प्राकृतिक आपदा वर्गीकरण, लक्षण एवं बचाव [Natural Disaster UPSC NCERT Notes]


प्राकृतिक आपदा वर्गीकरण, लक्षण एवं बचाव [Natural Disaster UPSC NCERT Notes]
प्राकृतिक आपदा वर्गीकरण, लक्षण एवं बचाव (Image by jcomp on Freepik)

प्राकृतिक आपदा –

आपदा का सामान्य अर्थ संकट या विपत्ति है। ‘आपदा’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘Disaster’ है जो ‘फ्रेंच’ भाषा के Desastre शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘बुरा’ या ‘ अनिष्टकारी’। वास्तव में आपदा विपदा का वह स्वरूप है जिसके परिणाम से सामाजिक ढाँचा एवं विद्यमान व्यवस्थाएँ ध्वस्त हो जायँ तथा जनसमुदाय, पशुधन व सम्पत्ति को हुई क्षति हेतु बाहरी सहायता की आवश्यकता हो।

सामान्यतः विश्व के सभी देश किसी न किसी आपदा से ग्रसित हैं। भारत भी उनमें से एक है। यह एक ऐसा देश है जहाँ धरातल एवं जलवायु की विविधता पायी जाती है। यहाँ प्राचीनतम ज्वालामुखी शैलों से निर्मित प्रायद्वीपीय पठार के साथ-साथ हिमालय की नवीन वलित श्रेणियाँ विद्यमान हैं, आज भी उनका उत्क्षेप जारी होने से अस्थिरता की स्थिति बनी हुई है जो भूकम्पीय घटनाओं के रूप में प्रकट होती हैं। यद्यपि प्रायद्वीपीय पठार भू-गर्भिक घटनाओं से अप्रभावित रहा है, तथापि 1960 ई० के दशक के बाद यहाँ की भूकम्पीय घटनाएँ सक्रिय हुई हैं। हिन्द महासागर में भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति उसे बंगाल की खाड़ी में सक्रिय चक्रवातों से प्रभावित करती है। ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के तटवर्ती भाग चक्रवाती तूफान से प्रभावित रहते हैं। भारत की मानसूनी जलवायु बाढ़-सूखा जैसी स्थितियाँ उत्पन्न करती रहती हैं।

भारत में आपदा का भौगोलिक परिदृश्य

  • सम्पूर्ण हिमालय श्रृंखला भूस्खलन प्रवृत्त है।
  • 57 प्रतिशत भू-भाग भूकम्प प्रवृत्त है।
  • 76 लाख हेक्टेयर भूमि प्रति वर्ष बाढ़ से प्रभावित होती है।
  • 28 प्रतिशत कृषियोग्य भूमि सूखा प्रवृत्त है।
  • प्रति वर्ष औसतन दो से तीन विनाशकारी चक्रवात आते रहते हैं

आपदाओं का वर्गीकरण –

आपदाओं को सामान्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. प्राकृतिक आपदाएँ – जैसे-भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़, सूखा, बादल का फटना, चक्रवाती तूफान या समुद्री लहरें आदि।
  2. मानवकृत आपदाएँ – जैसे- आग, दुर्घटनाएँ, आतंकवाद, रासायनिक एवं औद्योगिक दुर्घटनाएँ, महामारियाँ आदि । प्राकृतिक आपदाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् हैं-

प्राकृतिक आपदाएँ –

1. भूस्खलन (Landslide) –

भूस्खलन एक प्रकार की प्राकृतिक आपदा है। इसका प्रभाव पर्वतीय अंचलों में पड़ता है। पर्वतीय ढालों का एक बहुत बड़ा भाग जलतत्त्व की अधिकता एवं आधार के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असंतुलित होकर अचानक तेजी के साथ सम्पूर्ण (पूरा) अथवा विखंडित एवं विच्छेदित खंडों के रूप में गिर जाता है, खंडों के गिर जाने की प्रक्रिया को ही भूस्खलन कहा जाता है। यह प्रायः तीव्रगामी एवं आकस्मिक होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन का मुख्य कारण भूकम्प होता है। जब कभी खुदाई या नदी द्वारा अपरदन क्रिया से पर्वतीय ढाल तीव्र हो जाता है तो भूस्खलन की स्थिति बन जाती है। यह क्रिया धीरे-धीरे सम्पन्न होती है और एकाएक घटित हो जाती हैं। भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़ तथा ज्वालामुखी विस्फोट के साथ भी आ सकते हैं।

