जैन साहित्य (Jain literature UPSC NCERT Notes): –


जैन साहित्य :-

धार्मिक आस्था एवं धर्म के प्रचार-प्रसार में उसके मौलिक एवं आधारभूत वाङ्मय का विशिष्ट महत्व होता है। यही कारण है कि विश्व के प्रत्येक धर्म में उनके पवित्र ग्रंथ हैं, जिनमें उस धर्म के मूल सिद्धान्त, आदेश और उपदेश सन्निहित है। वैदिक परम्परा में ‘देव’, बौद्धों में ‘त्रिपिटक’, ईसाइयों में ‘बाइबिल’, पारसियों में ‘अवेस्ता’ और मुस्लिमों में ‘कुरान शरीफ’ ऐसे ही पवित्र ग्रंथ है। इसी क्रम में जैन धर्मावलम्बियों के धर्मग्रन्थों को ‘आगम’ कहा जाता है। जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर वाणी इन्हीं आगम ग्रन्थों में आज भी सुरक्षित है।

आगम : –

आगम का अर्थ है- आप्त पुरुषों का ‘आप्तोदेश: आगमः’, जो यथार्थ को जानता है तथा यथार्थ का उपदेश देता है, वह आप्त होता है, उसकी वाणी आगम है। आगम शब्द ‘आ’ उपसर्ग एवं ‘गम्’ धातु से निर्मित हुआ है। जिसमें ‘आ’ का अर्थ पूर्ण और ‘गम्’ का अर्थ गति या प्राप्ति है। गति अर्थ वाली धातुओं का ज्ञान अर्थ भी होता है अतः वह ग्रंथ या शास्त्र, जिससे पदार्थों का परिपूर्णता के साथ मर्यादित ज्ञान प्राप्त हो, वह आगम है।

आगम की भाषा : –

जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है। आगम साहित्य के अनुसार तीर्थंकर अर्धमागधी भाषा में उपदेश देते थे । यह उस समय की जनभाषा थी। अर्धमागधी प्राकृत भाषा का एक ही रूप है। मगध के आधे भाग में बोली जाने के कारण यह भाषा अर्धमागधी कहलाती है। इसमें मागधी के साथ अन्य अठारह देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं, इसलिए भी इसे अर्धमागधी कहते हैं।

आगम-वाचना : –

जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है। विशेषावश्यक भाष्य में आगम के सूत्र, ग्रंथ, सिद्धान्त, प्रवचन,आज्ञा, उपदेश आदि जैसे अनेक एकार्थक शब्द उपलब्ध होते हैं। जब तक लेखन परम्परा का विकास नहीं हुआ था तब तक श्रवण ज्ञान का एक मुख्य आधार था। शिष्य अपने गुरु के मुख से सुनकर ज्ञान ग्रहण करता था। इस प्रकार श्रुत परम्परा पर आधारित ज्ञान श्रुत ज्ञान कहलाता था । जिसका अर्थ है सुना हुआ। जो गुरु मुख से सुना गया हो वीएच श्रुत है। भगवान महावीर के उपदेशों को उनके शिष्यों ने और उनसे उनके शिष्यों ने श्रवण किया । श्रुत की यही परम्परा लम्बे समय तक चलती रही, जो सम्पूर्ण श्रुत को धरण कर लेते थे, वे श्रुतकेवली कहलाते थे। भगवान महावीर की श्रुत परम्परा में अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु थे।

आचार्य भद्रबाहु के पश्चात श्रुत की धारा क्षीण होने लगी। जब आचार्यों ने देखा कि काल के प्रभाव से स्मृति का ह्रास हो रहा है और स्मृति का ह्रास होने से श्रुत का ह्रास हो रहा है, तब जैनाचार्यों ने एकत्रित होकर जैन श्रुत को व्यवस्थित किया। इस प्रकार श्रुत को व्यवस्थित करने के लिए तीन आगम वाचनाएँ हुई ।

प्रथम वाचना : –

प्रथम वाचना भगवान महावीर के निर्वाण करीब 160 वर्ष बाद पाटलिपुत्र में हुई। उस समय श्रमणसंघ का प्रमुख विहार क्षेत्र मगध था, जिसे हम आज बिहार प्रदेश के नाम जानते है। मगध राज्य में बारह वर्षों तक लगातारदुष्काल पड़ा। जिसमें अनेक श्रुतधर मुनि दिवंगत हो गए, अनेक रुग्ण हो गए। अनेकों की स्मृति क्षीण हो गई। अनेक जैन श्रमण विहार कर अन्यत्र चले गये, फलतः श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न होने लगी।

