भगवान ऋषभ (Lord Rishabha) :-
भगवान ऋषभ का जन्म यौगलिक युग के अंत में हुआ था । इनकी माता का नाम मरुदेवा तथा पिता का नाम नाभि था तथा वंश इक्ष्वाकु था । सुनन्दा और सुमंगला नामक इन दो कन्याओं के साथ भगवान ऋषभ का विवाह हुआ तथा इनके सौ पुत्र तथा दो पुत्रियाँ हुई । कुलकर व्यवस्था के बाद भगवान ऋषभ प्रथम राजा बने । राजा बनते ही बढ़ते हुए अपराधों को दूर करने के लिए भगवान ऋषभ ने चार प्रकार की दण्ड व्यवस्था की तथा जनता को असि-मसि-कृषि कर्म का प्रशिक्षण दिया । अपने पुत्र पौत्रियों को भी अनेक कलाओं में पारंगत किया । क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र आदिवर्ण व्यवस्था का प्रारम्भ तथा अनेक सामाजिक परम्पराओं का सूत्रपात भी भगवान ऋषभ ने किया । अपने जीवन का अधिकतम समय सामाजिक और राजनैतिक मूल्यों की स्थापना में व्यतीत किया । फिर राज्य का विभाजन अपने सौ पुत्रों के बीच करके जीवन के अंतिम वर्षों में अभिनिष्क्रमण केआर साधना की और धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया ।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ का जन्म यौगलिक संस्कृति के अंत में हुआ था । वे मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और प्रथम धर्मनायक रहे हैं । इनके जन्म के विषय में ग्रन्थों में कहा गया है कि जब तीसरे आरे के चौरासी लाख वर्ष पूर्व, तीन वर्ष, साढ़े आठ मास अवशेष रहे और अंतिम कुलकर महाराज नाभि कुलों कि व्यवस्था करने में अपने आप को असमर्थ पाने लगे तब भगवान ऋषभ का जीव सर्वसिद्ध देवलोक से च्यवकर नाभि कुलकर कि पत्नी मरुदेवा कि पवित्र कुक्षि में अवतरित हुआ । उसी रात्रि में भगवान ऋषभ कि माता ने चौदह महास्वाप्न देखे जो इस प्रकार हैं – 1.वृषभ, 2. हाथी, 3. सिंह, 4. लक्ष्मी, 5. पुष्पमाता 6. चन्द्र 7. सूर्य 8. ध्वज, 9. कुंभ 10. पदम सरोवर 11. क्षीरसमुद्र 12. देवविमान, 13 रत्नराशि, 14.निर्घूम अग्नि । कुलकर नाभि ने इन सभी स्वप्न-फलों का विश्लेषण करते हुए मेरुदेवा से कहा कि तुम्हारे गर्भ में जो संतान है, वह कोई असाधारण महापुरुष होगा, जिससे सारा विश्व आलोकित हो उठेगा।
ऋषभ का जन्म एवं नामकरण (The birth of Rishabha and Christening Ceremoney) :-
गर्भकाल पूरा होने के बाद चैत्र कृष्ण अष्टमी की मध्य रात्रि में माता मरुदेवा ने एक पुत्र तथा एक पुत्री को युगल रूप में जन्म दिया । चौसठ इन्द्र व सहस्त्रों देवों ने पृथ्वी पर आकार भगवान ऋषभ के जन्म का उत्सव मनाया। इतनी बड़ी संख्या में देवों को देखकर यौगलिक भी इकट्ठे हो गए । उत्सव विधि से अपरिचित होने पर भी देखा-देखी सभी ने मिलकर जन्मोत्सव मनाया। इस प्रकार अवसर्पिणी काल में सबसे पहले भगवान ऋषभ का ही जन्मोंत्सव मनाया गया, जन्मोत्सव मनाने की प्रथा यहीं से प्रारम्भ हुई । इससे पहले जन्मोत्सव मनाने की परम्परा नहीं थी।
जन्मोत्सव के बाद नामकरण का अवसर आया । बालक का क्या नाम रखा जाए इस संबंध में कुलकर नाभि ने कहा जब बालक गर्भ में आया था तब माता ने पहला स्वप्न वृषभ (बैल) का देखा था और बालक के उरुस्थल पर भी वृषभ का शुभ चिन्ह है, अतः मेरी दृष्टि से बालक का नाम वृषभकुमार रखा जाये। उपस्थित सभी लोगों को यह नाम उचित लगा । सभी ने बालक को इसी नाम से पुकारा जाने लगा और पुत्री का नाम सुनन्दा रखा गया । बाद में संभवतः उच्चारण की सरसता के कारण वृषभ से ऋषभ नाम प्रचलित हो गया । कल्पसूत्र की टीकाओं में उनके अन्य पाँच गुण निष्पन्न नाम भी मिलते हैं जो इस प्रकार हैं – वृषभ, प्रथम राजा, प्रथम भिक्षाचर, प्रथम जिन, प्रथम तीर्थंकर।
