जैन धर्म (Jainism) :-
छठी शताब्दी ईसा पूर्व के धर्म सुधार आन्दोलन में जैन धर्म का विशिष्ट स्थान है। जिसके संस्थापक महावीर स्वामी थे। जैन श्रुतियों के अनुसार, जैन धर्म की उत्पत्ति एवं विकास के लिए 24 तीर्थाकर उत्तरदायी थे। इनमें से पहले बाईस की ऐतिहासिकता संदिग्ध हैं। परन्तु अन्तिम दो तीर्थाकर पार्श्वनाथ और महावीर की ऐतिहासिकता को बौद्ध ग्रन्थों ने प्रमाणित किया है। जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों का विश्वास है महावीर स्वामी 24 वें तथा अन्तिम तीर्थकर थे। किन्तु कुछ जैन अनुयायी प्रथम तीर्थकर ऋष्भदेव को जैन धर्म का संस्थापक मानते है जो भी हो इतना सत्य तो अवश्य हैं कि जैन धर्म के 24 वें तीर्थकरों में महावीर स्वामी के काल में जैन धर्म का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। ऋष्भदेव का नाम ऋग्वेद में भी आता है। महावीर स्वामी 24 वें तथा अन्तिम तीर्थकर थे 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ थे।
पार्श्वनाथ :-
जैन श्रुतियों के अनुसार 23 वें तीर्थाकर पार्श्वनाथ बनारस के राजा अश्वसेन एवं रानी वामा के पुत्र थे। उनका काल महावीर स्वामी से 250 वर्ष पहले माना जाता हैं। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में सिंहासन का परित्याग कर दिया और सन्यासी हो गए। 83 दिन की घोर तपस्या के बाद इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। जैन श्रुतिओं के अनुसार इन्होंने 70 वर्ष तक धर्म का प्रचार किया। पार्श्वनाथ ‘पदार्थ’ की अन्नतता में विश्वास करते थे। इनके अनुयायियों को निर्ग्रथ कहा जाता था। पार्श्वनाथ के समय में निर्ग्रथ संप्रदाय सुसंगठित था। निर्ग्रथों के चार गणों (संघों) मे से प्रत्येक गण एक गणधर के अंतर्गत था । पार्श्वनाथ भी वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड तथा देववाद के कुट आलोचक थे। इन्होंने जाति प्रथा पर भी प्रहार किया। प्रत्येक व्यक्ति को ये मोक्ष का अधिकारी मानते थे चाहे वह किसी जाति का हो नारियों को भी इन्होने अपने धर्म में प्रवेश दिया था। उनकी मूल शिक्षा थी प्राणियों की हिंसा न करना, सदा सत्य बोलना, चोरी न करना तथा संपति न रखना। महावीर स्वामी के माता-पिता पार्श्वनाथ के अनुयायी थे।
महावीर स्वामी :-
महावीर स्वामी का मूल नाम वर्धमान था। इनका जन्म वैशाली के पास कुड़ीग्राम में जातक नामक कुल के राजा सिद्धार्थ के घर 540 ई०पू० हुआ। इनकी माता त्रीशला लिच्छवी राजा गणराज्य के मुखिया चेटक की पुत्री थी। महावीर का बचपन एक राजकुमार का रहा तथा हर प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण था। इनकी पत्नी का नाम यशोदा तथा पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था। 30 वर्ष की आयु तक इनके माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी एवं महावीर स्वामी गृहस्थ जीवन से ऊब चुके थे। फलतः इन्होंने परिवार के सभी सदस्यों के समक्ष घर त्यागने का प्रस्ताव रखा जो अंततः स्वीकार कर लिया गया तथा इन्होंने अपने बड़े भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा लेकर घर त्याग दिया। पहले उन्होंने एक वस्त्र धारण किया और फिर उसका भी तेरह मास के उपरान्त परित्याग कर दिया तथा बाद में ‘नग्न भिक्षु’ की भांति भ्रमण करने लगे। घोर तपस्या करते हुए 12 वर्ष तक एक सन्यासी का जीवन व्यतीत किया। लोगों ने उन पर पत्थर फेंके तथा कुते छोड़े, लेकिन महावीर स्वामी अपने तप मार्ग पर अटल रहे। अपनी तपस्या के 13वें वर्ष में, 42 वर्ष की आयु में आधुनिक बिहार में ऋजुपालिका (केवालिन) नदी के तट पर जम्भिभय ग्राम (जृम्भिका ग्राम) में उन्हें ज्ञान केवलिन की प्राप्ति हुई। बाद में उनकी प्रसिद्धि “महावीर (सर्वोच्च यौद्धा )” या “जिन” (विजयी) के नामों से हुई। उनको “निग्रंथ” (बन्धनों से मुक्त ) के नाम से भी जाना जाता था।