दुष्काल की समाप्ति पर विच्छिन्न श्रुत को संकलित करने के लिए श्रमणसंघ के आचार्य पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए और आचार्य स्थूलिभद्र के नेतृत्व में यह वाचना संपन्न हुई। उनके निर्देशन में श्रुतधर श्रमणों ने मिलकर ग्यारह अंगों का संकलन किया तथा उसे व्यवस्थित किया। बारहवाँ अंग दृष्टिवाद के ज्ञाता एकमात्र आचार्य भद्रबाहु बचे थे। वे नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना में संलग्न थे। अतः संघ ने स्थूलिभद्र को अनेक साधुओं के साथ दृष्टिवाद की वाचना लेने के लिए भद्रबाहु के पास भेजा। भद्रबाहु ने वाचना देना प्रारम्भ किया। दृष्टिवाद का एक विभाग है- पूर्वगत। उसमें चौदह पूर्व होते हैं। उनका परिणाम बहुत विशाल तथा ज्ञान अत्यन्त दुरुह होता है। बौद्धिक क्षमता एवं धारणात्मक शक्ति की न्यूनता के कारण सं मुनियों का साहस टूट गया। स्थूलिभद्र के अतिरिक्त कोई भी मुनि अध्ययन के लिए नहीं टिक सका। स्थूलिभद्र ने अध्ययन चालू रखा। इस प्रकार स्थूलिभद्र को दस पूर्वों तक का ज्ञान प्राप्त हो चुका था। अभी इनका अध्ययन चल ही रहा था कि इसी बीच एक घटना घाटी। उनकी बहिनें जो साध्वियाँ थी, श्रमण भाई की श्रुताराधना देखने के लिए आई। बहिनों को चमत्कार दिखाने हेतु विद्या-बल से उन्होने सिंह रूप बना लिया। बहिनें सिंह को देखकर भय से ठिठक गई। स्थूलिभद्र तत्क्षण असली रूप में आ गए। आचार्य भद्रबाहु विद्या के द्वारा बाह्य चमत्कार दिखाने के पक्ष में नहीं थे, उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि बहिनों को चमत्कार दिखाने के लिए स्थूलिभद्र ने शक्ति का प्रदर्शन किया है तो वे उन पर रुष्ट हो गये और प्रमाद के प्रायश्चित स्वरूप वाचना देना बन्द कर दिया। स्थूलिभद्र ने क्षमा मांगी। बहुत अनुनय-विनय किया तब उन्होने शेष चार पूर्वों का ज्ञान केवल सूत्र रूप में दिया, अर्थ नहीं बतलाया। स्थूलिभद्र को चतुर्दश पूर्वों का पाठ तो ज्ञात हो गया, पर वे अर्थ दस पूर्वों का ही जान पाये अतः उन्हें सूत्र कि दृष्टि से चतुर्दश पूर्वधर और अर्थ कि दृष्टि से दस पूर्वधर कहा जा सकता है। अर्थ कि दृष्टि से भद्रबाहु के बाद चार पूर्वों का विच्छेद हो गया। प्रकार प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुई।

द्वितीय वाचना : –

आगम संकलन का दूसरा प्रयत्न वीर निर्वाण के 827 और 840 के बीच हुआ। प्रथम आगम वाचना में जो ग्यारह अंग संकलित किये गये, वे गुरु-शिष्य क्रम से शताब्दियों तक चलते रहे। कहा जाता है, फिर बारह वर्षों का भयानक दुर्भिक्ष पड़ा, जिसके कारण अनेक श्रमण काल-कवलित हो गए। दुर्भिक्ष कआ समय बीता, जो श्रमण बच गए थे उन्हें श्रुत के संरक्षण की चिंता हुई। उस समय आचार्य स्कन्दिल युग-प्रधान थे। उनके नेतृत्व में मथुरा में आगम-वाचना का आयोजन हुआ । आगमवेत्ता मुनि दूर-दूर से आये। जिसको जो याद था उसके आधार पर पुनः संकलन किया गया और उसे व्यवस्थित रूप दिया गया। लगभग माथुरी वाचना के समय ही वल्लभी-सौराष्ट्र में नागार्जुन के नेतृत्व में एक मुनिसम्मेलन आयोजित हुआ और विस्मृत श्रुत को व्यवस्थित रूप दिया गया। सूरि ने समागत साधुओं को वाचना दी, अतः यह वाचना नागार्जुन वाचना कहलाती है। वल्लभ में सम्पन्न होने के कारण इसे वल्लभी वाचना के नाम से भी जाना जाता है।

