भारत का भौगोलिक परिवेश एवं प्रागैतिहासिक सभ्यताएँ [India’s geographical environment and prehistoric civilizations UPSC NCERT Notes]


भारत का भौगोलिक परिवेश (India’s geographical environment) :-

किसी भी देश अथवा क्षेत्र के भूगोल की जानकारी के बिना हम वहाँ के इतिहास को नहीं समझ सकते हैं | वहाँ के लोगों का इतिहास उस स्थान के भूगोल और वातावरण से प्रभावित होता है जिसमें वे निवास करते हैं | किसी भी स्थान के प्राकृतिक भूगोल और परिवेशगत परिस्थितियों में वहाँ की जलवायु, मिट्टी की किस्म, जल संसाधन और अन्य स्थानीय विशेषताएँ सम्मिलित होती हैं | यही विशेषताएँ किसी क्षेत्र के परिवेश का स्वारूप, वहाँ के जनसमुदाय, खाद्य पदार्थ, मानव व्यवहार और खानपान का ढांचा निर्धारित करती है | भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्र विभिन्न भौगोलिक विशेषताओं से भरपूर है जिन्होंने यहाँ के इतिहास को अत्यधिक प्रभावित किया है |

भौगोलिक दृष्टि से विचार किया जाये तो प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में वर्तमान भारत, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान शामिल थे | भौगोलिक विविधताओं के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप को मुख्यतया निम्नलिखित क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. हिमालय क्षेत्र
  2. उत्तर भारत का नदी-तटीय मैदानी क्षेत्र
  3. प्रायद्वीपीय भारत

1. हिमालय क्षेत्र (Himalayan region) :-

हिमालय पर्वतीय क्षेत्र विश्व की विशालतम और उच्चतम पर्वतीय शृंखलाएँ है | यह औसतन 2400 किमी लंबी हैं | इन शृंखलाओं ने न सिर्फ हमलावरों को आने से रोका बल्कि उत्तर को ओर से आने वाली मानसूनी शीत लहर से भी हमारी सुरक्षा की | यह समुद्र से उठने वाली मानसूनी हवाओं को रोककर उत्तरी मैदानी क्षेत्रों में वर्षा का कारण बनती है | तथापि कुछ ऐसे पर्वतीय दर्रे है, जिनसे गुजर कर हमलावर, व्यापारी और धर्मप्रचारक यहाँ पहुंचे यद्यपि यह जटिल क्षेत्र है | इन्होने ने मध्य एशिया, चीन और तिब्बत जैसे देशों से सांस्कृतिक संबंध विकसित करने में सहायता की |

उत्तर-पश्चिमी दिशा में विभाजित, हिमालय श्रृंखलाओं में भारतीय मैदानी क्षेत्रों को अफगानिस्तान के जरिये ईरान और मध्य एशिया को जोड़ने वाले मुख्य मार्ग शामिल हैं जिनमें गोमल, बोलन और खैबर-पास आदि शामिल हैं | ग्रीक, शक, कुषाण, हूण और अन्य विदेशी जनजातियों ने इन्हीं मार्गों के जरिये भारत में प्रवेश किया | इसी प्रकार बौद्ध धर्म और अन्य भारतीय विशिष्टाएँ इन्हीं पर्वतीय मार्गों के जरिये अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंची |

2. उत्तर भारत का नदी तटीय मैदानी क्षेत्र (Riverine plains of North India) :-

हिमालय क्षेत्र ने भारत को सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों से प्रभावित तीन नदी तंत्र उपलब्ध कराए हैं | इन नदियों ने अपने-अपने क्षेत्रों को उपजाऊ बनाने के साथ-साथ यहाँ के स्थायी निवासियों और हमलावरों को भी आकर्षित किया | सिंधु नदी के मैदानी क्षेत्र में पंजाब और सिंध सम्मिलित हैं | सिंधु नदी की सहयोगी नदियों की सिंचाई ने इस भू-क्षेत्र को एक विस्तृत उपजाऊ मैदान बना दिया जिसके कारण यह क्षेत्र इस उपमहाद्वीप का खाद्य-केन्द्र बन गया है | इस कथन का यह कारण है, क्योंकि यह क्षेत्र गेहूँ की खेती के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है | पंजाब की सामरिक स्थिति और समृद्धि ने प्राचीन काल से ही विदेशी हमलावरों को आकर्षित किया है | सिंध क्षेत्र में निचली सिंधु घाटी और डेल्टा शामिल हैं | सिंधु नदी के मैदान में ही इस उपमहाद्वीप में पहली बार हड़प्पा संस्कृति की शहरी सभ्यता के विकास की झांकी देखने को मिली |

