
पुरापाषण काल (2500,000 ईसा पूर्व – 10,000 ईसा पूर्व) –
प्रागैतिहासिक काल की संस्कृतियों के बारे में जानकारी सर्वप्रथम पाषण युग से प्राप्त होती है | लुॅब्बाक ने सर्वप्रथम पाषण युग को विभिन्न कालों में विभाजित किया, उनके अनुसार प्रथम पुरापाषण काल (Paleolithic Period) तथा द्वितीय नवपाषण (Neolithic Age) था | इन्होने यह विभाजन पाषणयुगीन लोगों द्वारा प्रयोग किये गए उपकरणों और तकनीकी विशेषताओं पर आधारित था | 1970 में लारटेट ने पुनः पाषण काल को तीन भागों में विभाजित किया 1. पुरापाषणकाल, 2. मध्यपाषणकाल और 3. नवपाषणकाल | इन्होने यह विभाजन उपकरणों की विधि में परिवर्तन तथा उस काल की जलवायु में परिवर्तन के आधार पर किया था |
प्रागैतिहासिक मानव का इतिहास जानने का स्रोत मात्र उस काल के मानव द्वारा बनाए गए पाषण के औजार हैं, जो मानव ने स्वयं अपनी आवश्यकतानुसार बनाए थे | लिखित साक्ष्यों के आभाव में मात्र यही स्रोत हैं जो उस काल के मानव के तकनीकी विकास को दर्शाता है | मानव ने अपनी आवश्यकता के अनुरूप औजार बनाने की प्रक्रिया संभवतः लकड़ी, तथा अन्य कार्बनयुक्त पदार्थों से शुरू की होगी जो आज उपलब्ध नहीं हैं | पान्तु जब मानव ने पाषण के उपकरण बनाने शुरू किए तब से हमें पुरातात्विक प्रमाण मिलने लगे | ये उपकरण मानव द्वारा अपनी जरूरतों के अनुसार तथा उनके कार्य के अनुरूप निर्मित किए गए थे |
पुरापाषण काल को पुनः निम्न तीन कालों में विभाजित किया गया है –
- निम्न पुरापाषण काल (Lower Paleolithic Period)
- मध्य पुरापाषण काल (Middle Paleolithic Period)
- उत्तर पुरापाषण काल (Upper Paleolithic Period)
1. निम्न पुरापाषण काल (Lower Paleolithic Period) –
मानव द्वारा प्राचीनतम उपकरण हमें इस काल में प्राप्त होते हैं, जब मानव ने पत्थरों का फलकीकरण करके अपनी आवश्यकतानुसार औजारों का निर्माण किया | इस काल प्राचीनतम औजार वे हैं जिनमें पैबुॅल (Pebble) के एकतरफ फलक उतार कर चापर औजार बनाए गए | ये प्राचीन उपकरण सर्वप्रथम मोरोक्को तथा मध्यआफ्रीका से प्राप्त हुए | इन उपकरणों के साथ ही हमें विलेफ्रैंचियन (Villefranchian) प्रकार के पशुओं की हड्डियाँ भी मिलती हैं, जो अभिनूतनकाल (Pleistocene) से पहले काल के जानवर थे जो अभी भी बचे रह गए थे | इनमें बड़े-बड़े दातों वाले हाथी, बड़े-बड़े नुकीले दातों वाले चीते, लकड़बग्घा इत्यादि शामिल थे | इस काल में मानव भोजन के लिए शिकार करता था | भारतीय उपमहाद्वीप में सिन्ध तथा केरल को छोड़कर सभी स्थलों से निम्न पुरापाषण कालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं जो कि नदी के किनारों, कंदराओं, तथा खुले स्थलों से भी प्राप्त हुए हैं | पत्थर के इन उपकरणों के साथ पशु तथा वनस्पति के अवशेष भी कई स्थलों से प्राप्त हुए हैं |
भारत में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग उपकरण बनाने की विधियों का आधार पर इस काल के उपकरणों को दो भागों में विभाजित किया गया है –
- चापर चापिंग उपकरण (Chopper Chopping Tools) – इस प्रकार के उपकरण मुख्यतः पाकिस्तान की सोहन घाटी से प्राप्त हुए हैं |