वंश (Dynasty) :-
यौगलिक युग में मानव समाज किसी कुल, जाति या वंश में विभक्त नहीं था । अतः भगवान ऋषभ का भी कोई वंश (जाति) नहीं था । जब भगवान ऋषभ एक वर्ष के हो गए तो एक दिन वे अपने पिता के गोद में बैठे बाल-क्रीड़ा कर रहे थे । तभी इन्द्र एक थाल में विविध खाद्य वस्तुएँ सजाकर लाए । उन सभी वस्तुओं को देखकर नाभि ने अपने पुत्र से कहा- जो कुछ खाना हो उसे हाथ से उठाओ। भगवान ऋषभ से सर्वप्रथम इक्षु (गन्ने) का टुकड़ा उठाकर चूसने का यत्न किया । बालक ऋषभ के इस यत्न को ध्यान में रखकर इन्द्र ने कहा- बालक को इक्षु प्रिय है । अतः आगे इस वंश का नाम इक्ष्वाकुवंश होगा। इक्ष्वाकुवंश की स्थापना के साथ ही वंश परम्परा का प्रारम्भ हुआ ।
विवाह (Marriage) :-
यौगलिक युग में विवाह पद्धति का प्रचलन नहीं था । जो भाई-बहन के रूप में युगल पैदा होता, वे ही पति-पत्नी के रूप में सम्बन्ध स्थापित करते थे । बहु पत्नी प्रथा का प्रचलन नहीं था । सर्वप्रथम भगवान ऋषभ का विवाह दो कन्याओं के साथ किया गया । दो कन्याओं में एक उनके साथ जन्मी हुई सुनन्दा थी । दूसरी अनाथ कन्या सुमंगला थी। अब तक अकाल मृत्यु नहीं होती थी अब धीरे-धीरे काल का प्रभाव हुआ, एक दुर्घटना घटी। एक जोड़ा था, उसमें पुत्र मर गया, पुत्री बच गई। थोड़े समय बाद माता-पिता भी मर गए। नाभि ने उस कन्या सुमंगला को ऋषभ की पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया । यहीं से विवाह पद्धति का प्रारम्भ हुआ। इसके बाद लोग अपनी सहोदरी के अतिरिक्त दूसरी कन्याओं से भी विवाह करने लगे।
संतान (Offspring) :-
यौगलिक युग में हर युगल के जीवन में एक बार ही संतनोत्पत्ति होती थी और वह भी युगल के रूप में। भगवान ऋषभ के समय से कई क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। अब तक विशुद्ध यौगलिक युग था । हर युगल एक युगल को जन्म देता था । अब यह परम्परा भी टूट गई। उनके सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई। सुनन्दा के तो एक ही युगल पैदा हुआ- बाहुबली और सुन्दरी। सुमंगला के पचास युगल जन्मे। जिनमें प्रथम युगल में भरत और ब्राह्मी का जन्म हुआ, शेष उनचास युगलों में पुत्र ही पुत्र पैदा हुए। इसके बाद अन्य युगल दंपत्तियों के भी अनेक पुत्र और पुत्रियाँ होने लगे। तभी से जनसंख्या भी तेजी से बढ़ने लगी।
राज्याभिषेक (Coronation) :-
अंतिम कुलकर नाभि के समय में अपराध-निरोध के लिए निर्धारित की गई धिक्कार-नीति का उलंघन होने लगा। दिन-प्रतिदिन यौगलिकों की समस्याएँ बढ़ने लगी। नाभि के पास इंका कोई समुचित समाधान नहीं था । अपराध का कारण पूछने पर जवाब मिलता- भूखा था, अतः अपराध हो गया । आप पेट भरने का प्रबन्ध कर दीजिए फिर ऐसी गलती नहीं होगी। पेट भरने का उपाय नाभि जी के पास नहीं था । आब केवल दण्ड व्यवस्था से काम नहीं चल पा रहा था ।