गंगा घाटी में सिंधु क्षेत्र की तुलना में अधिक वर्षा होती है और यह क्षेत्र अधिक नमी वाला है | गंगा के मैदानी क्षेत्रों को तीन उप-क्षेत्रों में बाँटा गया है | वे हैं – गंगा का ऊपरी, मध्य एवं निम्न मैदान | गंगा नदी के ऊपरी क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्र में शामिल हैं | प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र में सांस्कृतिक विकास दिखाई देता है | उत्तर वैदिक युग में यह आर्यों का निवास स्थान बना जब यहाँ रहकर उन्होंने खेती-बाड़ी की | मध्य गंगा का मैदानी क्षेत्र अधिक उपजाऊ है, उसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार शामिल हैं | यह वह क्षेत्र है जहाँ छठी सदी ईसा पूर्व कौशल, काशी और मगध जैसे महाजनपद (प्रदेशीय प्रान्त) क्षेत्र स्थापित हुए | भारत के दो प्रमुख धर्मों, जैन और बौद्ध धर्म का जन्म भी इन्ही क्षेत्रों में ही हुआ |

गंगा के निचले मैदानी क्षेत्रों में बंगाल क्षेत्र शामिल है | इसका उत्तरी क्षेत्र ब्रह्मपुत्र द्वारा सिंचित क्षेत्र है | भारी वर्षा से यहाँ घने जंगल और दलदली भूमि विकसित हो गई, जिसके परिणामस्वारूप शुरू-शुरू में यहाँ आवास बनाने में कठिनाइयाँ पैदा हुई, लेकिन इसके तटीय क्षेत्र इस उप-महाद्वीप के अन्य क्षेत्रों और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के बीच भी, परस्पर संचार के महत्वपूर्ण मार्ग साबित हुए | ताम्रलीप्ति अथवा तामलुक इस क्षेत्र का प्रमुख बंदरगाह था जिसने व्यापारिक गतिविधियों में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |

पूर्वी भारत को महानदी और इसकी अन्य धाराओं द्वारा विकसित तटीय मैदानों के रूप में पहचाना जाता है | इस क्षेत्र के उपजाऊ तटीय क्षेत्र ने कृषि, समाज और संस्कृति के विकास में बहुत योगदान दिया है | नन्द और मौर्य राजवंशों के काल में यह गंगा सभ्यता के संपर्क में आया | 1000 ई० के आसपास उडीसा की अपनी भाषायी और सांस्कृतिक पहचान विकसित होनी शुरू हुई |

3. प्रायद्वीपीय भारत (Peninsular india) :-

प्रायद्वीपीय भारत में दक्षिण का पठार और दक्षिण भारत के समुद्रतटीय मैदानी क्षेत्र शामिल हैं | यह पठार विंध्य पर्वत शृंखला के दक्षिण में स्थित है | इसे तीन मुख्य क्षेत्रों में विभाजित किया गया है | जिनमें अधिकतर महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश और कर्नाटक के आधुनिक प्रदेश हैं | तांबे और पत्थर के औजारों का उपयोग करने वाले लोगों के ताम्र-पाषण-युगीन स्थल ज्यादातर यहीं पर पाए गए हैं | कर्नाटक में दक्षिण पश्चिमी दक्कन क्षेत्र शामिल हैं | यह जल और अन्य संसाधनों की उपलब्धता के लिए अधिक सुविधाजनक रहा है | चावल की खेती के कारण रायचूर दोआब क्षेत्र को, दक्षिण भारत का चावल -केन्द्र कहा जाता है | यह क्षेत्र विभिन्न बादशाहों में परस्पर युद्ध का कारण रहा है | प्रागैतिहासिक काल से ही इन क्षेत्रों में लोगों का निवास रहा है |