- हस्त कुठार (Hanrdaxe) – इस प्रकार के उपकरण मुख्यतः मद्रास के निकट प्राप्त हुए हैं |
औजार बनाने की तकनीक –
- ब्लॉक-ऑन-ब्लॉक या एनविल तकनीक ( Block-on-Block or Anvil Technique ) – इस विधि द्वारा जिस पत्थर द्वारा औजार का निर्माण करना होता था उसे किसी चट्टान पर प्रहार करके उसका फलक उतार कर औजार बनाये जाते थे | इस विधि द्वारा बड़े अकार के तथा अनघड़ का ही निर्माण संभव था |
- स्टोन हैमर तकनीक या ब्लॉक-ऑन-ब्लॉक तकनीक ( Stone Hammer Technique or Block-on-Block Technique ) – यह पूर्वपाषण काल में मानव द्वारा औजार बनाने के लिए सर्वाधिक प्रयोग में लाई जाने वाली विधि थी | इसमें जिस पत्थर का औजार बनाना होता था उसे एक स्थान पर रखकर दूसरे हाथ से एक अन्य पत्थर द्वारा चोट करके फलक उतार कर औजार बनाया जाता था | इस विधि द्वारा मानव द्विधारी (Bi-ficial) औजार भी बना सकता था |
- स्टेप फ़्लैकिंग तकनीक (Step Flacking Technique) – इस तकनीक द्वारा जिस पत्थर का औजार बनाना होता था उस पर दूसरा पत्थर मारते समय इस प्रकार का औजार बनाना था, उसे ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम मध्य भाग में चोट कर उस पत्थर पर एक निशान लगा लिया जाता था | बाद में उसी की मदद से पट्टियों (Steps) में फलक उतार कर औजार बनाए जाते थे | इस विधि द्वारा हस्त कुल्हाडियों का निर्माण किया जा सकता था |
- बेलनाकार हथौड़ा तकनीक (Cylinderical Hammer Technique) – इस विधि द्वारा पत्थर का औजार बनाने के लिए एक सिलैंडरनुमा हथौड़े का प्रयोग किया जाता था जिससे कि छोटे-छोटे फलक भी उतारे जा सकते थे | इनसे सुन्दर एशुलियन प्रकार की हस्त कुल्हाड़ियाँ बनाई जाति थी |
औजार –
इस काल का मानव कोर निर्मित औजारों का प्रयोग करता था यानि जिस पत्थर का औजार बनता था उसके फलक उतार कर फैंक दिए जाते थे तथा बीच के हिस्से का ही औजार बनता था | इस काल के बने उपकरणों में चापर/चौपिंग औजार, हस्त कुल्हाड़ियाँ, विदारणी, खुर्चनियाँ इत्यादि प्रमुख थे | इनसे मानव काटने, खाल साफ़ करने इत्यादि कार्यों के लिए तथा मिट्टी से जड़ें और कन्दमूल आदि निकलने के काम में लाता था |
विस्तार क्षेत्र –
आधुनिक सर्वेक्षण एवं उत्खननों के कारण हमें निम्न पुरापाषण काल के बहुत से स्थलों का ज्ञान हो चुका है | अब यह साफ गो गया है कि यह संस्कृति पूरे भारत में फैली हुई थी | इसका कहीं अधिक तथा कहीं कम विस्तार पारिस्थितिक कारकों (Ecological Factors) के कारण है जैसे गंगा की घाटी में इस संस्कृति का न होना उपकरण बनाने के लिए उपयुक्त पत्थरों का न मिलना हो सकता है या शायद गंगा तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी के नीचे प्राचीन स्थल दब गए होंगे |