अगले 30 वर्षों तक वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहे और कोसल, मगध तथा अन्य पूर्वी क्षेत्रों में अपने विचारों का प्रचार किया। वह एक वर्ष में आठ माह विचरन करते थे और वर्षा ऋतु के चार माह पूर्वी भारत के किसी प्रसिद्ध नगर में व्यतीत करते। इनकी पत्नी यशोदा, पुत्री प्रियदर्शनी, दामाद जमाली के अतिरिक्त इनके शिष्यों में वैशाली का शासक चेटक, अवन्ति का शाशक प्रद्योत, मगध नरेश बिम्बिसार, कौशाबी व वैशाली के मतल शासक अपने परिवारों सहित थे। इस धर्म प्रचार के चलते हुए 72 वर्ष की अवस्था में पावापुरी (नालन्दा जिला) में 486 ई०पू० में इन्हें निर्वाण की प्राप्त हुई।
जैनधर्म के सिद्धान्त (Principles of Jainism) :-
जैनधर्म में संसार दुखः मूलक माना गया है। मनुष्य जरा (वृद्धावस्था) तथा मत्यु से ग्रस्त है। व्यक्ति को सांसारिक जीवन की तृष्णाएं घेरे रहती है। संपति संचय के साथ ही मनुष्य की कामना रूपी पिपासा बढ़ती जाती है। जिसका कोई अन्त नही है। काम-भोग विष के समान है जो अततः दुःख को ही उत्पन्न करते है। संसार त्याग तथा सन्यास ही व्यक्ति को सच्चे सुख की ओर ले जा सकता है। जैन धर्म के अनुसार सृष्टिकर्ता ईश्वार नही हैं। किन्तु संसार को एक वास्तविक तथ्य माना गया है जो अनादि काल से विद्यमान है। जैन धर्म में भी सांसारिक तृष्णा-बंधन से मुक्ति को ‘निर्वान’ कहा गया है। महावीर स्वामी द्वारा जो बातें कही गई है वे किसी गूढ़ दर्शन को इंगित नही करती बल्कि आम व्यक्ति उस चिन्तन को बड़ी सरलता से समझा सकता था। इनमें एक अन्य बात यह भी हैं कि उनका यह सारा चिन्तन-दर्शन उनका मौलिक नही है बल्कि अच्छे विचारों का संयोजन है जो उस समय की समाज में व्याप्त थे। महावीर के उपदेश समाज में फैली उन बुराईयों का विरोध कर रहे थे जिनके कारण समाज का विकास अवरूद्ध हो रहा था। इनका वर्णन इस प्रकार है-
1. त्रिरत्न :-
महावीर स्वामी ने मानव जीवन में अठारह पायों का वर्णन किया है :-
- झूठ
- चोरी
- मैथून
- क्रोध
- हिंसा
- द्वतय मूर्छा
- लोभ
- माया
- मान
- मोह
- कलह
- द्वेष
- दोषारोपण
- चुगली
- निंदा
- असंयम
- माथा मृशा
- मिथ्या दर्शन
रूपी शतय :-
निर्वाण की प्राप्ति के लिए इनसे बचना अनिवार्य है। इनसे बचने के लिए निम्नलिखित तीन आदर्श वाक्यों को जीवन में अपनाना अनिवार्य है। यही आदर्श वाक्य त्रिरत्न के नाम से जाने जाते है।
- सत्य विश्वास- मनुष्य का अपने ऊपर तथा जैन मत के सभी तीर्थकरों पर विश्वास होना चाहिए।
- सत्य ज्ञान- मनुष्य का ज्ञान मिथ्या पर आधारित न होकर सत्य की खोज की ओर होना चाहिए।
- सत्य कर्म- मनुष्य का कर्म महाव्रतों पर आधारित होना चाहिए, उसे ऐसा कुछ नही करना चाहिए जो वह अपने लिए नही चाहता ।
2. पांच महाव्रत या अणुवृत :-
महावीर स्वामी ने गृहस्थ के जीवन का पवित्र एवं सुखमय बनाने के लिए पांच महाव्रत बताएं हैं –
- अहिंसा :- यह जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसका संबंध मन, वचन व कर्म तीनों से है। जैन धर्म के अनुसार सभी जीवन समान है। किसी जीव को मारने या हानि पहुंचाने का विचार मन मे उत्पन्न होना भी हिंसा है। किसी को छेड़ना, चिढ़ाना, कठोर शब्द बोलना, मारना या पीड़ा देना भी हिंसा का ही रूप है। पैदल चलने या भोजन करने से भी किसी जीव की हत्या नहीं होनी चाहिए।