पठार क्षेत्र में भी पश्चिमी और पूर्वी घाटों पर पहाड़ी भू-प्रदेश है | ये पहाड़ियाँ पश्चिमी तट पर पश्चिमी घाट के नजदीक से बिल्कुल सीधी ऊंचाई की तरफ बढ़ते हुए, पूर्व दिशा में पठार की तरफ ढलान में चली जाती हैं | जुन्नार, कन्हेरी और कार्ले पर इनमें अनेक मार्ग (दर्रों) श्रेणियाँ स्थित हैं | यह मार्ग इस बंदरगाह को पश्चिमी समुद्र तट को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्गों के रूप में उपयुक्त रहे हैं | पश्चिमी घाटों के दक्षिणी किनारे पालाघाट दर्रा है जो कि पश्चिमी तट को कावेरी घाटी से जोड़ता है और जिसने प्राचीन काल से लेकर आज तक भारत-रोम व्यापार में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं | पूर्वी घाट धीरे-धीरे पठार और समुद्रतटीय मैदानी क्षेत्र में ढलते चले जाते हैं |

प्रागैतिहासिक सभ्यताओं पर पर्यावरण का प्रभाव (Impact of Environment on Prehistoric civilizations) :-

किसी भी क्षेत्र में लोगों के आवास की स्थिति इस बात पर निर्भर होती है कि उस स्थान के परिवेश (पर्यावरण) की स्थिति कैसी है | पर्यावरण हमारे आसपास की परिवेशीय स्थितियाँ व वातावरण होता है जिसमें विभिन्न प्रकार की जातियाँ जीवित रहते और काम करते हैं | पर्यावरण में मुखी रूप से किसी स्थान का वातावरण, भू-भाग, पेड़-पौधे और पशु शामिल होते हैं | लोगों के स्थायी निवास के लिए अर्ध-शुष्क क्षेत्र आधिक उपयोगी होते हैं | उदाहरण के लिए सिंध क्षेत्र, जहां पर प्राचीन काल में इसी प्रकार का वातावरण रहा है, में समृद्ध हड़प्पा सभ्यता विकसित हुई, इसने शहरी आवास विकसित कराने में भी सहयोग दिया | इसी प्रकार बिहार में पाटलीपुत्र का विकास और मगध के महत्व को भी वहाँ की भौतिक विशेषताओं और पर्यावरण के आधार पर की परिभाषित किया जा सकता है |

पर्यावरणीय परिस्थितियाँ किसी क्षेत्र के संभावित संसाधनों को भी निर्धारित करती हैं | वनांचल क्षेत्र लकड़ी का बड़ा स्रोत हो सकते हैं तो समुद्र तटीय क्षेत्र समुद्री उत्पादों के स्रोत हो सकते हैं | चट्टानों से भरपूर पहाड़ी क्षेत्र, जिनमें खनिज अयस्क भी शामिल हैं, धातु विज्ञान के विकास में सहायक हो सकता है, जैसे मगध लोहे की कच्ची खानों के नजदीक और छोटा नागपुर पठार के क्षेत्र में पत्थर के स्रोत और लकड़ी के क्षेत्र के नजदीक स्थित था | इस वजह से मगध की स्थिति मजबूत हुई |

जीवन के रहन-सहन और आहार-व्यवहार भी पर्यावरणीय परिस्थितियों से प्रभावित होते हें | नदियों के मैदानी क्षेत्रों में कछार वाली मिट्टी बाढ़ से प्रभावित होती है | मिट्टी की उपजाऊ शक्ति अधिक पैदावार में सहायक होती है | मिट्टी की किस्म किसी स्थान की फसल पद्धति को भी निर्धारित करती है | जैसे- काली मिट्टी कपास की खेती करने के लिए बहुत अच्छी होती है | बढ़ते उत्पादन के फलस्वरूप वस्तुओं के परस्पर लेन-देन की गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है जिससे बड़े पैमाने पर व्यापार विकसित होता है |