भूस्खलन का प्रभाव –

भूस्खलन से भौतिक क्षति के साथ-साथ जन हानि भी होती है। भूस्खलन के मार्ग में आने वाली प्रत्येक वस्तुएँ नष्ट हो जाती हैं। इससे सड़कों तथा बस्तियों को भी क्षति पहुँचती है। इनसे कृषि भूमि को भी हानि पहुँचती है। नदियों का प्रवाह मार्ग भी अवरुद्ध हो सकता है। मृतकों की संख्या समय और स्थान पर निर्भर करती है। कमजोर नींव वाले भवनों को अधिक खतरा रहता है। सड़कों तथा संचार लाइनों की स्थिति भी निरापद नहीं रहती है।

भूस्खलन से बचाव हेतु सावधानियाँ –
  1. खतरों का मानचित्रीकरण करने से ढलान के फेल होने वाले क्षेत्रों का पता लग जाता है। ऐसे क्षेत्रों में निर्माण कार्य नहीं किया जाना चाहिए।
  2. भूस्खलन जोनेशन मानचित्रण द्वारा भूस्खलन की भीषणता का पता चल जाता है।
  3. सड़कों के किनारों पर स्थित तीव्र ढालों पर प्रतिधारण दीवारों का निर्माण करने से ऊँचे पर्वत से पत्थर सड़क पर नहीं आ पाते।
  4. भूस्खलन वाले भागों पर स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल वनस्पति उगायी जानी चाहिए। इसके भूस्खलन से बचाव में सहायता मिलती है। वृक्षारोपण अत्यन्त प्रभावपूर्ण विधा है। यह मिट्टी की ऊपरी सतह को निचली सतह के साथ बाँधे रखता । इससे मृदा अपरदन भी नहीं होता है।
  5. वर्षा के जल तथा चश्मों से जल प्रवाह के कारण उत्पन्न होने वाले भूस्खलनों को नियन्त्रित करने के लिए स्थलीय जल-प्रवाह को नियन्त्रित करना चाहिए।
  6. मजबूत नींव वाले भवनों का निर्माण लाभकारी होता है। भूमिगत संयंत्रों को तकनीकी रूप से ऐसे निर्मित करना चाहिए कि वे भूस्खलन से क्षतिग्रस्त न हों।

2. भूकम्प (Earthquake) –

भूकम्प अत्यन्त विनष्टकारी आपदाओं में से एक है। पृथ्वी की सतह से कुछ किलोमीटर तक गहराई में स्थित चट्टानों में उपस्थित दरारों, भ्रंशों, कमजोर सतहों पर परस्पर टकराव, गति, हलचल, घर्षण आदि से उत्पन्न एवं प्रसारित कम्पन जो उत्पत्ति केन्द्र से चारों तरफ प्रसारित होकर सतह पर स्थित वस्तुओं आदि को हिला डुला कर असन्तुलित कर देती है, को भूकम्प की संज्ञा दी जाती है। कुछ ऐसी भी सूक्ष्म तरंगें होती हैं जिन्हें मनुष्य अनुभव नहीं कर पाता किन्तु संवेदनशील प्राणी जैसे—कुत्ते, बिल्ली, चमगादड़, पक्षी आदि द्वारा महसूस कर लिया जाता है। आधुनिक भूकम्पीय यंत्र (रिक्टर स्केल) द्वारा ऐसी तरंगें भी रिकार्ड की जा सकती हैं।