भारत में इस संस्कृति के प्रमाण उत्तर पश्चिमी भारत (आज के पाकिस्तान की सोहन घाटी) में जम्मू-कश्मीर लिद्दर नदी हिमाचल की ब्यास बाण गंगा घाटी, पंजाब में होशियारपुर क्षेत्र, हरियाणा में कालका पिंजोर क्षेत्र, हिमाचल तथा हरियाणा में काला अम्ब नाहन क्षेत्र में मारकंडा नदी पर, दिल्ली तथा दक्षिण हरियाणा के अरावली क्षेत्र में अधिकतर चापर-चांपिग उपकरण प्राप्त होते हैं | दक्षिण भारत तथा मध्य भारत में अधिकतर हस्त कुठार (Hand axes) संस्कृति का विस्तार है इन में अधिकतर स्थल तमिलनाडु में अंतरिम पक्कम, मन्जनकरणई, वादमदुराई गुडियम इत्यादि हैं | कर्नाटक में अनगवाड़ी, हुन्स्गी, गुलबर्ग में इसामपुर तथा येदियापुर इत्यादि महत्वपूर्ण हैं इसके अतिरिक्त कृष्णा तथा इसकी सहायक नदियों पर भी बहुत से स्थलों से इन संस्कृति के प्रमाण मिले हैं | आन्ध्र प्रदेश में कर्नूल, गिडलूर, करेमपुडी तथा नागार्जुन कोण्डा से हस्त कुठार संस्कृति के प्रमाण मिले हैं | इसके अतिरिक्त नालगोंडा तथा गुन्तुर जिले से भी इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए हैं |
महाराष्ट्र गोदावरी – प्रवर नदी की घाटी में न केवल हस्थ कुठार तथा अन्य उपकरण प्राप्त हुए हैं अपितु जंगली भैंसा, जंगली हाथी, गैंडा इत्यादि जानवरों के अवशेष भी प्राप्त हुए है। नेवासा तथा संगम से भी इसी तरह के प्रमाण मिले हैं। धुलिया, जलगाँव बुल्सर जिलों में इसी तरह के प्रमाण मिले। अहमद नगर जिले का चिरकी नेवासा, नासिक जिले का गंगापुर स्थल, शोलापुर जिले का पन्धारपुर काफी महत्वपूर्ण है । कोंकण तथा मुम्बई क्षेत्र में वोरली, कान्डीवली, बोरीवली, मलाद इत्यादि महत्वपूर्ण स्थल हैं इसके अतिरिक्त गोवा में भी इस संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। मध्य प्रदेश में सर्वप्रथम डी टेरा तथा पैटरसन ने नर्मदा घाटी पर उत्तर-पश्चिमी भारत की चापर चापिंग संस्कृति तथा दक्षिण भारत की हस्थ कुठार संस्कृति के मेल की संभावना खोजने के लिए कार्य किया। यहां से न केवल उपकरण बल्कि उस काल के जानवरों तथा वक्षों के अवशेष भी पाए गए। यहां पर आस्ट्रेलियाई संस्कृति तथा सोहन संस्कृति के इक्ट्ठे मिलने के प्रमाण मिले। इस संस्कृति के महत्वपूर्ण स्थल होशंगाबाद, नरसिंगपुर, महादेव – पिपरिया है। जहां से उपकरण स्तर स्तरविन्यास के संदर्भ में भी प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त दुरकाडी नाले (पश्चिमी नीमार जिले) से भी महत्वपूर्ण अवशेष प्राप्त हुए । उपकरणों के अतिरिक्त इस क्षेत्र से जंगली हाथी, भैंसे, हिप्पोपोटमस, जंगली घडियाल, सूअर, इत्यादि के प्रमाण भी मिले। इसके अतिरिक्त चम्बल घाटी, बेतवा, सोनार, सोन नदियों की घाटियों में भी इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
मानव –
विश्व में विभिन्न स्थलों से निम्न पुरापाषण काल के मानव के प्रमाण प्राप्त हुए हैं | पंरतु हाल ही तक भारत में ये प्रमाण उपलब्ध नहीं थे, 1982 में मध्य प्रदेश में नर्मदा घाटी में हथनोरा नामक स्थल से होमोइरैक्ट्स मानव की खोपड़ी तथा 1997 में इसी प्रकार के मानव के कंधे की हड्डियाँ प्राप्त हुई | मात्र यही प्रमाण हमें इस काल के मानव के भारत को प्राप्त है |
जीवन –