जलमार्ग की सुविधा से सम्पन्न नदियों वाले क्षेत्रों में विकसित व्यापार और संचार नेटवर्क देखने में आए हैं | जातक और अन्य उपलब्ध हमारी प्राचीन साहित्यिक पुस्तकों में प्राचीन भारत में अनेक जलमार्गों के होने के उल्लेख मिलते हैं | इसी प्रकार समुद्र तटीय जलमार्ग विभिन्न सुदूर देशों से व्यापार की प्रगति को बढ़ावा देते हैं | पहाड़ी मार्ग इस संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं | उदाहरण के रूप में पालघाट दर्रा ने पूर्व और पश्चिम समुद्री तट को आपस में जोड़ा और प्राचीन काल में भारत-रोम व्यापार करने में सहायता प्रदान की |

इस प्रकार हम यह देखते हैं की किसी क्षेत्र की भौतिक विशेषताएँ और पर्यावरण उस क्षेत्र की ऐतिहासिक प्रक्रिया का खुलासा करने में सहायक होते हैं | संसाधनों से समृद्ध क्षेत्र महत्वपूर्ण थे जबकि जहाँ इन संसाधनों की कमी रही, वहाँ कम विकास हुआ | यह समीक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है कि आवास पद्धति और जीविका का तरीका स्थानीय संसाधनों के उपयोग पर निर्भर होता है, जिसके परिणाम पर उस क्षेत्र का तकनीकी विकास निर्भर होता है |

प्रागैतिहासिक सभ्यताएँ (Prehistoric civilizations) :-

प्रागैतिहासिक काल हमारे इतिहास की वह अवधि है जिसका कोई लिखित वर्णन उपलब्ध नहीं है | इसलिए उन सभ्यताओं के संबंध में हमारा ज्ञान केवल पुरातात्विक खुदाई में मिली सामग्री पर आधारित है | इस समय में रहने वाले प्राचीन मानव पत्थर के औजार बनाकरऔर पत्थर से बनाई गई चीजें उपयोग में लाते थे जो उन स्थलों के आसपास पाई गई है | यह औजार उन्हें शिकार करने और अपनी भूख शांत करने के लिए खाद्य सामग्री इकट्ठी करने में मदद करते थे | चूँकि इस समय में लोगों द्वारा सबसे पहले उपयोग किए गए औजार पत्थरों से बनाए गए थे, इसलिए मानव विकास के इस चरण को पाषण युग के नाम से जाना जाता है |

1. पुरा पाषण युग (पैलियोलिथिक) सभ्यता (Paleolithic Civilization) :-

पैलियोलिथिक शब्द ग्रीक शब्द “पैलियो” से लिया गया है जिसका अर्थ है पुराना और “लिथिक” जिसका अर्थ पत्थर से लिया गया है | इसलिए पैलियोलिथिक युग का अर्थ है पुरापाषण युग | पुरातत्वविदों ने इस सभ्यता का काल खण्ड दो मिलियन वर्ष पूर्व अत्यन्त नूतन युग (प्लिस्टोसीन ऐज) बताया है | प्लिस्टोसीन काल इस युग का वह भौगोलिक काल है जब धरती की सतह बर्फ से ढँकी थी और मौसम इतना ठंडा था कि मनुष्य अथवा वनस्पति किसी का भी जीवित रह पाना संभव नहीं था | लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में जहाँ पर बर्फ पिघल गई थी, मानव की प्रागैतिहासिक जातियाँ जीवित रह सकती थीं |

लोग पहाड़ी चट्टानों के आस-पास रहते थे और अपनी सुरक्षा के लिए सिर्फ पत्थर से बने औजारों का उपयोग करते थे | फिर भी औजार बनाने के लिए प्रयुक्त की जाने वाली कच्ची सामग्री का चुनाव एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होता था और इस सामग्री की उपलब्धता पर निर्भर होता था जैसे, महाराष्ट्र क्षेत्र में उपलब्ध बेसाल्ट और कर्नाटक क्षेत्र में पाया जाने वाला चूना-पत्थर | औजारों की किस्म और उन्हें गढ़ने की तकनीक की प्रगति की प्रकृति के आधार पर पुरा पाषणिक सभ्यताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है | ये इस प्रकार हैं –