एक दिन कुछ यौगलिक भगवान ऋषभ के पास अपनी समस्याओं के सम्बंध में चर्चा कर रहे थे । ऋषभ ने कहा- ऐसे समस्या का समाधान नहीं होगा । समय के साथ व्यवस्था बदलनी होगी। अब कुलकर व्यवस्था से काम नहीं चलेगा । अब तो विधिवत् एक राजा होना चाहिए। उसके उसके अनुशासन से ही समस्या सुलझ सकती है। यह सुनकर युगलिकों ने कहा- आप ही हमारे राजा बन जाइये। ऋषभ ने कहा- आप जाओ और कुलकर नाभि से राजा की याचना करो, वे तुम्हें राजा देंगे। यौगलिकों ने नाभि के पास जाकर निवेदन किया । नाभि ने कहा- मैं तो अब वृद्ध हो चुका हूँ। अतः आज से तुम सब ऋषभ को अपना राजा मानो। अब से वे ही तुम्हारी समस्याओं का समाधान देंगे।
नाभि की आज्ञा प्राप्त कर सभी युगलियों ने मिलकर अपनी कल्पना से ऋषभ का राज्याभिषेक किया । कई तरह के फूलों से ऋषभ के शरीर को अलंकृत किया । ऊंचे आसान पीआर बिठाकर चरणों में जलाभिषेक किया और उन्हे अपना राजा स्वीकार किया ।
शासन-व्यवस्था का विकास (Development of Governance) :-
राज्याभिषेक के पश्चात ऋषभदेव ने राज्य की सुव्यवस्था और विकास के लिए सर्वप्रथम आरक्षण दल की स्थापना की उसके अधिकारी ‘उग्र’ के नाम से जाने गये। फिर राजकीय व्यवस्था में परामर्श के लिए एक मंत्रीमण्डल का निर्माण किया गया । जिसके अधिकारी को ‘भोग’ नाम से संबोधित किया गया। इसके अतिरिक्त एक परामर्श मण्डल की भी स्थापना की गई जो सम्राट के निकट रहकर समय-समय पर उन्हें परामर्श देता रहे। परामर्श मण्डल के सदस्यों को ‘राजन्य’ और सामान्य कर्मचारियों को ‘क्षत्रिय’ के नाम से संबोधित किया जाने लगा।
विरोधी तत्वों से राज्य की रक्षा करने तथा दुष्टों, अपराधियों को दंडित करने के लिए उन्होने चार प्रकार की सेना और सेना सेनापतियों की व्यवस्था की। अपराधी की खोज एवं अपराध निरोध के लिए साम,दाम, दंड और भेद नीति तथा निम्नलिखित चार प्रकार की दंड व्यवस्था भी की।
- परिभाषक :- थोड़े समय के लिए नजरबन्द करना – अपराधी को कुछ समय के लिए आक्रोश पूर्ण शब्दों से दंडित करना। क्रोधपूर्ण शब्दों में अपराधी को ‘यहीं बैठ जाओ’ का आदेश देना।
- मण्डलिबन्ध :- नजरबन्द करना- नियमित क्षेत्र से बाहर जाने का आदेश देना ।
- बन्ध :- बंधन का प्रयोग – बंदीगृह जैसे किसी एक स्थान में अपराधी को बन्द करके रखना।
- घाव :- डंडे का प्रयोग- अपराधी के हाथ-पैर आदि शरीर के अंग-उपांग का छेदन करना।
धर्मानुकूल लोक-व्यवस्था (Religious public order) :-
राष्ट्र-सुरक्षा की उत्तम व्यवस्था करने के पश्चात ऋषभदेव ने लोक जीवन को स्वावलम्बी बनाना आवश्यक समझा। राष्ट्रवासी अपना जीवन स्वयं सरलता से बिता सकें ऐसी शिक्षा देने के विचार से उन्होने असि, मसि और कृषिकर्म का प्रजा को उपदेश दिया। जो इस प्रकार हैं –
- असिकर्म शिक्षा (Training in War Fare) :- ऋषभ ने एक ऐसा वर्ग तैयार किया जो लोगों की सुरक्षा का दायित्व सँभलने में सक्षम हो। उसे तलवार, भाला, बरछी आदि शस्त्र चलाने सिखाए। साथ में कब, किस पर इन शस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए, इसका भी निर्देश दिया। वे लोग देश की सुरक्षा के लिए सदा तत्पर रहते थे। इस वर्ग को ‘क्षत्रिय’ नाम से पुकारा गया।
- मसिकर्म शिक्षा (Training of Accountancy) :- मासी कर्म का तात्पर्य लिखा पढ़ी से है। ऋषभ ने एक ऐसा वर्ग तैयार किया जो उत्पादन की गई वस्तुओं का विनिमय कर सकें। एक-दूसरे तक पहुंचा सकें। प्रारम्भ में मुद्रा नहीं थी। वस्तु से वस्तु का विनिमय होता था। उनका हिसाब रखना जरूरी था। कौन-सी वस्तु का विनिमय किस मात्रा में होता है, जानना जरूरी था। इसके लिए कुछ लोगों को प्रशिक्षित किया गया। इस विनिमय प्रक्रिया को व्यापार तथा इसे करने वाले वर्ग को व्यापारी (वैश्य) कहकर पुकारा गया।
