवेद’ भी कहा जाता है |
- लेकिन इसके अधिकांश मंत्र लौकिक जीवन से सम्बन्धित हैं |
- रोग निवारण, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, शाप, वशीकरण, आशीर्वाद, स्तुति, प्रायश्चित, औषधि, अनुसन्धान, विवाह, प्रेम, राजकर्म, मातृभूमि महात्म्य आदि विविध विषयों से सम्बद्ध मंत्र तथा सामान्य मनुष्यों के विचारों, विश्वासों अंधविश्वासों इत्यादि का वर्णन अथर्ववेद से प्राप्त होता है |
- आयुर्वेद के सिद्धांत तथा व्यवहार जगत की अनेक बातें भी इसमें हैं |
ब्राह्मण ग्रंथ –
- ब्राह्मणों ग्रंथों की रचना यज्ञादि विधानों का प्रतिपादन तथा उसकी क्रिया को समझाने के उद्देश्य से की गयी |
- ‘ब्रह्म’ का शब्दार्थ ‘यज्ञ’ है, अतः यज्ञीय विषयों के प्रतिपादक ग्रन्थ ‘ब्रह्मण’ कहे गये |
- ग्रन्थ जहाँ स्तुति प्रधान हैं, जो अधिकांशतः गद्य में लिखे गए हैं | प्रत्येक वेद हेतु पृथक ब्राह्मण ग्रंथ लिखे गये |
आरण्यक ग्रंथ –
- इनकी रचना आरण्यों अर्थात् वनों में पढ़ाये जाने के निमित्त होने के कारण उन्हें ‘आरण्यक’ कहा गया है |
- इनमें ज्ञान एवं चिन्तन को प्रधानता दी गयी है |
- इन दार्शनिक रचनाओं से ही कालान्तर में उपनिषदों का विकास हुआ है |
उपनिषद् –
- उपनिषदों को ‘वेदांत’ भी कहा गया है | इसमें मुख्यतः ज्ञानमार्गी रचनायें हैं |
- इनका मुख्य विषय ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन करना है |
- ‘उपनिषद्’ का शाब्दिक अर्थ है – उप अर्थात् समीप, नि अर्थात् निष्ठापूर्वक और सद् अर्थात् बैठना | जिसका सम्पूर्ण अर्थ यह है कि रहस्य ज्ञान हेतु गुरु के समीप निष्ठापूर्वक बैठना |
- वैसे तो मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों का उल्लेख मिलता है, लेकिन सर्वाधिक प्राचीन और प्रमाणिक 12 उपनिषद् माने जाते हैं, जो इस प्रकार हैं –
- ईश
- केन
- कठ
- प्रश्न
- मुण्डक
- माण्डुक्य
- तैत्तिरीय
- ऐतरेय
- छान्दोग्य
- वृहदारण्य
- शवेताश्वतर
- कौषीतकी
- भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य “सत्यमेव जयते” मुण्डकोपनिषद् से उद्धृत है |
- श्वेतास्वतर उपनिषद् में सर्वप्रथम भक्ति शब्द का उल्लेख मिलता है |
- उपनिषदों के विकास में गार्गी और मैत्रेयी के साथ दीर्घकाल तक ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मनीषियों ने बौद्धिक योगदान दिया |
- उपनिषदों में सर्वत्र सत्य को खोजने की सच्ची उत्कंठा परिलक्षित होती है |
- नचिकेता-यम का संवाद कठोपनिषद् में है |
- इषोपनिषद् में गीता का निष्काम कर्म का उल्लेख मिलता है |
- वृहदारण्यक उपनिषद् में अहम-ब्रह्मास्मि, पुनर्जन्म का सिद्धांत एवं याज्ञवल्क्य गार्गी संवाद का वर्णन है |
वेदांग –
वेदों (संहिता) के अर्थ को सरलता से समझने तथा वैदिक कर्मकांडों के प्रतिपादन में सहायतार्थ ‘वेदांग’ नामक नवीन साहित्य की रचना की गयी, जिसकी संख्या 6 है –
1. शिक्षा (उच्चारण विधि) – वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण एवं शुद्ध स्वर क्रिया की विधियों के ज्ञानार्थ लिखित साहित्य ‘शिक्षा’ कहा जाता है | वैदिक शिक्षा सम्बन्धी प्राचीनतम साहित्य प्रतिशाख्य है |
2. कल्पसूत्र (कर्मकाण्ड) – कल्प नामक वेदांग में छोटे-छोटे वाक्यों में सूत्र (Formula) बनाकर महत्त्वपूर्ण वैदिक विधि-विधानों को प्रस्तुत किया गया | सूत्र ग्रंथों को ही कल्प कहा जाता है | कल्पसूत्र चार प्रकार के हैं |