  1. आरंभिक अथवा पुरा पाषाण युग
  2. मध्य पाषण युग
  3. उच्च पाषण युग

पुरा पाषण युग (पैलियोलिथिक) के औजार (Paleolithic tools) :-

पुरा पाषण युग चरण में मुख्य औजार थे हाथ की कुल्हाड़ी, गंडासा और काटने के औजार | ये औजार बहुत बेढंगे और भारी थे और पत्थरों से बनाए गए थे | धीरे-धीरे नुकीले और हल्के औजार बनाए जाने लगे | मध्य पाषण युग के मुख्य औजार थे खप्पचियों की तरह के चपटे औजार उत्तर पाषण युग में मूलतः तक्षिणी (बूरीन) और कुरेदने वाले (स्क्रैपर्स) औजार होते थे | इस युग में प्रयोग किये जाने वाली आरी का सिर दो भागों में बंटा होता था और इनका उपयोग पेड़ों के तनों को चीरने के लिए होता था | गंडासा एक मुख्य औजार था जिसका काम करने का एक ही सिरा होता था और इसे काटने के काम के लिए उपयोग में लाया जाता था |

बूरिन (तक्ष) पतली खपच्चियों या ब्लेडों की तरह होते थे | इनका उपयोग नरम पत्थरों, हड्डियों या चट्टानों पर खुदाई के काम के लिए किया जाता था | छीलने वाले औजार (स्क्रैपर्स) भी पतली खपचियों के बने होते थे | पेड़ों की छाले और पशुओं की चमड़ी प्राप्त करने के लिए तथा छीलने के काम के लिए इनका उपयोग किया जाता था |

पाषाण युगीन स्थानों का भौगोलिक विभाजन (Geographical division of Stone Age places) :-

पाषाण युगीन स्थानों के भौगोलिक विभाजन से यह संकेत मिलता है कि सभ्यता भारतीय उप-महाद्वीप की सम्पूर्ण लम्बाई और चौड़ाई के विस्तार में फैली हुई थी | उत्तर में कश्मीर घाटी और रावलपिंडी (पाकिस्तान) की सोहन घाटी में से प्राचीन पत्थरों के औजार प्राप्त हुए हैं | पश्चिमी भारत में भी साबरमती, माही और इनकी सहयोगी नदियों के स्थलों से भी पत्थरों के प्राचीन औजार मिले हैं | महाराष्ट्र में इनके प्रमुख स्थान रहे हैं, गोदावरी की सहयोगी नदी नेवासा के पास और मध्य प्रदेश में भीमबेटका और होशंगाबाद जिले में आदमगढ़ स्थित चट्टानी आड़ में पुरा पाषाण-युग और मध्य प्राचीन युग से संबद्ध औजार प्राप्त हुए हैं |

उत्तर प्रदेश में, बेलन घाटी इसका बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थल रही है | यहाँ मिले औजारों से प्राचीन पाषाण-युग से लेकर निरंतर आज तक मानवीय व्यवसाय के दर्शन होते हैं | यदि हम पूर्व की ओर बढ़ें तो असम और मेघालय (गारो की पहाड़ियाँ) सहित वहाँ के आसपास के क्षेत्र से इतिहास -पूर्व काल की कलाकृतियाँ पाई गई हैं | बंगाल, उडीसा और बिहार के अनेक स्थानों पर भी प्राचीन पाषाण युग के औजार प्राप्त हुए हैं | प्रायद्वीपीय भारत में आन्ध्रप्रदेश और कर्नाटक में प्राचीन पाषण युग से संबद्ध औजार मिले हैं | पाषाण युग की जीविका का मुख्य आधार पशुओं का शिकार और फलों और उसकी जड़ों से खाद्य सामग्री संगृहीत करना रहा है | अन्य शब्दों में, उस युग के लोग मूलतः शिकारी और संग्रहकर्ता थे जिनका कोई स्थायी निवास नहीं होता था |