- कृषिकर्म शिक्षा (Training in Agriculture) :- राजा बनते ही ऋषभ के पास सबसे पहला काम था- खाद्य समस्या का समाधान करना। इसके लिए उसने सबको एकत्रित किया और कहा- अब कल्पवृक्षों की क्षमता कम होने लगी है। समय के साथ उन्होने फल देने बंद कर दिये हैं। अतः ऐसी स्थिति में श्रम करना होगा। खेतों में अनाज बोना होगा । ऋषभ के इस आह्वान पर हजारों नवयुवक खड़े होकर श्रम करने के लिए संकल्पबद्ध हो गए। ऋषभ ने उन्हें कृषि-खेती कैसे करनी चाहिए इसका प्रशिक्षण दिया। कृषि के साथ अन्य सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपाय भी सिखाये।
कला-प्रशिक्षण (Training in Art) :-
ऋषभदेव ने लिपि और अंकविद्या का अविष्कार किया। बड़ी पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों का ज्ञान करवाया और चोटी पुत्री सुंदरी को अंकविद्या अर्थात गणित का अध्ययन करवाया। इस प्रकार उन्होने अपनी पुत्रियों के माध्यम से सर्वप्रथम वाङ्मय का उपदेश दिया। इस विद्याओं का सर्वप्रथम शिक्षण ब्राह्मी और सुंदरी के रूप में नारी जाति को प्राप्त हुआ। ब्राह्मी ने जिस लिपि का अध्ययन किया वह ब्राह्मी लिपि के नाम से जानी जाने लगी। आज भी विश्व में ब्राह्मी लिपि प्राचीनतम लिपि मानी जाती है।
पुत्रियों के समान ऋषभदेव ने पुत्रों को भी अनेक कलाओं का ज्ञान दिया। उन्होने अपने ज्येष्ठ पुत्र को 72 कलाओं का ज्ञान दिया। कनिष्ठ पुत्र बाहुबलि को प्राणी की लक्षण-विद्या का उपदेश दिया। इसके अतिरिक्त धनुर्वेद, अर्थशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, क्रीडा-विधि आदि विद्याओं का प्रवर्तन कर लोगों को सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत बनाया। इस प्रकार पुत्र-पुत्रियों को अनेक कलाओं और विद्याओं की शिक्षा देकर ऋषभदेव ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया और यौगलिक युग जो कि भोगयुग था उसे कर्मयुग में लाने के लिए बहुत श्रम और पुरुषार्थ किया।
वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भ (Introduction of the Caste-System) :-
भगवान ऋषभ से पूर्व भारतवर्ष में कोई भी वर्ण या जाति की व्यवस्था नहीं थी। भारतीय ग्रन्थों में उपलब्ध चार वर्णों में से तीन वर्णों की उत्पत्ति ऋषभ के समय से हुई। जो लोग शारीरिक दृष्टि से शक्ति सम्पन्न थे उन्हें प्रजा की रक्षा के कार्य में नियुक्त किया गया और उन्हें पहचान के लिए ‘क्षत्रिय’ संज्ञा दी गई। जो लोग कृषि, पशुपालन एवं वस्तुओं के क्रय-विक्रय-वितरण आदि का कार्य करते थे, उन लोगों के वर्ग को ‘वैश्य’ की संज्ञा दी गई। कृषि और मसि कर्म के अतिरिक्त अन्य कार्य करने वाले लोगों को शूद्र की संज्ञा दी गई। उनके जिम्मे सेवा तथा सफाई का कार्य था।
ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति सम्राट भरत के शासनकाल में हुई । सम्राट भरत ने धर्म के सतत जागरण के लिए कुछ बुद्धजीवीव्यक्तियों को चुना जो वक्तृत्व कला में निपुण थे। ब्रह्मचारी रहकर समय-समय पर राज्य सभा में तथा अन्य स्थानों में जाकर प्रवचन देना, धार्मिक प्रेरणा देना उनका काम था । ब्रह्मचर्य का पालन करने से या ब्रह्म (आत्मा) की चर्चा में लीन रहने के कारण इन्हें ब्राह्मण कहा जाता था। इनकी सीमा सीमित थी और भरत द्वारा निर्धारित थी।