भूकम्प के कारण –

पृथ्वी एक गतिशील एवं सक्रिय ग्रह है जिसकी सबसे ऊपरी सतह क्रस्ट का निर्माण करने वाले विशाल भूखण्ड तथा जलमण्डल की रचना करने वाली विशाल प्रस्तरीय प्लेटें अति प्रत्यास्थ एवं सान्द्र प्रकृति की भीतरी सतह मैंटिल में उत्पन्न संवहन तरंगों के कारण निरंतर गतिशील, संघनित एवं प्रसारित हुआ करती हैं। इसका मूल कारण पृथ्वी का केन्द्रीय भाग है जो अति रेडियोधर्मिता तथा अत्यधिक दाब के कारण 3000°C से अधिक तक गर्म होता है। इस प्रकार के उत्पन्न संवहन तरंगों के कारण सतह की प्लेटें परस्पर गति करती रहती हैं, जिसे भू-विवर्तनिकी कहा जाता है। पर्वत, समुद्र, मैदान, पठार, द्वीप आदि की उत्पत्ति का कारण यही गतियाँ हैं। यही वह प्रक्रिया है जिसके कारण हमारी पृथ्वी पर आज जैसी जलवायुविक जैविक एवं प्राकृतिक विविधता है, साथ ही क्षेत्र विशेष में खनिजों की उत्पत्ति आदि भी इसी प्रकार के विवर्तन का परिणाम है, अतः भूकम्प को समझने के लिए तीन बिन्दुओं को जानना अत्यन्त आवश्यक है-

  1. भूकम्प केन्द्र – पृथ्वी की सतह के नीचे जिस स्थान पर भूखण्डीय प्लेटें टकराती हैं या जहाँ से आन्तरिक संघनित ऊर्जा- दरारों, भ्रंशों आदि के अनुसार त्वरित कम्पनों को जन्म देती हैं, उस स्थान को भूकम्प का केन्द्र कहा जाता है।
  2. अभिकेन्द्र – भूगर्भ में स्थित केन्द्र के सापेक्ष पृथ्वी की सतह पर स्थित उस बिन्दु को जहाँ तरंगें सतह पर टकराती हैं, अभिकेन्द्र (Epicenter) कहा जाता है। यहाँ भूकम्प की तरंगें सबसे पहले पहुँचती हैं। उनका प्रभाव भी सर्वाधिक होता है।
  3. परिमाण – भूकम्प के माध्यम से अवमुक्त हुई ऊर्जा का आकलन ही परिमाण कहलाता है। परिमाण को अंकों के रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है।
भूकम्पीय तरंगों के प्रकार –

भूकम्पीय तरंगें चार प्रकार की होती हैं-

  1. प्राथमिक या प्रधान तरंग – अनुदैर्घ्य तरंगें जिनकी गति तीव्र होती है, यह भूकम्प केन्द्र से कई सौ किलोमीटर तक प्रसारित होती हैं। इन्हें सर्वप्रथम अनुभव किया जा सकता है।
  2. द्वितीयक या अनुप्रस्थ तरंगें – अनुप्रस्थ तरंगें प्रकृति के औसत आयाम के कम्पन होते हैं। यह अधिक हानि नहीं कर पाती हैं। यह ठोस चट्टानों से गुजर सकती हैं।
  3. धरातलीय तरंगें – यह पृथ्वी की सतह के समान्तर प्रवाहित होने के कारण सर्वाधिक विनाशकारी होती हैं। यह पृथ्वी को सतह को अगल-बगल हिलाती हैं।
भूकम्प का आकलन –

भूकम्प का आकलन स्केल द्वारा किया जाता है। रिक्टर द्वारा 1958 में गुणात्मक आकलन के आधार पर जो स्केल बनाया गया उसे ‘रिक्टर स्केल’ कहा जाता है। आजकल यही प्रचलित है। इसमें तीव्रताओं के अनुसार I से XII तक का स्केल वर्णित है। स्केल से स्केल II में परिमाण की शक्ति का अन्तर 32 गुना होता है।

भूकम्प आने के पूर्व के लक्षण –

भूकम्प का पूर्वानुमान एवं भविष्यवाणी करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है, किन्तु कुछ अप्रत्याशित एवं असामान्य प्राकृतिक जैविक व्यवहार एवं घटनाओं के द्वारा कुछ लक्षण अवश्य प्रतीत होने लगते हैं, जिनका उल्लेख निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है –