- अमृषा (सत्य वचन ) :- मनुष्य के वचन सदा सत्य एवं मधुर होने चाहिए। सत्य बोलने से आत्मा शुद्ध होती है। क्रोध व मोह की स्थिति में मनुष्य को मौन रहना चाहिए।
- अस्तेय (चोरी न करना) :- चोरी करना पाप है तथा असत्य भी बिना किसी की अनुमति के किसी की वस्तुओं का संग्रह अनुचित है। यह संग्रह मोह-माया को बढ़ाता है। यह दूसरे अर्थों में हिंसा भी है।
- अपरिग्रह (संग्रह न करना):- जैन धर्म भौतिक वस्तुओं का त्याग व सम्पति का संग्रह न करने पर बल देता है।
- बह्मचार्य:- मनुष्य को भोग वासना से दूर रहकर संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए।
3. कठोर तपस्या :-
महावीर स्वामी ने तपस्या के मार्ग को महत्वपूर्ण बताया है। उनके अनुसार तपस्या से शरीर को जितना अधिक कष्ट होगा, लक्ष्य को प्राप्त करना उतना ही आसान होगा। उनके अनुसार कष्ट व समस्याएं मनुष्य को परिपक्व बनाती है। व्यक्ति जितने अधिक कष्ट उठाएगा, उनका जीवन उतना ही अधिक सन्तुलित होगा।
4. तीर्थकरों में विश्वास :-
जैन अनुयायी 24 वें तीर्थकरों में अटूट विश्वास रखते थे। वे इन्हें सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ मानते थे। तीर्थकरों में महावीर स्वामी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था ।
5. आत्मा, मोक्ष व कर्म सिद्धान्त :-
ब्रहामण धर्म (वैदिक धर्म) की भांति महावीर स्वामी भी आत्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते थे। यह छोटी अथवा बड़ी नहीं होती तथा इसका अस्तित्व शरीर के साथ समाप्त नहीं हो जाता। उनके चिन्तन में कर्म सिद्धान्त को भी महत्व दिया गया है। जिसके अनुसार कर्म ही मनुष्य के भविष्य को निर्धारित करते है तथा वर्तमान के आधार पर ही अगले जन्म का निर्धारण होता है।
6. ईश्वर के बारे में :-
महावीर स्वामी ने अपने चिन्तन में ईश्वर के अस्तित्व को नकारा है, वे कहते है कि संसार में ऐसा कोई नियन्त्रक नही हैं जो इस पूरी व्यवस्था की देखभाल करता हो। इसलिए ईश्वर व अन्य किसी देवी-देवताओं की उपासना का कोई औचित्य नहीं है। बल्कि मनुष्य के कर्म व आत्मा ही पूर्ण शक्ति रखती है।
7. ब्राहमणों की सर्वोच्चता का विरोध :-
महावीर स्वामी ने समाज के सभी वर्गों को समान बताया है। उनके अनुसार ब्राहमण भी समाज के अन्य लोगों की तरह सामान्य व्यक्ति थे। वे देव पुरूष नही है। उन्होंने ब्राहमणों की नीति का विरोध किया।
8. वेदो व संस्कृति के बारे में :-
जैन धर्म ने इस बात को पूरी तरह से मिथ्या बताया है कि वेद मानवकृत नही हैं। उन्होंने वेदों की पवित्रता का भी विरोध किया। महावीर स्वामी ने इन्हें सामान्य पुस्तकों के समान बताते हुए स्पष्ट किया है कि धर्म विशेष के लोगों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु इनकी यह छवि बना दी। उन्होंने संस्कृत को भी पवित्र भाषा स्वीकार नही किया। उनके अनुसार यह मुट्ठी भर लोगों की भाषा है जो उस समय तक सम्मान नही पा सकती जब तक सर्व साधारण इसको अच्छी तरह समझ न लें।
9. यज्ञ, बलि व अन्धविश्वासों का विरोध :-
जैन धर्म में इन सभी को महत्वहीन बताया गया है। समाज में प्रचलित इस प्रकार की सभी मान्यताओं का विरोध करते हुए उसने लोगों को सरल जीवन जीने के लिए कहा, क्योंकि खर्चीले यज्ञ, बलि व कर्मकाण्ड मनुष्य की आर्थिक स्थिति को न केवल खराब करते है, बल्कि समाज में कुछ लोगों के व्यवसाय का साधन भी बनते है।
10. ज्ञान सिद्धान्त :-