इस प्रकार चारों वर्णों की उत्पत्ति ऋषभ और सम्राट भरत के समय में हो गई थी, किन्तु हीनता और उच्चता की भावना उस समय बिल्कुल नहीं थी। सभी अपने-अपने कार्य से संतुष्ट थे। वर्ण के नाम पर हीन-उच्च या स्पृश्य-अस्पृश्य आदि के भाव नहीं थे।
ग्राम-व्यवस्था (Village system) :-
ऋषभ ने सामूहिक जीवन का सूत्रपात करते हुए सबसे पहले ग्राम व्यवस्था की रूपरेखा लोगों को समझाई। उन्होने बताया अब समय बदल चुका है अतः रहन-सहन में परिवर्तन करना होगा। घर बनाकर रहना होगा। घर की उपयोगिता समझाने के साथ-साथ सामूहिक जीवन की उपयोगिता समझाई। बात लोगों के समझ में आ गई। वे युगल जंगलों को छोड़कर गांवों में बस गए। सर्वप्रथम जो बस्ती बनी उसका नाम विनीता रखा गया। ऋषभ ने अपना निवास स्थान वहीं बनाया। भारत की प्रथम राजधानी होने का गौरव भी उसे प्राप्त हुआ । उसे ही आगे चलकर अयोध्या के नाम से पुकारा जाने लगा।
सामाजिक परम्पराओं का सूत्रपात (Commencement of Social Traditions) :-
ऋषभदेव ने व्यावहारिक एवं धार्मिक शिक्षाएँ देकर समयानुसार परिवर्तन किया और अनेक सामाजिक परम्पराओं का सूत्रपात किया। जो इस प्रकार हैं –
- पहले कोई राजा नहीं होता था, किन्तु ऋषभ ने राजा-प्रजा का व्यवहार चलाया।
- पहले एक पुरुष की ही स्त्री होती थी और वह जीवन में एक ही युगल उत्पन्न करती थी, किन्तु ऋषभ के सुनन्दा और सुमंगला दो रानियाँ हुई, उन्होने सौ पुत्र और दो पुत्रियों को जन्म दिया। ज्येष्ठ पुत्र का नाम भरत था, जो इस भारत क्षेत्र में चक्रवर्ती हुए।
- पहले भोजन बनाने की प्रथा नहीं थी, क्योंकि कल्पवृक्षों के द्वारा सब कुछ मिल जाता था परन्तु उन वृक्षों की शक्ति में कमी आ जाने के कारण ऋषभ ने असि-मसि-कृषि का प्रवर्तन किया।
- पहले कोई पढ़ना-लिखना नहीं जानता था। ऋषभ ने अपने पुत्रों को 72 कलाएँ तथा पुत्रियों को 64 कलाएँ सिखाई।
- पहले मृतकों की दाह क्रिया नहीं की जाती थ, अब लोग मृतकों को जलाने लगे।
- पहले पारिवारिक ममत्व नहीं था, अब वीएच विकसित हो गया, इसलिए मृत्यु के बाद लोग रोने भी लगे।
- पहले मृत्यु के बाद स्मृति में वेदी और स्तूप बनाने की प्रथा नहीं थी, अब वीएच प्रथा भी चल पड़ी।
- नाग-पूजा और अन्य कई उत्सव भी मनाये जाने लगे।
इस प्रकार ऋषभ के समय से समाज में कुछ परम्पराओं ने जन्म ले लिया।
पुत्रों को राज्य-विभाजन एवं अभिनिष्क्रमण (Division of empire among the sons and renunciation) :-
भगवान ऋषभ का जीवन चौरासी लाख वर्ष पूर्व का था। उसमें तिरासी लाख वर्ष पूर्व का समय उन्होने सामाजिक और राजनैतिक मूल्यों की स्थापना में बिताया। कर्तव्य बुद्धि से लोक-व्यवस्था का प्रवर्तन कर लम्बे समय तक वे राजा रहे। ऋषभ ने अब धार-नीति का प्रवर्तन करने का निश्चय किया। उस समय पांचवे देवलोक के लोकान्तिक देव ऋषभ के पास पहुंचे और वंदन कर निवेदन किया- भगवान! लोक व्यवहार की संपूर्ण व्यवस्था आपने कर ली है, अब आप धर्म तीर्थ का प्रवर्तन कीजिए।