इस काल के मानव का निवास स्थल नदी घाटियाँ शिलाश्रय तथा गुफा इत्यादि थे | स्टुअर्ट पिगंट के अनुसार इस युग के मानव के जीवन का आधार शिकार करना तथा भोजन एकत्रित कारना था | इनका जीवन अस्थायी और खतरों से भरा हुआ था | इस काल का मानव उपकरणों की सहायता से जंगली जानवरों का शिकार करता था | भोजन के तौर पर उनका मांस कच्चा था कई स्थानों पर भोजन पकाने के भी प्रमाण मिले हैं | इसके अतिरिक्त कन्दमूल, जंगली फल तथा खाने वालद जड़े भी उसके भोजन में शामिल था | इस काल का मानव विलेचैम्यियन प्रकार के पशुओं के अलावा हाथी, गैंडा, घोड़ा, पानी की भैंस, बारहसिंगे, कछुए, मछली, पक्षी, मेंढ़क, कई प्रकार के मगरमच्छ इत्यादि का शिकार करता था |
2. मध्य पुरापाषण काल (Middle Paleolithic Period) –
मध्य पुरापाषण काल में नियडरस्थल मानव के अवशेष मिलने शुरू हुए और इन्होने अपनी संस्कृति का विकास किया | पूर्व पुरापाषण काल के औजार कोर निर्मित थे, जिसमें फलकों का प्रयोग औजारों में नहीं किया गया था | लेकिन इस काल के मियंडरस्थल मानव ने उपकरणों को फलक पर बनाना प्रारंभ किया, जो अपेक्षाकृत आकार में छोटे थे और अच्छे बने हुए थे |इनके अलावा फलक निर्मित औजारों में हस्तकुठार, बेधक, कुल्हाड़ियाँ और विदारणी प्रमुख थे |
औजार बनाने की तकनीक –
इस काल के फलक उपकरण दो तकनीकों द्वारा बनाए जाते थे | प्रथम विधि में सर्वप्रथम पत्थर से फलक उतारी जाती थी, फिर उस फलक को दोबारा तीखा कर आवश्यकतानुसार आकार का उपकरण बना लिया जाता था | दूसरी विधि को लवलॅवा विधि (Lavelloisian technique) का नाम दिया गया | इस विधि द्वारा निर्मित औजार सर्वप्रथम फ्रांस के तावलवा नामक स्थान से प्राप्त हुए इस लिए इसे लवलॅवा विधि का नाम दिया गया | इस विधि द्वारा पत्थर से जो फलक अलग किया गया उसे तीखे उपकरण से जिस प्रकार का औजार बनाना होता था उसकी रूपरेखा दी जाती थी | दूसरे चरण में उसके भीतरी हिस्से को ऊपर से छील दिया जाता था इसे Tortoise Ore कहा जाता था | तृतीय चरण में एक छोटा प्लेटफार्म तैयार किया जाता था | जिस पर रखकर उस पर हथौड़े से आघात किया जाता था | इस प्रकार मनचाहे आकार का उपकरण बनाया जा सकता था |
विस्तार –
भारत में मध्य पुरापाषण के स्तर विन्यास पर आधारित प्रमाण सर्वप्रथम नेवासा नामक स्थल से प्राप्त हुए | यद्यपि इससे पहले भी नर्मदा घाटी में नरसिंहपुर, तथा होसान्गाबाद से प्राप्त हुए परन्तु इस समय इसे काली मिट्टी की संस्कृति या प्राक् नवपाषणीय संस्कृति की संज्ञा दी गई | परन्तु पुरापाषण काल के एक अलग संस्कृति के रूप में प्रमाण नेवासा से प्राप्त हुए, जो कि तिथिक्रम, स्तरविन्यास तथा उपकरण प्रकार तथा तकनीक के आधार पर मध्यपुरापाषण संस्कृति के माने गए तथा तभी से इसे अलग संस्कृति के रूप में लिया जाता है | पूरे महाराष्ट्र में यह संस्कृति पनप रही थी परन्तु प्रवर नदी पर स्थित नेवासा तथा गोदावरी पर स्थित बेल पन्धारी, सुरेगांव, कालेगांव नान्दूर तथा मध्यमेश्वर महत्वपूर्ण है | ताप्ती नदी से भी बहुत से फलक उपकरण चर्ट (Chert), जैसपर (Jaspar) तथा बसाल्ट (Basalt) पर बने प्राप्त हुए हैं |