जैन धर्म में पांच प्रकार के ज्ञान के महत्व पर बल दिया गया था। ये ज्ञान सिद्धान्त थे मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञा, मन पर्याय ज्ञान एवं कैवलय ज्ञान। ज्ञान के प्रति जैन धर्म का दृष्टिकोण स्यादवाद का है। स्यादवाद को अनेकान्तवाद भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान को एंकागिक दृष्टि से न अपनाकर उसके सभी विविध पक्षों को देखना चाहिए।
जैन धर्म का विस्तार (The Growth of Jainism) :-
महावीर स्वामी ने अपने संघो को ग्यारह गणों में बांटा तथा पावा में चर्तुविध संघ की स्थापना की। महावीर के ग्यारह शिष्य थे जिनको गन्धर्व सम्प्रदायों का प्रमुख कहा जाता था। आर्य सुधर्मा अकेला ऐसा गन्धर्व था जो महावीर की मत्यु के पश्चात भी जीवित रहा और जो जैन धर्म का प्रथम ‘थेरा’ या मुख्य उपदेशक हुआ। राजा नंद के काल में जैन धर्म के संचालन का कार्य दो ‘थेरो’ (आचार्यो) द्वारा किया जाता था:-
- सम्भूताविजय और
- भद्रबाहू
धीरे-धीरे महावीर के समर्थक सारे देश में फैल गए। जैन धर्म को शाही संरक्षण की कृपा भी रही जैन अनुश्रुतियों के अनुसार, अजातशत्रु का उत्तराधिकारी उदयन, जैन धर्म का अनुयायी था। सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय जैन भिक्षुकों को सिन्धु नदी के किनारे भी पाया गया था। चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्म का अनुयायी था और उसने भद्रबाहू के साथ दक्षिण की और प्रावास किया तथा जैन धर्म का प्रचार किया। पहली सदी ई० में मथुरा एवं उज्जैन जैन धर्म के प्रधान केन्द्र बन गए।
बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म की सफलता शानदार थी। इसकी सफलता का एक मुख्य कारण था कि महावीर एवं उसके अनुयायियों ने संस्कृत के स्थान पर लोकप्रिय भाषा (प्राकृत धार्मिक साहित्य को अर्ध-मगधी में लिखा गया) का प्रयोग किया। जनता के लिए सरल एवं घरेलू निर्देशों ने लोगों को आकर्षित किया।
जैन सभायें :-
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन की समाप्ति के समीप दक्षिण बिहार में भयंकर अकाल पड़ा। यह बाहरह वर्षो तक चला। भद्रबाहू और उनके शिष्यों ने कर्नाटक राज्य में श्रावण बेल गोला की और विस्थापन किया। अन्य जैन मुनि स्थूलबाहुभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रह गए। उन्होंने पाटलीपुत्र में 300 ई०पू० के आस-पास सभा का आयोजन किया। इस सभा में महावीर स्वामी की पवित्र शिक्षाओं को 12 अंगों में विभाजित किया गया।
दूसरी जैन सभा का आयोजन 512 ई० में गुजरात में वल्लभी नामक स्थान पर देवर्धिमणी क्षमा श्रमण की अध्यक्षता में किया गया। इसका मुख्य उदेश्य धार्मिक शास्त्रों को एकत्र एवं उनको पुनः क्रम से संकलित करना था । किन्तु प्रथम सभा के संकलित बारहवां अंग इस समय खो गया था। शेष बचे हुए अंगो की अर्धमगधी में लिखा गया।
सम्प्रदाय :-
जैन धर्म में फूट पड़ने का समय लगभग 300 ई०पू० माना जाता है। महावीर के समय में ही एक वस्त्र धारण करने को लेकर मतभेद स्पष्ट होने लगे थे। श्रावण बैल गोल से मगध वापस लौटने के बाद भद्रबाहु के अनुयायियों ने इस निर्णय को मानने से इन्कार कर दिया । मगध में ठहरने वालों तथा प्रस्थान करने वालों में मतभेद बढते ही गए। मगध में ठहरने वाले सफेद वस्त्रों को धारण करने के अभ्यस्त हो चुके थे और महावीर की शिक्षाओं से दूर होने लगे जबकि पहले वाले नग्न अवस्था में रहते और कठोरता से महवीर की शिक्षाओं का अनुसरण करते जैन धर्म का प्रथम विभाजन दिगम्बर (नग्न रहने वालों) और श्वेताम्बर (सफेद वस्त्र धारण करने वालो) के बीच हुआ। अगली शताब्दियों में पुनः दोनों सम्प्रदायों में कई विभाजन हुए। इनमें महत्वपूर्ण वह सम्प्रदाय था जिसने मूर्ति-पूजा को त्याग दिया और ग्रंथो की पूजा करने लगे। वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में “तेरापन्थी” कहलाये और दिगम्बर सम्प्रदाय में “समवास” कहलाये। यह सम्प्रदाय छठीं ईसवीं में अस्तित्व में आया ।