  1. भूकम्प से पूर्व पृथ्वी की रेडियोधर्मिता में हुई वृद्धि एवं असामान्य गैसों के निकलने से वातावरण में कुछ परिवर्तन हो सकता है। इससे विपदा की आशंका की जा सकती है।
  2. जलीय स्रोतों तथा कुओं का जल गन्दला होने लगता है।
  3. कुछ संवेदनशील प्राणियों जैसे- कुत्ता, बिल्ली, चमगादड़ तथा पक्षी अचानक उत्प्रेरित हो जाते हैं एवं अप्रत्याशित व्यवहार करने लगते हैं।
  4. भूकम्प आने के पूर्व प्रारम्भिक अवस्था में भवन के दरवाजे तथा खिड़कियाँ धीरे-धीरे खटखटाने लगती हैं। बर्तन, चारपाई, मेज, फूलदान आदि में कम्पन होने लगता है। मंदिरों तथा गिरजाघरों की घण्टियाँ बजने लगती हैं।
आपदा से पूर्व सावधानियाँ –
  1. चेतावनी जारी होते ही भवन को छोड़कर मैदान में आ जायँ ।
  2. जोखिम से बचने के लिए विशेषज्ञों की परामर्श लें।
  3. ऊपर लटकती हुई वस्तुएँ हटा दें।
  4. कमजोर दीवारों को सहारा दें।
  5. दीवारों, पेड़ों तथा खम्भों के पास न खड़े हों।
आपदा के समय सावधानियाँ –
  1. डरने के बजाय शान्ति से काम लेना चाहिए।
  2. जहाँ हैं, वहीं खड़े रहिए, किन्तु दीवारों, पेड़ों या खम्भों का सहारा न लें।
  3. चलती कार में हों तो कार से उतर कर सड़क के एक किनारे बैठ जाइए। पुल या सुरंग पार न करें।
  4. बिजली बन्द कर दें। गैस पाइप बन्द कर सिलेंडर को सील कर दें।
आपदा के बाद क्या करें? –
  1. गैस सिलेंडर बंद रखें। आग न जलायें ।
  2. परिवार के बच्चों तथा उन सदस्यों का विशेष ध्यान रखें जो वृद्ध या अशक्त हों।
  3. रेडियो या टी० वी० बंद न करें। आपातकालीन घोषणाएँ सुनते रहें ।
  4. क्षतिग्रस्त ढाँचों से दूर रहें ।
  5. बाद में आने वाले झटकों से सचेत रहें ।

3. सुनामी (Tsunami)

26 दिसम्बर, 2004 ई० की सुबह विश्व के लिए घोर आपदा लेकर आयी। समुद्री लहरों ने लगभग 2 लाख 90 हजार जिंदगियों को निगल लिया। अनेक परिवारों में रोने वाला कोई नहीं बचा। बहुत से बच्चे अनाथ हो गये। जो सलामत बचे, उनकी भी मुश्किलें कम नहीं हैं। इन समुद्री लहरों को सुनामी नाम दिया गया। सुनामी जापानी भाषा का शब्द है जो दो शब्दों ‘सू’ और ‘नॉमी’ से मिलकर बना है। ‘सू’ का अर्थ है बन्दरगाह तथा ‘नामी’ का अर्थ है ‘लहर’। सुनामी लहरें भूकम्पों या ज्वालामुखियों के फटने अथवा जलगत भूस्खलनों के कारण पैदा होती हैं। समुद्र की तलहटी में भूकम्प के कारण ऊर्जा उत्पन्न होने से बड़ी-बड़ी लहरों का उद्भव होता है। इन लहरों की तरंगदैर्घ्यता 600 किलोमीटर तथा गति भी 600 किलोमीटर प्रति घण्टा से अधिक हो सकती है। तट पर आने पर इन लहरों का प्रभाव बढ़ जाता है। इनकी ऊँचाई उस समय 15 मीटर से भी अधिक हो सकती है। यही लहरें तटवर्ती क्षेत्रों में विनाश का कारण बनती हैं। लहरें इतनी तीव्र गति से तट पर टकराती हैं कि भौतिक संरचनाओं की अपार क्षति हो जाया करती है। साथ ही जब पानी तेज वेग से वापस समुद्र की ओर लौटता है तो बहुत मनुष्यों तथा जीव-जन्तुओं को अपने साथ समुद्र में डाल देता है जिससे असीमित जन-धन की हानि होती है। 2004- ई० में आये सुनामी भूकम्प की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 9 मापी गयी थी। भारत में इससे सर्वाधिक प्रभावित राज्य तमिलनाडु तथा केरल थे।