कर्नाटक के तटीय क्षेत्र के दो महत्वपूर्ण स्थलों तमिनहल तथा अलमट्टी से काफी मात्रा में उपकरण प्राप्त होते हैं। गुलबर्ग के शोरापुर दोआब तथा कोवल्ली तथा अनगवाडी महत्वपूर्ण है। हरगुन्डगी से तो जंगली हाथी तथा भैंसे के प्रमाण भी प्राप्त हुए है | आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल से मध्य पुरापाषाण काल के उपकरण प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त नालगोंडा तथा कृष्णा नदी पर स्थित रामतीर्थअपय तथा रयगीरवगु से भी उपकरण प्राप्त हुए हैं ।
तमिलनाडु में इस संस्कृति के प्रमाण उत्तरी क्षेत्र में अत्तिरमपक्कम तथा वादमदुराई उत्खननों से इस काल का उपकरण प्राप्त हुए है। इसके अतिरिक्त गुडियम कान्दरा उत्खनन से भी स्तर विन्यास के आधार पर मध्यपाषण काल के छोटे उपकरणों के पहले के फलक उपकरण प्राप्त हुए हैं।
उड़ीसा से म्यूरभंज, क्योन्झार, सुन्दरगढ़ द्येनकनाल जिलों से फलक उपकरण क्वार्टज जैसपर तथा क्वार्टजाइट नामक पत्थरों पर बने प्राप्त हुए है।
पश्चिमी बंगाल में बंकुरा, बीरभूम, मिदनापुर, पूर्लिया जिलों से फलक उपकरण प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त 24 परगना, जलपाइगुडी जिलों से तथा असम मेघालय की गारो पहाड़ियों से भी इस संस्कृति के प्रमाण मिले हैं।
जीवन –
इस युग में लोगों का जीवन शिकार पर बहुत अधिक निर्भर था। इस समय तक, लोग गाय, बैल, बकरी, भेड़ और भैंस जैसे बड़े जानवरों का शिकार करना शुरू कर चुके थे। मध्य पुरापाषाण काल के अंत तक, उन्होंने मिट्टी के बर्तन बनाना सीख लिया था।
सराय नाहर और महादहा में मिले कब्रगाहों से मिले साक्ष्यों से पता चलता है कि इस काल के लोग अंत्येष्टि संस्कार से परिचित थे। वे अपने मृतकों को खाद्य पदार्थों और औजारों के साथ इन दफन स्थलों में रखते थे। यह पुनर्जन्म से जुड़ी अलौकिक शक्तियों में संभावित विश्वास का सुझाव देता है।
मध्य पुरापाषाण काल के जीवन और आर्थिक गतिविधियों के बारे में जानकारी गुफा की दीवारों पर बने चित्रों से प्राप्त की जा सकती है। भीमबेटका, आदमगढ़ और मिर्ज़ापुर जैसे स्थल मध्य पुरापाषाण युग की कला की दृष्टि से महत्व रखते हैं। ये पेंटिंग शिकार, भोजन इकट्ठा करना, मछली पकड़ने और अन्य मानवीय प्रयासों जैसी गतिविधियों की झलक पेश करती हैं।
3. उत्तर पुरापाषण काल (Upper Paleolithic Period) –
उत्तर पुरा पाषण काल संस्कृति अभिनूतन काल की अंतिम संस्कृति है | इस काल में मानव से अपने उपकरण क्रोड या फलक के स्थान पर ब्लेड पर बनाने प्रारंभ कर दिए | साथ ही हड्डी का प्रयोग भी औजार बनाने के लिए होने लगा | इस काल की विशेषता ब्लेड तथा ब्यूरिन, बोरर नामक उपकरण है | इसके अरिरिक्त विलो तथा लारेल नामक पेड़ के पत्तों के आधार के प्वांइट, हड्डी के तीराग्र हारपून, तीर सीधे करने का उपकरण, डार्ट इत्यादि |