जैन धर्म सीमित क्यों रहा? (Why was Jainism Restricted? :-
जैन धर्म में तत्कालीन समाज को प्रभावित करने की अच्छी बातें थी जिसके कारण इसका विकास हुआ। इसके साथ-साथ कुछ मौलिक दोष भी थे जो इसके अधिक विकास में बाधक रहें, समय के साथ-साथ इसमें कुछ दोष भी आ गए। जिसके कारण यह पतन की और अग्रसर हो गया तथा समाज के सीमित से हिस्से में अपनी जगह बना पाया। जबकि इसका समकालिन धर्म बौद्ध धर्म विश्व के अधिकतर हिस्सों में अपनी जगह बना पाया। इस बारे में समझने के लिए कि यह धर्म सीमित क्यों रहा कुछ कारणों को जानना अनिवार्य है।
जैन धर्म का सबसे प्रमुख सिद्धान्त अहिंसा का सिद्धान्त है जो कि अति कठोर है। यदि इसका पूरी तरह से पालन किया जाता तो मनुष्य द्वारा आजीविका कमाना भी कठिन था। अतः यह सिद्धान्त सभी के लिए व्यावहारिक नहीं था। कठोर तपस्या का सिद्धान्त भी अहिंसा के सिद्धान्त के भान्ति जटिल है। शरीर को अधिकाधिक कष्ट देकर अनुभव प्राप्त करना सामान्य जीवन जीने वाले लोगो के लिए काफी कठिन था। जैन धर्म की कार्य-प्रणाली व चिन्तन आरम्भ में ठीक थी, लेकिन बाद में यह अपने को ब्रहामण धर्म से अलग नहीं कर पाया तो लोगों ने अपने पुराने धर्म की और लौटना उचित समझा।
जैन धर्म के सिद्धान्त में जन सामान्य को कहीं-कहीं विरोधाभ्यास भी नजर आया। जिसको समझना उनके लिए आसान न था। जैन धर्म कर्म व आत्मा में विश्वास करता है, परन्तु परमात्मा के अस्तित्व को नकारता है। भले ही जैन मत कर्म व आत्मा की व्याख्या अलग ढंग से की गई हो, परन्तु आम व्यक्ति को इसमें साफ तौर पर विरोधाभ्यास दिखाई देता है। प्रारम्भ में जैन धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त था जो कि समय के साथ-साथ कम होता गया और इस धर्म के प्रचार में भी गिरावट आ गई। जैन धर्म का सीमित रहने का एक अति महत्वपूर्ण कारण इसका विभाजन रहा जैन धर्म अपने अन्दर एकता नहीं रख सका। यह दिगम्बर व श्वेताम्बर दो भागों में विभाजित हो गया। इन दोनों मतों ने एक-दूसरे को हीन दिखाने का प्रयास किया जिससे लोगों को इनकी कमजोरियों का भी पता चला। इनकी जीवन-शैली से लोग इस बारे में सोचने लगे, क्योकि दिगम्बर पुरातन पंथी थे व नग्न रहते थे, जबकि श्वेताम्बर समय के साथ बदलना चाहते थे एवं सफेद वस्त्र धारण करते थे। इस तरह से जैन धर्म समय के बहाव में अपने को उतना बेहतर न रख पाया जैसा कि प्रारम्भ में था ।
पार्श्वनाथ तथा महावीर की शिक्षाओं में अंतरः-
पार्श्वनाथ ने अंहिसा, सत्य, अस्तेय तथा ‘बहिद्धादाणओं वेरमणं’ के चतुर्याभ धर्म की व्यवस्था की थी। महावीर ने इसमे पंचम व्रत ब्रहमर्चाय की वृद्धि की। साथ ही पार्श्वनाथ वस्त्र धारण के विरुद्ध नहीं थे किन्तु महावीर स्वामी ने सांसारिकता से पूर्णरूपेण अनासक्ति के लिए नगन्नता को आवश्यक माना। नग्नता से काया कलेश तथा अपरिग्रह को प्रोत्साहन मिलता है। साथ ही लज्जा आदि अनेक सांसारिक मान्यताओं के भ्रम से भिक्षु मुक्त हो जाता है। आगे चलकर वस्त्र धारण करने तथा निर्वस्त्रता के आधार पर जैन धर्म श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया।