भूमि संसाधन: उपयोग का प्रारूप एवं वर्गीकरण [Land Resources UPSC NCERT Notes]


भूमि संसाधन: उपयोग का प्रारूप एवं वर्गीकरण [Land Resources UPSC NCERT Notes]
भूमि संसाधन: उपयोग का प्रारूप एवं वर्गीकरण (Image by Racool_studio on Freepik)

भूमि संसाधन –

समस्त प्राकृतिक संसाधनों में भूमि सबसे मुख्य और आधारभूत संसाधन है। अन्य समस्त संसाधनों का जन्म, विकास और उपयोग भूमि पर ही होता है। भूमि संसाधन का मतलब पृथ्वी से है जिस पर समस्त जीव निवास करते हैं और जीवन की समस्त आवश्यकताएँ जैसे-रोटी, कपड़ा और मकान पूरी करते हैं। भारत का समस्त भौगोलिक क्षेत्रफल 32.8 करोड़ हेक्टेयर है। देश की कुल भूमि के उपयोग सम्बन्धी आँकड़ों के अनुसार 92.7% भूमि के उपयोग की जानकारी उपलब्ध है। आज से लगभग 8000 वर्ष पूर्व सम्भवत: 30% भू-भाग पर कृषि कार्य होता था जो स्वतन्त्रता के पश्चात् बढ़कर 36% तथा बाद में 43.26% हो गया। इसी प्रकार वनभूमि भी स्थिर नहीं रही। 1950- 51 ई० में 19.83%, 1983-84 ई० में 24.58%, 2011-12 ई० में घटकर 21.05% ही रह गयी। भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2015 के अनुसार भारत में कुल वनावरण 70.17 मिलियन हेक्टेयर (701,673 वर्ग किमी) है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.34 प्रतिशत है। इसी तरह से भूमि के उपयोग के प्रारूप में समय-समय पर बदलाव आते रहे। इस प्रकार वर्तमान समय में कुल क्षेत्र 43.26% भाग पर कृषि कार्य हो रहा है। यह आश्चर्यजनक सत्य है कि किसी भी देश में इतना अधिक कृषि क्षेत्रफल नहीं है जितना भारत में है। चीन संसार का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है परन्तु इसके केवल 11% भू-भाग पर ही खेती होती है जो जनसंख्या के हिसाब से अत्यन्त कम है।

कृषियोग्य भूमि – भारत में कृषि भूमि अन्य देशों की तुलना में ज्यादा है। यह अमेरिका से 21/- गुना व रूस से 4 गुना ज्यादा है। इतनी ज्यादा कृषि भूमि होते हुए भी भारत में खाद्यान्न समस्या बनी रहती है।

चरागाह भूमि – भारत में चरागाह भूमि कनाडा व जापान की अपेक्षा 2 गुनी है परन्तु अमेरिका व रूस के मुकाबले 1/7 व 1/4 कम है परन्तु फिर भी भारत में पशुधन ज्यादा है, इसीलिए भारत में पशुओं की दशा अत्यन्त दयनीय है।

वन भूमि – भारत में वन भूमि अन्य देशों की अपेक्षा कम है। भारत में वनों को काटकर कृषि योग्य भूमि, आवास आदि बनाये जा रहे हैं जिससे भारत में वन भूमि निरन्तर कम हो रही है। 4 दिसम्बर, 2015 को जारी 14वीं वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कुल भू-भाग के 21.34% पर वन थे।

बंजर भूमि (अनुपयोगी भूमि) – अन्य देशों की तुलना में भारत में बंजर भूमि का विस्तार अत्यन्त कम है। भारत में जनसंख्या की अधिकता के कारण बंजर भूमि का उपयोग लगातार हो रहा है जिससे भारत में बंजर भूमि निरन्तर कम हो रही है। केवल जापान में भी कम बंजर भूमि पायी जाती है।

भारत में भूमि उपयोग का प्रारूप एवं वर्गीकरण –

भारत में भूमि उपयोग के नये आँकड़ों के अनुसार शुद्ध बोये गये क्षेत्रफल में कम वृद्धि हुई। पिछले 3 दशकों में 2.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि शुद्ध बोये गये क्षेत्र में शामिल की गयी। इसका क्षेत्रफल 47.7% है। फलों की खेती 1.3% क्षेत्रफल पर परती भूमि का क्षेत्रफल 4.3% है। इस प्रकार भारत के 43.26% भू-भाग पर ही कृषि कार्य होता है। परती भूमि कम उर्वर होती है इसलिए इसको उर्वरता की वृद्धि के लिए खाली छोड़ दिया जाता है। बाद में इसका उपयोग कम्पोस्ट खाद डालकर किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों में यह 7% से घटकर केवल 5% ही रह गयी है। इसलिए परती भूमि का ज्यादा इस्तेमाल करने के लिए उसमें कम्पोस्ट खाद व रासायनिक खाद का प्रयोग किया जा रहा है। परती भूमि की नमी को बनाये रखने के लिए वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया जा रहा है। यहाँ कृषि योग्य बेकार भूमि 77.67% पर स्थिर है। भारत में स्थायी चरागाहों के अन्तर्गत बहुत कम भूमि है। यहाँ पशुओं को भूसे, छिलके और सूखे पत्तों पर पाला जाता है। वनों के नीचे की भूमि पर चरागाह बनाया जाता है। भारत में भूमि उपयोग का प्रारूप सन्तोषजनक नहीं है। इसके निम्न कारण हैं-

  1. वनों के अन्तर्गत लगी भूमि – भारत में वनों के अन्तर्गत फैली भूमि बहुत कम है। अर्थव्यवस्था के अनुसार 33% भू-भाग पर वनों का विस्तार होना चाहिए परन्तु भारत में केवल 21.34% भू-भाग पर वनों का विस्तार है। 14वीं वन स्थिति रिपोर्ट-2015 के अनुसार देश में कुल वनावरण एवं वृक्षावरण 79.42 मिलियन हेक्टेयर (794,245 वर्ग किमी) है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 24.16 प्रतिशत है। भारतीय वन सिमटकर दुर्गम पहाड़ी और पठारी भाग तक ही सीमित हैं। इसलिए वन क्षेत्र में वृद्धि करना अत्यन्त जरूरी है। राज्यों में क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक वन क्रमशः मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा तथा अरूणाचल प्रदेश में है। सर्वाधिक वनावरण प्रतिशतता वाले 5 राज्य/संघीय क्रमश: मिजोरम (88.93%), लक्षद्वीप (84.56%), अण्डमान निकोबार द्वीप समूह (81.84%), अरुणाचल प्रदेश (80.30) तथा नगालैण्ड (78.21%) हैं।
  1. चरागाहों के अन्तर्गत लगी भूमि – भारत के केवल 4% भाग पर ही चरागाह है जो बहुत ही कम है। इसका मुख्य कारण जनसंख्या का दबाव है। भारत अधिक पशुवाला देश है। पशुओं का पालन-पोषण चारे से ही होता है जो बहुत कम है। वनों के नीचे उगनेवाले चारे से कुछ पशुओं का पालन होता है। भारत में पशुओं की दशा सुधारने के लिए चरागाह का विस्तार करना चाहिए।
  1. बंजर भूमि की वृद्धि – बंजर भूमि का उपयोग करना अत्यन्त कठिन काम है। इसके अन्तर्गत मरुस्थल और शुष्क चट्टानी भाग शामिल हैं। पहाड़ी और ऊबड़-खाबड़ भाग भी इसके अन्तर्गत आते हैं। अनियन्त्रित चराई व वनों की कटाई के कारण बंजर भूमि का क्षेत्रफल 24% है इसलिए वैज्ञानिक विधि का उपयोग करके इसमें कमी करना चाहिए।
  1. भूक्षरण या मृदा अपरदन – मृदा अपरदन का अर्थ- जल तथा वायु के प्रभाव से मृदा की ऊपरी परत का बह जाना या उड़ जाना मृदा अपरदन कहलाता है। बहते जल और पवनों की अपरदनात्मक प्रक्रियायें तथा मृदा निर्माणकारी प्रक्रियायें साथ-साथ घटित होती रहती हैं। सामान्यतः इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण उपजाऊ भाग बहकर चला जाता है। एक बार भूमि की ऊपरी परत नष्ट हो जाने पर वहाँ किसी प्रकार की वनस्पति पैदा होना असम्भव हो जाता है। इसी कारण मिट्टी के अपरदन को रेंगती हुई मृत्यु कहा जाता है।
  1. मृदा अपरदन और संरक्षण – मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहा जाता है। इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे-
    • जल द्वारा अपरदन
    • पवन द्वारा अपरदन
    • हल की जुताई द्वारा
    • मृदा अपरदन रोकने के उपाय – मृदा अपरदन रोकने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं-
      • वनों की कटाई प्रतिबन्धित हो तथा वृक्षारोपण पर विशेष बल दिये जाने की आवश्यकता है।
      • ढालू जगह पर मेंड़बन्दी द्वारा मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।
      • निर्माण एवं खनन आदि कार्य मृदा अपरदन से बचाव की दृष्टि से होने चाहिए। मृदा की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिए मृदा संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है।
    • मृदा अपरदन प्रभाव- मृदा अपरदन के मुख्य प्रभाव निम्नवत हैं-
      • मृदा की गुणवत्ता में ह्रास एवं उर्वरता में कमी होती है, जिसके कारण कृषि उत्पादन में कमी तथा खाद्यान्न संकट मे बढ़ोत्तरी होती है।
      • मृदा अपरदन से मृदा बंजर भूमि में बदल जाती है।
      • रासायनिक उर्वरकों एवं जैवनाशी रसायनों के कारण सम्पूर्ण पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा होता है एवं विषाक्तता से मृत्यु हो जाती है।