भारत में यद्यपि इस संस्कृति के उपकरण यदा कदा मिलते रहे हैं जैसे कि कर्नूल जिले के बिल्लासुरगम नामक स्थल से उत्तर पुरापाषण कालीन उपकरण, जो कि पश्चिमी यूरोप के मैगडलेनियन प्रकार के मिले | इसी प्रकार भारत के दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र में भी यह उपकरण मिले | नेवासा से भी ब्लेड तथा ब्यूरिन प्राप्त हुए | परन्तु 1970 के दशक तक भारत में इस संस्कृति की अलग पहचान नहीं थी | परन्तु आन्ध्र प्रदेश में चित्तूर तथा कर्नूल नामक स्थलों से हमें इस संस्कृति के अलग स्वरूप के पुरातात्विक, स्तर-विस्थापिक प्रमाण मिलने शुरू हुए |
विस्तार –
आन्ध्र में चित्तूर जिलों से इस संस्कृति के ब्लेड तथा ब्यूरिन प्राप्त हुए है। बिस्लासुरगम गुफा से तथा रेनिगुन्ता के अतिरिक्त मल्लागुध्डलु तथा प्रकाशन जिले की येशगोण्डा पल्लम, नागार्जुनकोण्डा भी महत्वपूर्ण स्थल है । परन्तु सबसे महत्वपूर्ण है मुच्चन्त चिन्तामणि गवि जहां से 90% से अधिक उपकरण हड्डियों पर बने है।
कर्नाटक में सल्वादगी तथा मेरलमवी क्षेत्र (शोरापुर दोआब) महत्वपूर्ण है। यहां एक फैक्ट्री उस काल के उपकरण बनाने की मिली। बिहार में सिंहभूम से प्राप्त हुए है, उत्तरप्रदेश में मिर्जापुर जिले के लेखाहिया तथा राजपूत नामक स्थलों से उत्तरपुरापाषाण कालीन उपकरण मिले है परन्तु ये विशुद्ध उत्तर पाषाण कालीन पश्चिमी युरोप एवं पश्चिमी एशिया प्रकार के नहीं है । बेलन घाटी ने स्तरविन्यास संदर्भ मे ये उपकरण प्राप्त हुए है । मध्यप्रदेश में सर्वप्रथम सोन घाटी में सिधि तथा शाहडोल जिलों में उत्तरपाषाणीय उपकरण प्राप्त हुए । इसके अतिरिक्त रायसीन जिले की भीमबेटका गुफा तथा चट्टान आश्रय से औरगनेशियन प्रकार थे उत्तर पाषाणीय उपकरण प्राप्त हुए है।
महाराष्ट्र बोरिवली तथा कान्डीवली से टाड नामक विपण्णन ने ब्लेड तथा ब्यूरिन प्रकार के उपकरण खोजे थे। इसके अतिरिक्त नेवासा तथा द्यूलिया जिले के भदने स्थल से इस काल के उपकरण प्राप्त हुए । इस राज्य में सबसे महत्वपूर्ण है पटने का स्थल जहां उत्खनन में इस काल के उपकरण तथा अन्य वस्तुएं प्राप्त हुई है। जलगांव जिले के चालिस गांव तालुक क स्थित इस स्थल से प्रथम दो कालों में जैस्पर पर बने उपकरण प्राप्त हुए तथा अन्तिम दो चालसीडोनी का प्रयोग किया गया प्रथम काल में उत्तरपाषाण कालीन उपकरणों के साथ कुछ फलक उपकरण भी मिले जबकि दूसरा काल इस संस्कृति का सर्वप्रथम काल है। तीसरे काल में उपकरण छोटे बनने लगे तथा शर्तुमुर्ग के अंडे के खोल का डिस्क प्रकार का मनका भी प्राप्त हुआ । जो कि भारत का सबसे प्राचीन अलंकर्ण है। चौथा काल इस संस्कृति का अन्तिम काल है। जिसमें मध्य पाषाण कालीन लघु उपकरण मिलने शुरू हो गए।
गुजरात। में मध्य गुजरात के पावगढ़ क्षेत्र में इस काल के प्रमाण विसादि से प्राप्त हुए हैं जिन्हें 40000 से 12000 वर्ष पूर्व माना जा सकता है |
मानव जीवन तथा कला –
इस काल में मानव गुफाओं तथा चट्टान आश्रयों में रहा करता था | नदी के किनारों तथा खुले क्षेत्रों में भी रहने के प्रमाण मिले हैं | शिकार, मछली पकड़कर वह अपना निर्वाह करता था तथा फल, जड़ें इत्यादि भी उसके भोजन का अंग थी | इस काल में यूरोप तथा पश्चिमी एशिया में मानव ने कला का विकास कर लिया था | भारत में भी मानव के कला कृतियां जैसे पेंटिंग, कुरेद कर बनाए |