4. बाढ़ –

बाढ़ का तात्पर्य किसी क्षेत्र में निरन्तर वर्षा होने या नदियों का जल फैल जाने से उस क्षेत्र का जलमग्न होना है। वर्षा काल में नदियों का जल स्तर वर्षा के कारण अपने जल स्तर से ऊपर बहने लगता है और तटबन्धों को तोड़कर निकटवर्ती क्षेत्रों में फैल जाता है, जिससे आस-पास का सम्पूर्ण क्षेत्र जलमग्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में नदियों के किनारे स्थित गाँवों तथा नगरों की स्थिति भयावह हो जाती है। वास्तव में बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है किन्तु जब यह मानव जीवन तथा सम्पत्ति को हानि पहुँचाती है तो यह प्राकृतिक आपदा बन जाती है। विश्व की प्रमुख नदियाँ जो बाढ़ के लिए प्रसिद्ध हैं उनके नाम इस प्रकार हैं-गंगा, यमुना, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गण्डक, कोसी, दामोदर, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, गोदावरी आदि (भारत), सिन्धु ( पाकिस्तान), दजला-फरात (इराक), मिसीसिपी मिसौरी (संयुक्त राज्य अमेरिका), यांगसी एवं ह्वांगहो (चीन), इरावदी (म्यांमार) तथा नाइजर (नाइजेरिया)। बाढ़ों के ही कारण दामोदर नदी ‘बंगाल का शोक’ तथा कोसी नदी ‘बिहार का शोक’ कही जाती हैं। ब्रह्मपुत्र नदी को ‘असोम का शोक’ कहते हैं।

बाढ़ के कारण-
  1. भारत में भारी मानसूनी वर्षा या चक्रवाती वर्षा से नदियों का जल स्तर इतना बढ़ जाता है कि वह तटबन्धों को तोड़कर आस-पास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देता है। इससे बाढ़ का आ जाना स्वाभाविक हैं।
  2. भूस्खलन भी बाढ़ का एक कारण है। इससे नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है जिससे उसका जल आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है।
  3. वनों के कटाव के कारण भी बाढ़ की सम्भावनाएँ बढ़ गयी हैं। हिमालय में बड़े पैमाने पर वन विनाश ही हिमालयी नदियों में बाढ़ का कारण है।
बाढ़ का प्रभाव –

बाढ़ का निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है-

  1. बाढ़ से बड़े पैमाने पर कार्बनिक पदार्थों के अपरदन से महामारी, वायरल संक्रमण, मलेरिया, पेचिस आदि बीमारियाँ फैल जाती हैं।
  2. बाढ़ से मैदानी इलाकों में खड़ी फसलें नष्ट हो जाती हैं।
  3. बाढ़ के पानी के दबाव के कारण बहुत से मकान, बाँध तथा वृक्ष टूट जाते हैं, भूस्खलन होता है, पशु भी जल- प्रवाह के शिकार हो जाते हैं। इससे अपार जन धन की हानि होती है।
  4. कभी-कभी जल का प्रवाह अधिक होने से मिट्टी का कटाव भी होता है।
  5. बाढ़ से लाभ भी होता है। मैदानों में आमतौर पर नदियाँ मिट्टी लाकर जमा कर देती हैं, जिससे वहाँ की पैदावार बढ़ जाती है।
आपदा के पूर्व हमें क्या करना चाहिए? –
  1. सदैव अपने क्षेत्र के भू-दृश्य की विशेषताओं की जानकारी कीजिए।
  2. अपने क्षेत्र की नदियों की भौगोलिक स्थिति की जानकारी कीजिए।
  3. मकान की नींव और बाहरी दीवारों को मजबूत बनाइए ।
  4. तैरना सीखिए।
आपदा के पश्चात् हमें क्या करना चाहिए? –
  1. अपने घर, पड़ोस तथा आस-पास के क्षेत्र की सफाई कीजिए और कीटनाशक दवाएँ डालिए |
  2. मृदा संरक्षण के उपायों को अपनाइए ।
  3. वृक्षारोपण पर बल दीजिए।
  4. रोगों की रोकथाम हेतु टीके लगवाइए। मरीजों को अस्पताल ले जाइए।
  5. पशुओं को पशु चिकित्सालय ले जाकर इलाज कराइए।