भारत में संसाधन के रूप में मिट्टी का उपयोग –

प्राकृतिक संसाधन के रूप में मिट्टी मानव के लिए अत्यन्त उपयोगी और बहुमूल्य संसाधन है। विश्व की समस्त सभ्यता का विकास उपजाऊ मिट्टी वाले नदी घाटी के क्षेत्र में हुआ है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में मिट्टी संसाधन का उपयोग निम्न कार्यों में करते हैं-

  1. भारत में कृषि कार्य के लिए मिट्टी का सबसे अधिक उपयोग होता है। यहाँ की जलोढ़ और उपजाऊ मिट्टी में चावल, गेहूँ, जूट और गन्ने की खेती होती है। प्रायद्वीप के पठारी भाग की अनउपजाऊ मिट्टी में मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, दलहन और तिलहन की खेती होती है। नगरों के निकट उपजाऊ मिट्टी पर सब्जी और चारे की खेती की जाती है। काली मिट्टी में कपास की खेती होती है। लाल व पीली मिट्टी में मोटे अनाज, मूँगफली, तम्बाकू, ज्वार व बाजरे की खेती की जाती है। पर्वतीय मिट्टी पर चाय, कहवा और रबड़ की खेती होती है। लैटेराइट मिट्टी में सिंचाई व खाद का प्रयोग करके गत्रा, चावल, चारा व रबी की फसलें पैदा की जाती हैं।
  2. भारत में मकान में लगनेवाली ईंटें भी मिट्टी से ही बनती है। भारत के ग्रामीण भागों में मिट्टी के घर बनाये जाते हैं।
  3. भारत में मिट्टी के वर्तन भी बनाये जाते हैं। मिट्टी से ही घड़े, प्याले, गमले, कुल्हड़, खपरैल और उपयोगी चीजें बनती हैं। प्राचीन समय में मिट्टी के बर्तनों का ही उपयोग होता था।

मिट्टी संसाधन की निरन्तर घटती उपयोगिता भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए चिन्ताजनक है। इसलिए मिट्टी की सुरक्षा व संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए। मिट्टी की उपयोगिता बनाये रखने के लिए निम्न उपाय करने चाहिए-

  1. वन भूमि का विस्तार करके मृदा अपरदन पर नियन्त्रण करना चाहिए। वन भूमि के लिए छतरी का कार्य करता है। वनों से भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है।
  2. भारत सरकार पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा भूमि का सुधार और संरक्षण कर रही है।
  3. मिट्टी की सुरक्षा के लिए फसलों को हेर-फेर करके बोना चाहिए।
  4. खेतों की मेंड़बन्दी करनी चाहिए।
  5. बाढ़ के जलों को रोकने के लिए तालाब व जलाशयों का निर्माण करना चाहिए।
  6. बेकार भूमि पर चरागाह का विकास करके मिट्टी की उर्वरा-शक्ति को बढ़ाना चाहिए।