3. व्याकरण – शब्दों की मीमांसा करने वाला शास्त्र व्याकरण कहा गया, जिसका सम्बन्ध भाषा सम्बन्धी नियमों से है | व्याकरण की सर्वप्रमुख रचना पाणिनी कृत ‘अष्टाध्यायी’ (5वीं शती ई०पू०) है, जिसमें 8 अध्य्याय एवं 400 सूत्र हैं | ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में कात्यायन ने संस्कृत में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों की व्याख्या के लिए ‘वार्तिक’ लिखे | ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में पतंजलि ने पाणिनी के सूत्रों पर ‘महाभाष्य’ लिखा |
4. निरुक्त – क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु’ की व्याख्या हेतु यास्क ने ‘निरुक्त’ की रचना की, जी भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है |
5. छन्द – वैदिक मंत्र प्रायः छंदबद्ध हैं | छंदों के नाम संहिताओं एवं ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं | छंदशास्त्र पर पिङ्गलमुनि का ग्रन्थ ‘छन्द सूत्र’ उपलब्ध है |
6. ज्योतिष – शुभ मुहूर्त में याज्ञिक अनुष्ठान करने के लिए ग्रहों तथा नक्षत्रों का अध्ययन करके सही समय ज्ञात करने की विधि को वेदांग ज्योतिष की उत्पत्ति की सर्व प्राचीन रचना मगधमुनि कृत ‘वेदांग ज्योतिष’ है | ज्योतिष के सबसे प्राचीनतम आचार्य मगधमुनि हैं | ज्योतिष में कुल 44 श्लोक हैं | वेदांग ज्योतिष के ऋग्वेद एवं यजुर्वेद से सम्बन्धित डॉ ग्रंथ हैं – आचार्य ज्योतिष एवं याजुष ज्योतिष | वेदों की शरीर रचना की दृष्टि में वेद का पाद, हाथ, आँखे, कान नाक तथा मुख क्रमशः छन्द,कल्प, ज्योतिष, निरुक्त, शिक्षा तथा व्याकरण कहलाते हैं |
पुराण –
- ‘पुराण’ का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन आख्यान’ होता है |
- पुराणों में मत्स्य पुराण सबसे प्राचीन है |
- पांचवीं से चौथी शताब्दी ई०पू० में पुराण ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे |
- वर्तमान उपलब्ध पुराण गुप्तकाल के आसपास के हैं |
- मुख्य पुराणों की संख्या 18 है, जो इस प[प्रकार हैं – मत्स्य, मार्कण्डेय, भविष्य, भागवत, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त्त, ब्रह्म, वामन, वराह, विष्णु, वायु, अग्नि, नारद, पद्म,लिंग, गरुण, कूर्म, एवं स्कन्द |
- ये सभी महापुराण कहलाते हैं |
- पुराणों के अंर्तगत हम प्राचीन शासकों की वंशावलियाँ पाते हैं |
- विष्णु पुराण का सम्बन्ध मौर्य वंश से, मत्स्य पुराण का सातवाहन से तथा वायु पुराण का गुप्तवंश से है |
- इनके संकलनकर्ता महर्षि लोमहर्ष अथवा उनके सुपुत्रउग्रश्रवा माने जाते हैं |
- पुराण सरल एवं व्यापारिक भाषा में लिखे गये जनता के ग्रन्थ हैं |
- जिनमें प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, पशु-पक्षी, वनस्पति विज्ञान, आयुर्वेद इत्यादि का वृहद वर्णन मिलता है |
स्मृतियाँ या धर्मशास्त्र –
- धर्मसूत्र साहित्य के कालान्तर में स्मृति ग्रन्थों नका विकास होने के कारण इन्हें ‘धर्मशास्त्र’ की संज्ञा भी दी जाती है|
- ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी से लेकर पूर्व मध्यकाल तक विभिन्न स्मृति ग्रन्थों की रचना की गयी |
- कुछ प्रमुख स्मृतिग्रन्थों का नाम निम्नवत है – मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति, कात्यायन स्मृति, वृहस्पति स्मृति, पाराशर स्मृति, गौतम स्मृति, वशिष्ठ स्मृति, नारद स्मृति, देवल स्मृति आदि |