5. सूखा –

सुखा वह स्थिति है जिसमें कृषि, पशुपालन तथा मनुष्यों को जल की प्राप्ति सामान्यतः आवश्यकता से कम होती है। शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क प्रदेशों में यह एक सामान्य समस्या है। कभी-कभी पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र भी इससे प्रभावित हो जाते हैं। अकाल की अवधि कुछ महीनों तथा कई वर्षों तक बनी रह सकती है। मानसूनी वर्षा वाले क्षेत्र इससे अधिक प्रभावित होते हैं। भारत एक मानसूनी जलवायु बाला क्षेत्र है, अतः यहाँ बाढ़ तथा सूखा दोनों की समस्या प्राय: बनी रहती है।

सूखा के कारण –

सूखा के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  1. वर्षा की कमी से पेयजल की कमी हो जाती है। फसलों को क्षति होने लगती है।
  2. अत्यधिक चराई और जंगलों के कटाव से वर्षा में कमी हो जाना स्वाभाविक है।
  3. वर्षा होने पर जब जल सतह पर तेजी से बह जाता है तो मिट्टी का कटाव भी होता है और सतह के नीचे जल का स्तर कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में नदियाँ, कुएँ तथा जलाशय सूखने लगते हैं। वास्तव में पर्यावरण की कमी से सूखा की स्थिति उत्पन्न होती है ।
सूखा का प्रभाव –

सूखा के निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं-

  1. फसलों के नष्ट हो जाने से खाद्यान्न की कमी हो जाती है।
  2. पशुओं के लिए चारा की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  3. ग्रामीण अंचलों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। सूखा से रोजगार की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  4. कृषि आधारित उद्योगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि कच्चे माल की समस्या हो जाती है।
  5. सरकार सूखा से निपटने के लिए विविध कार्यक्रमों का संचालन करती है, जिससे राष्ट्रीय बजट पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
सावधानियाँ –

सूखा से बचाव के लिए निम्नलिखित सावधानियाँ अपनायी जा सकती हैं-

  1. जल संचय करके उसका प्रयोग सिंचाई के लिए किया जा सकता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण ‘इंदिरा गाँधी नहर परियोजना’ है।
  2. प्राकृतिक तालाबों का निर्माण कर वर्षा का जल संचय किया जा सकता है। इससे भू-जल के स्तर को भी बढ़ाया जा सकता है।
  3. देश में बहने वाली नदियों को जोड़कर जल की सुलभता बनायी जा सकती है। इस क्षेत्र में केन और बेतवा को जोड़ने का कार्य 2005 ई० में प्रारम्भ हो गया है।
  4. सूखा से निपटने के लिए विभिन्न योजनाओं का निर्माण किया जाना चाहिए जिससे खाद्यान्न आपूर्ति की जा सके तथा लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जा सके।
  5. ऐसे क्षेत्रों में पर्यावरणीय सुधार अपेक्षित है।

6. समुद्री लहरें –

समुद्री लहरों का तल सन्तुलन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। समुद्रतटीय भागों में लहरों का प्रभाव अधिक पाया जाता है। इसका मुख्य कारण पवनों का चलना है। पवनों के चलने के कारण ही समुद्रों में तरंगों की उत्पत्ति होती है। जब यही तरंगें अपने तीव्र प्रभाव से समुद्र के तटीय भागों से टकराती हैं, तो तटीय भाग कट जाता है। जब लहरें तट से टकराकर वापस लौटती हैं तो तटों से अपरदित पदार्थ को भी बहाकर समुद्र में ले आती हैं। यह पदार्थ या तो समुद्र के तट पर निक्षेपित कर दिया जाता है अथवा तटों पर ही जमा होता रहता है। अपरदित पदार्थ के निक्षेपण से कई प्रकार की स्थलाकृतियों का जन्म होता है। इनके नाम हैं- भृगु, पुलिन तथा बालू-रोधिका या लैंगून।

जिन बड़े नगरों का निर्माण समुद्र के तटीय भागों पर हुआ है, वहाँ लोग समुद्र तटों पर मनोरंजनार्थ जाया करते हैं। मुम्बई की चौपाटी, जुहू तथा गोवा में कई बीच इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। कन्याकुमारी का महत्त्व इसी दृष्टि से है। कोलकाता नगर समुद्र के किनारे ही है। समुद्री लहरें पवनों के प्रभाव से समुद्र के तटों पर आती जाती रहती हैं जिसका दृश्य बड़ा ही मनोहारी होता है। लोग लहरों में बोटिंग का भी आनन्द लेते हैं। समुद्र में मछली पकड़ने वालों को इन लहरों का सावधानी से ध्यान रखना पड़ता है।.

7. चक्रवात (समुद्री तूफान) –

चक्रवात एक प्रकार की पवनें हैं जो उष्ण कटिबन्ध में तीव्र गति से चलती हैं। यह एक निम्न दाब का क्रम होता है जिसमें बाहर की ओर से केन्द्र की ओर हवाएँ तीव्र गति से चलती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में ये हवाएँ घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा में चलती हैं। किन्तु दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की अनुकूल दिशा में ये पवनें चला करती हैं। यह चक्रवात मौसमी होते हैं। ये प्रायः ग्रीष्मकाल के उत्तरार्द्ध में सक्रिय होते हैं। इनकी उत्पत्ति तापीय भिन्नता के कारण होती है। वास्तव में यह तेज गति से चलने वाली विनाशकारी पवनें होती हैं। इनके चलने की दिशा प्रायः पश्चिम की ओर होती हैं तथा इनकी गति 100 किलोमीटर प्रति घण्टा से भी अधिक होती है। समुद्र में तो यह तीव्र गति से चलती हैं किन्तु तटों पर पहुँचने पर स्थल से घर्षण होने के फलस्वरूप कमजोर पड़ जाती हैं। विश्व के विभिन्न देशों में इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है। भारत में इन्हें ‘चक्रवात’, आस्ट्रेलिया में ‘विली विलीज‘, संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘हरीकेन’ तथा चीन में ‘टाइफून’ कहा जाता है।

चक्रवात पर्यावरण की एक आपदा है। इसका आना अकस्मात् होता है। इसका सम्बन्ध मौसम के चक्र से होता है। मौसम विभाग के रिकार्डिंग उपकरणों की सहायता से इसका अनुमान लगाया जा सकता है। मियामी (फ्लोरिडा अमेरिका) का नेशनल हरीकेन सेंटर दुनिया के उन प्रमुख केन्द्रों में से एक है जो संसार भर में चक्रवातों पर दृष्टि रखते हैं। नेशनल वेदर सर्विस की सहायता से वह सम्पूर्ण विश्व में ‘चेतावनी’ जारी करता है।

चक्रवात का प्रभाव –

चक्रवात का निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है-

  1. बिजली, पानी, टेलीफोन, जल निकासी जैसी अनिवार्य सेवाएँ चक्रवात से बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाती हैं।
  2. यातायात और संचार के साधन बाधित हो जाते हैं।.
  3. पोतों के लिए चक्रवात अनिष्टकारी होते हैं। ओडिशा के सुपर साइक्लोन ने पारादीप बन्दरगाह और उसके ढाँचे को पूरी तरह नष्ट कर दिया था।
  4. चक्रवात के रास्ते पर जो भी पड़ता है, वह नष्ट हो जाता है। पशु-पक्षी यहाँ तक कि मनुष्य सभी काल के गाल में समा जाते हैं।
  5. चक्रवात के कारण तूफान, बाढ़, भूस्खलन आदि जैसी विषम विपत्तियाँ आ जाया करती हैं।
  6. चक्रवात आने के बाद वायरल बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है। मलेरिया, पेचिश सामान्य बात है । 7. चक्रवात की मूसलधार वर्षा के कारण खड़ी फसलें तहस-नहस हो जाती हैं। केले और नारियल की खेती अधिक प्रभावित होती हैं।
बचाव के उपाय –

चक्रवात से बचने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैं–.

  1. समुद्रतटीय क्षेत्रों में फूस की छत वाले कच्चे मकान नहीं बनाने चाहिए। यहाँ निश्चित विशेषता वाले भवनों का ही निर्माण होना चाहिए। अच्छा होगा कि मकान ऊंचे टीलों या बल्लियों पर बनाये जायें।
  2. सम्भावित क्षेत्रों में सरकार को चाहिए कि शरण स्थलों की व्यवस्था करें। उड़ीसा में इस प्रकार के शरण-स्थल बनाये गये हैं।
  3. इसके अतिरिक्त हरित पट्टी का विस्तार किया जा सकता है। समुद्र से निकली भूमि पर वृक्षारोपण करना, बाँध या तटबन्ध बनाना जैसा कार्य भी किया जा सकता है।