तृतीय वाचना : –

माथुरी और वल्लभी वाचना के 151 वर्ष पश्चात यानी वीर निर्वाण के 180वें वर्ष में वल्लभी में पुनः उस युग के महान आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में तीसरी वाचना आयोजित हुई। आर्य देवर्द्धिगणी समयज्ञ थे। उन्होने देखा, अनुभव किया कि अब समय बदल रहा है। स्मरणशक्ति दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। समय रहते यदि श्रुत कि सुरक्षा का उपाय नहीं खोजा गया तो उसे बचा पाना कठिन होगा। आगम-साहित्य को व्यवस्थित देने कि दृष्टि से उनके निर्देशन में आगम-लेखन का कार्य प्रारम्भ हुआ। उस समय माथुरी और वल्लभी दोनों ही वाचनाएँ उनके समक्ष थीं। दोनों परम्पराओं के प्रतिनिधि आचार्य एवं मुनिजन भी वहाँ उपस्थित थे। देवर्द्धिगणी ने माथुरी वाचना को प्रमुखता प्रदान की और वल्लभी वाचना को पाठान्तर के रूप में स्वीकार किया गया। माथुरी वाचना के समय भी आगम ताड़-पत्रों पर लिखे गए थे। उन्हें सुव्यवस्थित करने का कार्य देवर्द्धिगणी ने किया। जैसा की कहा गया है-

बलहीपुरम्भि नयरे, देवढ्डय महेण समण-संघेणं। 
पुत्थइ आगमु तिहिओ, नवसय-असी सवाओ वीराओ।। 

इससे स्पष्ट होता है कि श्रमण संघ ने देवर्द्धिगणी के निर्देशन में वीर निर्वाण 980 में आगमों को पुस्तकारूढ़ किया था। आज जैन शासन में जो आगम-निधि सुरक्षित है, उसका श्रेय देवर्द्धिगणी क्षमाश्रम के प्रयत्नों को ही जाता है। इस प्रकार देवर्द्धिगणी क्षमाश्रम ने सर्वप्रथम आगमों को पुस्तकारूढ़ किया और संघ के समक्ष उसका वाचन किया।

वर्तमान में युगप्रधान वाचना-प्रमुख गणाधिपति तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञ के नेतृत्व में आगम-संपादन का अद्भुत कार्य हो रहा है। यह भी अपनी कोटि कि अपूर्व वाचना है। उनके निर्देशन में अनेक प्रबुद्ध साधु-साध्वियों के श्रम से संपादित, निष्पक्ष दृष्टि से निर्धारित शुद्ध पाठ विस्तृत पाद-टिप्पणों के साथ जैन विश्व भारती से प्रकाशित हो रहा है। अनेक आगमों के संस्कृत रूपान्तरण तथा हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद भी टिप्पण सहित प्रकाशित हो चुके हैं। आगम संपादन के इस महान अनुष्ठान को निर्विवाद रूप से आगम-वाचना कहा जा सकता है।

आगम का विभाजन (आगम-विभाग): –

आगम भगवान कि वाणी है। भगवान सर्वज्ञ होते हैं। वे जिस सत्य का प्रतिपादन करते हैं, वीएच प्रकीर्ण रूप में होता है । अतः वह अर्थागम कहलाता है। उन उपदेशों के आधार पर उनके प्रमुख शिष्य गणधर सूत्ररूप में संकलन या संग्रंथन करते हैं, वह सूत्रागम कहलाता है। इस प्रकार आगम के दो विभाग हो जाते हैं- अर्थागम और सूत्रागाम। इसीलिए कहा जाता है- अत्थं भासई अरहा सुत्तं गुप्फंति गणहरा। गणधरों ने सूत्र रूप में जो रचना की उसके मौलिक भाग बारह हुए अतः इसे द्वादशांगी भी कहा जाता है। ये गणी (आचार्यों) के लिए निधि स्वरूप होते हैं, अतः इन्हें गणिपिटक भी कहा जाता है।