भगवान ने दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक किया और उन्हे अयोध्या का राज्य प्रदान किया। निन्यानवें पुत्रों को अन्य क्षेत्रों को सार-संभाल का दायित्व सौंपा। सब प्रकार से पूर्णतः निवृत्त हो वे वर्षीदान देने लगे। वर्षीदान से सब लोगों को पता चल गया कि अब ऋषभ घर छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं। अनेक व्यक्ति उनका अनुगमन करने के लिए तैयार हो गए। चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन ऋषभ ने चार हजार व्यक्तियों के साथ अभिनिष्क्रमण किया। अभिनिष्क्रमण देखने हेतु दूर-दूर से लोग पहुँच रहे थे। चौसठ इन्द्रों के साथ हजारों देव भी उत्सव में सम्मिलित हुए। शहर से बाहर उपवन में पहुँचकर ऋषभ ने अपने वस्त्र और आभूषण उतार दिये।
अब ऋषभ ने केश लुंचन प्रारम्भ किया, पहले आगे के केशों का लुंचन किया फिर दायें-बायें भाग के केशों का लुंचन किया एवं उसके बाद पीछे के केशों का लुंचन किया। अन्त में मध्य भाग में रहे केशों का लुंचन प्रारम्भ किया तो इन्द्र ने प्रार्थना की- प्रभो ! इन्हें रहने दीजिये, बहुत सुंदर लगते हैं। इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान ने उन केशों को वैसे ही छोड़ दिया। भगवान का अनुकरण अन्य लोगों ने भी किया और शायद चोटी की परम्परा वहीं से चल पड़ी। कुछ आचार्य ऋषभ का पंचमुष्टि लुंचन भी मानते हैं।
ऋषभ का निर्वाण (Emancipation of Lord Rishabha) :-
भगवान ऋषभ ने जब दीक्षा ली तो चार हजार शिष्य साथ थे किन्तु भगवान की मौन व कठोर साधना को देख शिष्य निराश हो गए। साधुत्व को छोड़ वन में चले गए। भगवान ऋषभ ने एक हजार वर्ष तक कठोर साधना की। पुरिमताल के उद्यान में वटवृक्ष के नीचे तेले की तपस्या में फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन उन्होने केवलज्ञान प्राप्त किया। केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उनका धार्मिक परिवार पुनः बढ़ने लगा। उनके परिवार में 84 हजार श्रमण थे। उनकी व्यवस्था के लिए भगवान ने 84 गण बनाये। प्रत्येक गण का एक मुखिया स्थापित किया, जिसे गणधर कहा जाने लगा। भगवान के प्रथम गणधर ऋषभसेन थे।
एक लाख वर्ष पूर्व तक संयम की आराधना करते हुए हजारों ग्राम-नगरों में धर्म का प्रचार किया। फिर अपने जीवन का अवसान निकट समझकर वे दस हजार शिष्यों के साथ अष्टापद पर्वत (कैलाश) पर चढ़े। अवसर्पिणी के तीसरे आरे के साढ़े आठ माह शेष रहने पर छह दिन की तपस्या में अयोगी अवस्था को प्राप्त किया और शेष अघाति कर्मों का क्षय कर माघ कृष्णा त्रयोदशी को परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।
उनका समग्र जीवन 84 लाख वर्ष पूर्व का था। इस प्रकार भगवान ऋषभ का जीवन एक समग्र जीवन था। उन्होने अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष- इन चारों पुरुषर्थों का प्रतिपादन किया। सामाजिक और धार्मिक दोनों परम्पराओं का शुभारम्भ किया।
भगवान ऋषभ के पश्चात (After Lord Rishabha) :-
काल का चौथा चरण दुषम-सुषमा प्रारम्भ हुआ। वह 42 हजार वर्ष कम एक कोटि-कोटि सागर का था। इस अवधि में कर्मक्षेत्र का पूर्ण विकास हुआ। धर्म बहुत फला-फूला। इस युग में जैन धर्म के 23 तीर्थंकर हुए। 24 तीर्थंकरों में 21 तीर्थंकरों की गणना प्रागैतिहासिक काल में मानी जाती है। कुछ विद्वान 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में स्वीकार करते हैं। 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और 24वें तीर्थंकर महावीर ऐतिहासिक पुरुष के रूप में ही जाने जाते हैं।