- इनमें मनुस्मृति (शुंगकाल ई०पू० द्वितीय शती) सर्वाधिक प्राचीन तथा प्रमाणिक है, शेष गुप्तकालीन हैं |
- मनुस्मृति के प्रसिद्ध भाष्यकार मेघातिथि, गोविन्दराज, तथा कुल्लूक भट्ट हैं और याज्ञवल्क्य स्मृति के टीकाकार विश्वरूप, विज्ञानेश्वर (मिताक्षरा), अपरार्क इत्यादि हैं |
- स्मृतियों में विभिन्न वर्गों, राजाओं और पदाधिकारियों के नियम भी दिए गए हैं |
बौद्ध साहित्य –
गौतम बुद्ध की मृत्यु के बाद उनकी शिक्षाओं नको विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित कर तीन पिटकों (पिटारियों) में विभाजित किया गया – (1) विनय पिटक, (2) सूत्त पिटक और (3) अभिधम्म पिटक, जिन्हें ‘त्रिपिटक’ की संज्ञा दी गयी | त्रिपिटक पालि भाषा में रचित हैं |
1. विनय पिटक –
इसमें संघ सम्बन्धी नियमों, दैनिक आचार-विचार व विधि-निषेधों का संग्रह है, जिसके निम्न भाग हैं –
- पातिमोक्ख (प्रतिमोक्ष) – इसमें अनुशासन सम्बन्धी विधानों तथा उनके उल्लंधन पर किए जाने वाले प्रायश्चितों का संकलन है |
- सुत्ताविभंङ्ग – इसमें पातिमोक्ख के नियमों पर भाष्यप्रस्तुत किए गए हैं | इसके दो भाग हैं – महाविभंङ्ग तथा भिक्खुनी विभंङ्ग | प्रथम में बौद्ध भिक्षुओं तथा द्वितीय में भिक्षुणियों हेतु विधि एवं निषेध वर्णित है |
- खन्ध्रक – इसमें संघीय जीवन सम्बन्धी विधि निषेधों का विस्तृत वर्णन है, जिसके महावग्ग और चुल्लवग्ग नामक डॉ भाग हैं |
- परिवार – इसमें विनयपिटक के दूसरे भागों का सारांश प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत किया गया है |
2. सुत्तपिटक –
- इसमें बौद्धधर्म के सिद्धांत तथा उपदेशों का संग्रह हैं इसमें पांच निकाय आते हैं – दीघ्घ निकाय, मञ्झिम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय तथा खुद्दक निकाय |
- प्रथम चार में बुद्ध के उपदेश वार्तालाप रूप में दिये गए हैं और पांचवां पद्यात्मक है |
- खुद्दक निकाय में कई ग्रन्थ आते हैं, जैसे -खुद्दक पाठ, धम्मपद, उदान, सुत्तनिपात, विमान वत्थु, पंतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा एवं जातक आदि |
- जातकों में बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियाँ संग्रहीत हैं |
3. अभिधम्म पिटक –
- यह प्रश्नोत्तर कर्म में है और इसमें दार्शनिक सिद्धांतों का संग्रह है |
- इसमें सात ग्रंथ सम्मिलित हैं – धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गल पंचति, कथावत्थु यमक तथा पट्ठानं |
- अभिधम्म पिटक सबसे बाद की रचना है, जो कुषाण काल में हुई चौथी बौद्ध संगीति में संकलित की गयी |
- त्रिपिटकों के अतिरिक्त पालि भाषा में लिखित अन्य बौद्ध ग्रन्थों में नागसेन कृत ‘मिलिन्दपन्हो’ तथा सिंहली अनुश्रुतियाँ- दीपवंश एवं महावंश उल्लेखनीय हैं |
संस्कृत बौद्ध ग्रन्थ –
- संस्कृत बौद्ध लेखकों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नाम कवि एवं नाटककार अश्वघोष का है |
- सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय के चिंतक अश्वघोष कनिष्क (प्रथम शती ई०) की राजसभा में थे |
- उनकी तीन प्रसिद्ध रचनायें हैं- बुद्धचरित, सौन्दरानन्द तथा सारिपुत्र प्रकरण |
- इसमें प्रथम दो रचनायें महाकाव्य तथा अंतिम रचना नाटक ग्रंथ है |
- संस्कृत में ही लिखित महावस्तु तथा ललितविस्तार में महात्मा बुद्ध के जीवन तथा दिव्यावदान में परिवर्ती मौर्य शासकों एवं शुंग राजा पुष्यमित्र शुंग का उल्लेख मिलता है |
जैन साहित्य –
- जैन साहित्य को ‘आगम’ कहा जाता है, जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4मूल सूत्र, अनुप्रयोग सूत्र तथा नन्दि सूत्र की गणना की जाती है |
- इनकी रचना महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद विभिन्न संगीतियों में ई०पू० चौथी शती से छठी शती ई० के मध्य हुई|
1. अंग (12) –
- आचारांग सूत्त
- सूय कंडग सूत्त (सूत्र कृतांग)
- थावंग (स्थानांग)
- समवायंग
- भगवती सूत्त
- नवध्म्मकहा सूत्त (ज्ञाताधर्मकथा)
- उवासगदसाओ सूत्त (उपासकदसा)
- अंत गडदसाओ
- अणुत्तरोववाइय दसाओ
- पठहावागरणाइ (प्रश्न व्याकरण)
- विवाग सयम्
- दिट्टिवाय (दृष्टिवाद)
2. उपांग (12) –
- औपपातिक
- राजप्रश्नीय
- जीवाभिगम
- प्रजापना
- जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति
- चन्द्र प्रज्ञप्ति
- सूर्य प्रवरित
- निरयावलि
- कल्पावसंतिका
- पुष्पिका
- पुष्प चूलिका
- वृष्णि दशा
3. प्रकीर्ण (10) –
- चतुःशरण
- आतुर प्रत्याख्यान
- भक्तिपरिज्ञा
- संस्तार
- तंदुल वैतालिक
- चंद्र वैध्यक
- गणिविद्या
- देवेन्द्रस्तव
- वीरस्तव
- महाप्रत्याख्यान
4. छेद सूत्र (6) –
- निशीथ
- महानिशीथ
- व्यहार
- आचार दशा
- कल्प
- पंचकल्प
5. मूलसूत्र –
इसमें जैन धर्म के उपदेश, भिक्षुओं के कर्तव्य, विहार जीवन पथ नियम आदि का वर्णन है | इनकी संख्या चार है –
- उत्तराध्ययन
- षडावशयक
- दशवैकालिक
- पिण्डनिर्युक्त (पाक्षिक सूत्र)
6. नन्दि सूत्र एवं अनुप्रयोग द्वार –
- ये जैनियों के स्वतंत्र ग्रन्थ तथा विश्वकोश हैं |
- उपर्युक्त सभी ग्रंथ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के जैनों के लिए हैं |
- दिगम्बर सम्प्रदाय के मतावलम्बी इन्हें प्रमाणिक नहीं मानते हैं |
- श्वेताम्बर अनुश्रुति के अनुसार महावीर की मृत्यु के 140 वर्ष बाद वलभी में देवधि क्षमा श्रमण की अध्यक्षता में एक सभा हुई जिसमें धार्मिक साहित्य को संकलित किया गया |
- इसके बाद हुई पाटलिपुत्र सभा में भी कुछ ग्रंथों का संकलन हुआ |
- दिगम्बर मतावलम्बी भद्रबाहु की शिक्षाओं को ही प्रमाणिक मानते हैं |
विदेशी यात्रियों के विवरण –
भारत आने वाले विदेशी यात्रियोंएवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास को जानने में सहायता मिलती है, जिनमें अनेक यूनानी, रोमन,अरबी और चीनी यात्री सम्मिलित हैं | भारतीय स्रोत से सिकन्दर के आक्रमण (325 ई०पू०) की कोई जानकारी नही मिलती, इसके लिए हमें यूनानी स्रोतों पर ही आश्रित रहना पड़ता है | सिकन्दर महान के आक्रमण के समय एक समकालीन भारतीय राजा ‘सैण्ड्रोकोट्टस’ का नाम्मोलेख यूनानी लेखकों स्ट्रैबो एवं जस्टिन ने किया है, विलियम जोंस ने जिसकी पहचान चंद्रगुप्त मौर्य के रूप में की है | एरियन तथा प्लूटार्क ने उसे ‘एण्ड्रोकोट्टस’ तथा फिलार्कस ने ‘सैण्ड्रोकोट्टस’ के नाम से उल्लिखित किया है | स्ट्रैबो, डायोरस, प्लिनी और एरियन नामक यूनानी विद्वान ‘क्लासिक्ल’ लेखक के रूप में जाने जाते हैं |
यूनानी-रोमन लेखक –
- ट्रेसियस – ईरानी राजवैद्य, जिसने मात्र ईरानी अधिकारियों से ही भारत विषयक ज्ञान प्राप्त करके अपना विवरण लिखा था |
- हेरोडोटस – ‘इतिहास का पिता’ कहलाने वाले हेरोडोटस ने अपने ग्रंथ ‘हिस्टोरिका’ में पांचवीं शताब्दी ई०पू० के भारत-फारस सम्बन्ध का वर्णन अनुश्रुतियों के आधार पर किया है |
- नियार्कस, आनेसिक्रिटस एवं आरिस्टोबुलस – सिकन्दर के साथ भारत आने वाले इन लेखकों के विवरण अधिक प्रमाणिक हैं, जिनका उद्देश्य अपने देशवाशियों को भारतीयों के विषय में बताना था |
- मेगस्थनीज – सेल्युकस ‘निकेटर’ के राजदूत के रूप में चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में 14 वर्षों तक रहा | उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में मौर्य युगीन समाज व् संस्कृति के बारे में लिखा, लेकिन ‘इण्डिका’ अब उपलब्ध नही है, इसके सम्बन्ध में जानकारी उत्तर कालीन यूनानी लेखकों के उद्धारण के रूप में प्राप्त होती है |
- डाइमेकस – सीरियाई राजा आन्तियोकस के राजदूत के रूप में बिन्दुसार के दरबार में रहा था |
- डायोनिसियस – मिस्र नरेश टालेमी फिलाडेल्फस के राजदूत के रूप में अशोक के दरबार में आया था |
- टालेमी की ज्योग्राफी और पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी – ज्योग्राफी लगभग 150 ई० के आसपास लिखी गयी थी, जिसमें प्राचीन भारतीय भूगोल और वाणिज्य का वर्णन है | पेरीप्लस का अज्ञात लेखक 80-115 ई० के मध्य हिन्द महासागर की यात्रा पर आया था | जिसने बन्दरगाहों और व्यापारिक वस्तुओं का विवरण दिया है |
- प्लिनी – पुस्तक नेचुरल हिस्टोरिका: यह लैटिन भाषा में है, जिसमें भारत एवं इटली के मध्य होने वाले व्यापार तथा भारतीय पशुओं, वनस्पतियों खनिजों का विवरण है | प्लिनी ने रोम से भारत आने वाले धन के लिए दुःख प्रकट किया है |
चीनी लेखक –
भारत आने वाले अधिकांश चीनी यात्री बौद्ध तीर्थस्थानों तथा बौद्ध धर्म के विषय में ज्ञान प्राप्त करने आये थे | इनमें से प्रमुख हैं –
- फाह्यान – यह चीनी यात्री गुप्त नरेस चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में भारत आया था | 399 से 414 ई० तक उसने भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया | उसने गुप्कालीन भारत की समाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति का विवरण दिया है |
- ह्वेनसांग – ह्वेनसांग कन्नौज के शासक हर्ष वर्धन (606 से 647 ई०) के शासन काल में भारत आया | 16 वर्ष तक विभिन्न स्थानों की यात्रा की, 6 वर्ष तक ‘नालंदा विश्वविद्यालय’ में रहकर शिक्षा प्राप्त की | उसका यात्रा विवरण ‘सी-यू-की’ नाम से प्रसिद्ध है, जो हर्षकालीन भारत की स्थिति जानने का महत्वपूर्ण स्रोत है |
- ह्वी ली – इसके द्वारा लिखित ह्वेनसांग की जीवनी से भी हर्षकालीन इतिहास की बातें ज्ञात होती हैं |
- इत्सिंग – सातवीं शताब्दी के अन्त में भारत आने वाले इस चीनी यात्री ने नालंदा तथा विक्रमशिला महाविद्यालय तथा अपने समय की भारत की स्थिति का वर्णन किया है |
- मा त्वान लिन – हर्ष के पूर्वी अभियान का विवरण |
- चाऊ-जू-कुआ – चोल इतिहास का विवरण |
अरबी लेखक –
- सुलेमान – नवीं शती ई० में भारत आने वाले अरबी यात्री सुलेमान ने प्रतिहार और पाल राजाओं के विषय में लिखा है | उसने पाल साम्राज्य को ‘रूहमा’ (धर्म या धर्मपाल) कहा है |
- अलमसूदी – 915-916 ई० में बगदाद में आने वाले अलमसूदी ने प्रतिहार राजाओं का वर्णन किया है |
उपर्युक्त लेखकों के अतिरिक्त तिब्बती बौद्ध लेखक तारानाथ के ग्रंथों- ‘कंग्यूर’ और ‘तंग्यूर’ से भी भारतीय इतिहास पर प्रकास पड़ता है | वेनिस (इटली) का प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो तेरहवीं शताब्दी के अंत में पाण्ड्य राज की यात्रा पर आया था, इसलिए उसका यात्रा विवरण मूलतः दक्षिण भारत से ही सम्बन्धित है |