जैन आगमों को प्रणेता की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है- अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य। इन्हें अंग और उपांग भी कहा जाता है। गौतम आदि गणधरों द्वारा रचित श्रुत को द्वादशांग या अंगप्रविष्ट कहा जाता है तथा भद्रबाहु आदि स्थविर वृद्ध आचार्यों द्वारा रचित आगमों को अंगबाह्य कहा जाता है। आगमों की सम्पूर्ण संख्या के विषय में मतभेद पाया जाता है। कुछ आचार्य आगमों की संख्या 84, कुछ 85 तो कुछ 32 मानते हैं। श्वेताम्बर स्थानकवासी और तेरापंथी 32 आगम मानते हैं। जो पाँच भागों में विभक्त हैं –

  1. अंग – 11
  2. उपांग – 12
  3. छेद – 4
  4. मूल – 4
  5. आवश्यक- 1
अंगप्रविष्ट (द्वादशांग): –

भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों ने जो साहित्य रचा, वह अंगप्रविष्ट कहलाता है। इसकामुख्य आधार है त्रिपदी- उत्पाद, व्यय ध्रौव्य। गणधर प्रश्न करते हैं और तीर्थंकर त्रिपदी के उन्हें उपदेश से उन्हें समाधान प्रदान करते हैं। इस प्रकार रचित इस द्वादशांगी का स्वरूप सभी तीर्थंकरों के समक्ष नियत होता है। प्रश्न होता है कि इन्हें अंग नाम से क्यों अभिहित किया गया? इसका उत्तर यह है कि श्रुत कि एक पुरुष के रूप में कल्पना कि गई है। जिस प्रकार एक पुरुष के अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रुतपुरुष के अंगों के रूप में बारह आगमों को स्वीकार किया गया है। कहा गया है कि श्रुतपुरुष के पादद्वय, जंघाद्वय, उरुद्वय, गात्रद्वय- देह का अग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग, बाहुद्वय, ग्रीवा तथा मस्तक- ये बारह अंग है। बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छिन्न हो गया है। इस प्रकार ग्यारह अंग प्राप्त हैं । जो इस प्रकार हैं –

  1. आचारांग :- द्वादशांग में आचारांग का प्रथम स्थान है। यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। इसमें श्रमण के आचार का वर्णन किया गया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के नवें अध्ययन में भगवान महावीर की तपस्या का बड़ा मार्मिक वर्णन पाया जाता है।
  1. सूत्रकृतांग :- प्रस्तुत आगम भी दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। इसमें जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य मतों एवं वादों का प्ररूपण किया गया है, जैसे- क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, जगतकर्त्तृत्ववाद आदि।
  1. स्थानांग :- प्रस्तुत आगम दस अध्यायों में विभाजित है। प्रत्येक अध्याय में जैन सिद्धान्तानुसार वस्तु संख्या गिनाई गई है। जैसे- प्रथम अध्याय में बताया गया है- एक आत्मा, एक दर्शन, एक चरित्र, एक परमाणु आदि। इसी प्रकार दूसरे अध्याय में दो-दो वस्तुओं का विवेचन है, जैसे क्रिया दो हैं- जीव क्रिया, अजीव क्रिया, राशि दो हैं- जीव राशि, अजीव राशि आदि। इसी प्रकार दसवें अध्याय में इसी क्रम से वस्तुभेद दस तक बताये गये हैं।
  1. समवायांग :- प्रस्तुत आगम का वर्णन क्रम स्थानांग जैसा है। स्थानांग में एक से लेकर दस तक संज्ञाएँ पहुँचती हैं, जबकि इसमें वे संज्ञाएँ एक से आरम्भ होकर कोटानुकोठी तक जाती है।
  1. व्याख्याप्रज्ञप्ति :- जीव-अजीव की विस्तृत व्याख्या होने के कारण इसे व्याख्याप्रज्ञप्ति कहा जाता है। इसका दूसरा नाम भगवाती भी प्रचलित है। इसमें गौतम द्वारा महावीर से पुछे गये 36000 प्रश्नों की व्याख्या है। विविध विषयों का विवेचन होने के कारण इसे जैन ज्ञान का विश्व3।कोष कहा जा सकता है।
  1. ज्ञाताधर्मकथा :- यह आगम दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। इसमें अनेक ज्ञातों- उदाहरणों के द्वारा धर्म का कथन किया गया है। अतः इसे ज्ञाताधर्मकथा कहते हैं।
  1. उपासकदशा :- उपासक का अर्थ श्रवण तथा दशा का अर्थ उनकी क्रिया-कलाप आदि अवस्थाओं से है। इसमें दस अध्याय हैं, जिसमें भगवान महावीर के प्रमुख आनन्द आदि दस श्रावकों का विवेचन है। इसमें श्रमणोपासकों के जीवन चरित्र के माध्यम से अणुव्रत, गुणव्रत आदि धर्मविधाओं का सम्यक निरूपण किया गया है।
  1. अन्तकृत्दशा :- जिन महापुरुषों ने घोर तपस्या तथा आत्म-साधना के द्वारा निर्वाण प्राप्त कर, जन्म-मरण की परम्परा का अन्त किया, उन्हें अन्तकृत् कहते हैं। उन अर्हतों का वर्णन इस आगम में होने कारण इसका नाम अन्तकृत्दशा है।
  1. अनुत्तरोपपातिकदशा :- प्रस्तुत आगम में ऐसे महापुरुषों का आख्यायन है, जिन्होंने साधना के द्वारा समाधि मरण को प्राप्त किया और मरकर अनुत्तरविमान में जन्म ग्रहण किया। वहां से पुनः इस मनुष्यभव में आकर वे मोक्ष को प्राप्त करेंगे। अनुत्तरविमान में जन्म लेने वाले महापुरुषों की अवस्था का विवेचन होने के कारण इसे अनुत्तरोपपातिक दशा कहते हैं।
  1. प्रश्नव्याकरण :- प्रस्तुत सूत्र दो खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में पांच आश्रय- मिथ्यत्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग का वर्णन है तथा दूसरे खण्ड में पांच संवर सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग का वर्णन है।
  1. विपाकश्रुत :- प्रस्तुत आगम भी दो श्रुत-स्कंधों में विभक्त है। पहला श्रुतस्कन्ध दुःखविपाक विषयक है और दूसरा सुखविपाक विषयक है। प्रत्येक में दस-दस अध्याय हैं। जिनमें जीव द्वारा आचरित कर्मों के अनुसार होने वाले दुखात्मक और सुखात्मक फलों का विश्लेषण है।
  1. दृष्टिवाद :- प्रस्तुत आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इसके पांच विभाग हैं- परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। इनमें सर्वभावों का वर्णन किया गया है। दृष्टिवाद का एक नाम भूतवाद भी है। इसके पूर्वगत नामक विभाग के चौदह विभाग हैं, जिन्हें पूर्व कहा जाता है।
  1. पूर्व :- जैन परम्परा के अनुसार श्रुतज्ञान (शब्द ज्ञान) का अक्षयकोष ‘पूर्व’ है। इसकी रचना के विषय में सब एकमत नहीं है। कुछ आचार्यों के अनुसार ‘पूर्व’ द्वादशांगी से पूर्व रचे गये थे, इसलिए इसका नाम ‘पूर्व’ रखा गया। अन्य आचार्यों का अभिमत यह है कि ‘पूर्व’ भगवान पार्श्व की परम्परा की श्रुत- राशि है। यह भगवान महावीर से पूर्ववर्ती है, अतः इसे पूर्व कहा गया। जैन परम्परा में चौदह पूर्व हैं जो इस प्रकार- 1. उत्पाद पूर्व, 2. अग्रायणीय पूर्व, 3. वीर्यप्रवाद पूर्व, 4. अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व, 5. ज्ञानप्रवाद पूर्व, 6. सत्यप्रवाद पूर्व, 7.आत्मप्रवाद पूर्व, 8. कर्मप्रवाद पूर्व, 9. प्रत्याख्यान पूर्व, 10. विद्यानुप्रवाद पूर्व, 11. अवन्ध्य पूर्व, 12. प्राणायुप्रवाद पूर्व, क्रियाप्रवाद पूर्व, लोकबिन्दुसार पूर्व।

द्वादशांगी के बारहवें भाग नाम का दृष्टिवाद है। वह पांच भागों में विभक्त है- 1 परिकर्म, 2. सूत्र, पूर्वानुयोग, 4. पूर्वगत और 5. चुलिका। चतुर्थ विभाग पूर्वगत में चौदह पूर्वों का समावेश माना जाता है। उसका परिणाम बहुत विशाल था, अतः ऐसा माना जाता है कि उसे शब्दरूप में समग्रतया लिख पाना संभव नहीं था। हो सकता है उसे अंशरूप में लिपिबद्ध किया हो।

अंगबाह्य (उपांग) :-

भगवान के मुक्त व्याकरण के आधार पर जिन ग्रन्थों कि रचना स्थविर करते हैं, वे अंगबाह्य या उपांग कहलाते हैं। उनका स्वरूप सदैव नियत नहीं होता। अंगबाह्य साहित्य का कुछ भाग स्थवीरों द्वारा रचित है और कुछ भाग निर्यूढ़ है। जो आगम पूर्वों अथवा द्वादशांगी से उद्घृत किये गए, वे निर्यूढ़ आगम कहलाते हैं, जैसे- दशवैकालिक, निशीथ, व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्प सूत्र आदि। प्राचीनकाल में अंगबाह्य श्रुत को दो भागों में विभक्त किया जाता था- 1. आवश्यक और 2. आवश्यक व्यतिरिक्त । उत्तरवर्ती युग में उसके तीन विभाग किये गए- 1. उपांग, 2. मूल, 3. छेद।

उपांग :-

श्रुतपुरुष के उपांग के रूप में व्यवस्थित ग्रन्थ उपांग कहलाते हैं। उसके बारह प्रकार हैं –

  1. औपपातिक :-यह पहला उपांग है। इस उपांग में विविध प्रकार कि भावनाओं और साधनाओं से मरने वाले जीवों का पुनर्जन्म किस प्रकार का होता है, इसका उदाहरण सहित वर्णन किया गया है।
  1. राजप्रश्नीय :- इस सूत्र में राजा प्रदेशी द्वारा किये गये प्रश्नों का समाधान केशी मुनि द्वारा दिया गया है। राजा प्रदेशी नास्तिक था, आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को नहीं स्वीकार करना था । केशी मुनि से समाहित हो वह आस्तिक बन गया।
  1. जीवाजीवाभिगम :- इस सूत्र में जीव, अजीव, उनके भेद-प्रभेद आदि का विस्तृत वर्णन है अतः इसका नाम जीवाजीवाभिगम रखा गया।
  1. प्रज्ञापना :- प्रज्ञापना का अर्थ है- ज्ञापित करना, बतलाना। इसमें जीव से संबंध रखने वाले प्रज्ञापना, स्थान, कषाय, इन्द्रिय, लेश्या, कर्म आदि का विवेचन है।
  1. सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति :- दोनों सूत्रों में क्रमशः सूर्य, चन्द्र,नक्षत्रों की गतियों का विस्तार से वर्णन है। ज्योतिष संबन्धी मान्यताओं के अध्ययन के लिए दोनों आगम विशेष महत्वपूर्ण हैं।
  1. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति :- इसमें जम्बूद्वीप तथा भरतक्षेत्र और उसके पर्वतों, नदियों आदि का वर्णन है। उत्सर्पिणी काल विभागों, कुलकरों, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर आदि का विवेचन है।
  1. कल्पिका :- इस सूत्र में दस अध्याय हैं, जिनमें कुणिक अजातशत्रु द्वारा पिता श्रेणिक को बंदीगृह में डालने का वर्णन है। श्रेणिक कई आत्महत्या तथा कुणिक का वैशाखी नरेश चेटक के साथ युद्ध का विवेचन भी इसमें प्राप्त होता है, जिससे मगध के इतिहास पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
  1. कल्पवंतसिका :- इस सूत्र में श्रेणिक के दस पौत्रों की कथाएँ हैं, जो अपने सत्कर्मों द्वारा स्वर्गगामी हुए।
  1. पुष्पिका-पुष्पचूलिका :- इस दोनों सूत्रों में दस-दस अध्याय हैं, जिनमें ऐसे स्त्री-पुरुषों की कथाएँ हैं जो धार्मिक आराधना करते हुए स्वर्गगामी हुए और देवता होकर अपने विमानों द्वारा महावीर को
  1. वृष्णिदशा :- इस आगम में बारह अध्याय हैं, जिनमें द्वारिका के राजा कृष्ण वासुदेव का, बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के रैवतक पर्वत पर विहार करने का, तथा वृष्णि वंशीय बारह राजकुमारों के दीक्षित होने का वर्णन पाया जाता है।
मूलसूत्र :-

जिन शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन सम्यक्त्व-मूल को दृढ़ करने में हेतुभूत है, वे मूल कहलाते हैं। इनमें मुख्य रूप से साधु जीवन के मूलभूत नियमों, महाव्रत, समिति आदि का उपदेश है, इसलिए भी इन्हें मूलसूत्र कहा जाता है। मूलसूत्र चार हैं- 1. उत्तराध्ययन, 2. दशवैकालिक, 3. नन्दीसूत्र, 4. अनुयोगद्वार।

  1. दशवैकालिक :- दशवैकालिक आचार्य शय्यम्भव की निर्यूहणकृति है। वे श्रुतकेवली थे, उन्होंने विभिन्न पूर्वों से इसका निर्यूहण किया। इसमें दसअध्याय हैं। इसकी रचना विकाल में पूर्ण हुई थी। अतः इसे दशवैकालिक कहते हैं। इसमें मुख्य रूप से धर्म का स्वरूप, साधु की भिक्षाचर्या, श्रमण्य की पूर्वभूमिका, भाषाशुद्धि, विनय-समाधि आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है। विषय को स्पष्ट करने के लिए उपमाओं, धृष्टान्तों का भी अनुसरण हुआ है। भिक्षु से स्वरूप पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है।
  1. नन्दीसूत्र :- नन्दी शब्द का अर्थ है- आनन्द इस आगम में ज्ञान का वर्णन है। ज्ञान सबसे बड़ा आनन्द है, इसलिए इसका नाम नन्दी रखा गया है। इस आगम के रचनाकार देववाचक हैं। इस आगम की विषय-वस्तु ज्ञानमीमांसा है। इसमें जैन दर्शन में मान्य पांच ज्ञानों का विस्तार से विवेचन हुआ है-
    • मतिज्ञान :- इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान।
    • श्रुतज्ञान :- शब्द, संकेत और शास्त्र आदि से होने वाला ज्ञान।
    • अवधिज्ञान :- समस्त मूर्त्त पदार्थों को जानने वाला अतीन्द्रिय बोध।
    • मनः पर्यवज्ञान :- दूसरों के मन की बात को जानने वाला अतीन्द्रिय बोध।
    • केवलज्ञान :- मूर्त्त-अमूर्त्त सभी पदार्थों की समस्त पर्यायों का साक्षात बोध।
  1. अनुयोगद्वार :- इस सूत्र के रचयिता आर्य रक्षित माने जाते हैं। इस आगम में विभिन्न अनुयोगों से सम्बद्ध विषयों का आकलन है। नय, निक्षेप का विशद विवेचन इस ग्रन्थ में हुआ है। प्रमाण-वर्णन के प्रसंग में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा आगम प्रमाण की चर्चा की गई है। प्रस्तुत आगम पर चूर्णि और टीकाएँ भी लिखी गई
छेदसूत्र :-

जिस प्रकार फटे हुए वस्त्र को थिग्गल आदि लगाकर जोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार खण्डित संयम को प्रायश्चित्त आदि द्वारा शुद्ध किया जाता है। उस शुद्ध की व्याख्या-व्यवस्था करने वाले सूत्र छेदसूत्र कलाते हैं। इन सूत्रों में साधु-साध्वियों के जीवन से सम्बद्ध आचार-विषयक नियमों का विश्लेषण है। इन्हें एकान्त में केवल कुछ विशिष्ट शिष्यों को ही पढ़ाया जाता है। नियम भंग हो जाने पर साधु-साध्वियों द्वारा अनुसारणीय अनेक प्रायश्चित्त विधियों का इनमें विश्लेषण है। छेद सूत्र चार हैं- 1. निशीथ, 2.व्यवहार, 3. वृहत्कल्प, 4. दशा श्रुतस्कन्धा।

  1. निशीथ :- छेदसूत्रों में निशीथ का स्थान सर्वोपरि है। निशीथ का अर्थ है- अन्धकार, रात्रि, अप्रकाश। जो अप्रकाश धर्म- रहस्यभूत या गोपनीय होता है, उसे निशीथ कहा गया है। इस व्याख्या का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार रहस्यमय विद्या मन्त्र, तन्त्र, योग अनधिकार या अपरिपक्व बुद्धि वाले व्यक्तियों को नहीं बताए जाते अर्थात् उनसे उन्हें छिपाकर रखा जाता है, उसी प्रकार निशीथ सूत्र भी गोप्य है। हर किसी के समक्ष उद्घाट्य नहीं हैं। निशीथ सूत्र में 20 उद्देशक हैं, जिनमें साधु-साध्वियों के आचार-विचार संबंधी उत्सर्ग और अपवाद विधि का निरूपण तथा प्रायश्चित्त आदि का सूक्ष्म विवेचन है।
  1. व्यवहार सूत्र :- व्यवहार सूत्र को द्वादशांग का नवनीत कहा गया है। इसमें दस उद्देशक हैं, जो लगभग 300 सूत्रों में विभक्त हैं। इसमें ज्ञात-अज्ञात रूप से आचरित दोषों कि शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त, आलोचना आदि का मार्मिक विवेचन है।
  1. दशाश्रुतस्कन्ध :- इस श्रुतस्कन्ध दस भागों में विभक्त है, जिन्हें दशा नाम से अभिहित किया गया है। प्रथम दशा में असमाधि के बीस स्थानों का वर्णन है। द्वितीय दशा में शबल के इक्कीस स्थानों का वर्णन है। शबल का अर्थ धब्बों वाला या सदोष है। तृतीय दशा में आशतना के तैंतीस प्रकारों का विवेचन है। चतुर्थ दशा में आचार्य कि आठ सम्पदाओं का वर्णन है। पंचम दशा में चित्त समाधि के दस भेदों का वर्णन है। षष्ठ दशा में श्रावक कि दस प्रतिमाओं का निरूपण है। सप्तम दशा में भिक्षु कि बारह प्रतिमाओं का विवेचन है। अष्टम दशा में भगवान महावीर केच्यवन, गर्भसंहरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, मोक्ष का वर्णन है।
  1. बृहत्कल्प :- साधु-साध्वियों संयम जीवन में जो साधक आचरण हैं, वे कल्प कहलाते हैं और उसमें विघ्न या बाधा उपस्थित करने वाले आचरण अकल्प कहलाते हैं। वृहत्कल्प सूत्र में साधु-साध्वियों के संयत चर्या के सन्दर्भ में वस्त्र, पात्र, स्थान, आदि के विषय में विशद विवेचन है। यह सूत्र छः उद्देशकों में विभक्त है। प्रथम उद्देशक में साधु-साध्वियों के विहार-क्षेत्र कि सीमाओं के संबंध में विवेचन है तथा साथ ही यह भी कहा गया है कि यदि अपने ज्ञान-दर्शन-चरित्र का विघात न हो तथा लोगों के ज्ञान-दर्शन-चरित्र में वृद्धि होने कि संभावना हो तो उक्त सीमाओं से बाहर विहार करना भी कल्पित है।
आवश्यक सूत्र :-

अवश्यक से आवश्यक शब्द बना है। श्रमण और श्रावक के लिए जो अवश्यकरणीय है, वह आवश्यक कहलाता है। यह छः भागों में विभक्त है-

  1. सामायिक :- सावद्य योग का प्रत्याख्यान और समता का अभ्यास करना।
  2. चतुर्विशति स्तव :- ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना।
  3. वन्दन :- गुरु चरणों में वन्दन करना, सुखपृच्छा करना।
  4. प्रतिक्रमण :- प्रमादवश विसर्जन और आत्मभाव का सर्जन करना।
  5. कियोत्सर्ग :- देहभाव का विसर्जन और आत्मभाव का सर्जन करना।
  6. प्रत्याख्यान :-भविष्य में सावद्य योग (पापकरी प्रवृत्ति) न करने का संकल्प करना।