जीविकोपार्जन की पद्धति (Livelihood method) :-

प्राचीन पाषण युग के लोगों में जीविकोपार्जन के लिए शिकार और खाद्य सामग्री संगृहीत करने का चलन था | उन्होंने शिकार करने, कुतरने/काटने, खोदने और अन्य उद्देश्य के लिए पत्थरों के साधारण औजार बनाए | उन्होंने खानाबदोशों जैसा जीवन बिताया और जहाँ पर भी पानी की आसानी से उपलब्धता के साथ-साथ पेड़-पौधे और पशुओं जैसे संसाधन की बहुलता मिली, उन्ही पर स्थानांतरित होते रहे |

2. मध्य पाषाण युगीन सभ्यताएँ (Mesolithic civilizations) :-

इतिहास-पूर्व काल मैसोलिथिकयुग को मध्य पाषाण युग के नाम से भी जाना जाता है | यह समय प्राचीन पाषाण और नव पाषाण युग के मध्य का संक्रमण कालिक चरण रहा है | पुरातात्विक खोजों के आधार पर भारतीय महाद्वीप में मध्य पाषाण युग का प्रारंभ 10000 ईसा पूर्व के आसपास माना जाता है |

इस अवधि के दौरान तापमान में वृद्धि दिखाई दी जिसके कारण वातावरण में गरमी आई | इस परिवर्तनों की वजह से प्राचीन युग की बर्फ पिघलती गई जिससे वनस्पति और प्राणी जगत में बहुत से परिवर्तन दिखाई दिए | यद्यपि मनुष्य अभी भी शिकारी और भोजन संग्रहकर्ता से स्तर पर ही था | परन्तु अब उसने मछली पालन और पशुओं को भी पालना शुरू कर दिया था | भीमबेट्का में चट्टानों पर इस काल में की गई चित्रकारी से यह संकेत मिलता है कि लोगों में कलात्मक रूचि विकसित हो गई थी |

मध्य पाषाण युग के औजार :-

मध्य पाषाण युग में प्रयुक्त किए जाने वाले पत्थर के सूक्ष्म औजार आकार में बहुत छोटे थे और इनकी लम्बाई 1 से 8 सेमी. के बीच अलग-अलग होती थी और इन्हें मोटे तौर पर छीले गए पतली खपचियों जैसे टुकड़ों से बनाए जाते थे | इनमें से कुछ औजारों का आकार ज्यामितीय रूप में होता था, जैसे- त्रिकोण, अर्ध-चन्द्राकार और समलंबाकार | इनके औजारों को तीर या भाला बनाने के लिए बांधा या उनमें बैठाया जा सकता था |

मध्य पाषाण युगीन स्थलों का भौगोलिक विभाजन :-

मध्य पाषाण युगीन स्थलों के विभाजन से संकेत मिलता है की मध्य पाषाण युगीन सभ्यताओं का आवास उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम संपूर्ण भारत में मिलता है | इस सभ्यता के प्रमुख स्थल हैं, गुजरात में लंघनाज, मध्य प्रदेश में भीमबेट्का, उत्तर प्रदेश में चोपाणी मांडो, इलाहाबाद के पास बेलन घाटी, पश्चिम बंगाल में बीरभानपुर, कर्नाटक में संगनाकल्लु और दक्षिणी तमिलनाडु में तूतीकोरिन |

जीवन यापन की पद्धति :-

मध्य पाषाण युग के लोग भी अपना जीविकोपार्जन शिकार और संग्रहण से करते थे, परन्तु अब शिकार के तरीके में कुछ बदलाव आ गया था, जैसे अब प्राचीन पाषाण युग के बड़े जानवरों के स्थान पर छोटे-छोटे पशुओं का भी शिकार होने लगा था, जिन पर धनुषबाण और तीरों से आक्रमण किया जा सकता था | इसके अतिरक्त मछलीपालन और पक्षियों के शिकार को भी महत्त्व दिया जाने लगा था | मवेशियों, भेड़ों, बकरी, भैस, सूअर,चूहे, जंगली सांड, दरियाई घोड़े, कुत्ते, लोमड़ी, छिपकली, मेंढ़क और मछली आदि प्राणियों के अवशेष मध्य कालीन पाषाण युगीन स्थान से प्राप्त हुए हैं |

नव पाषाण काल की सभ्यताएँ :-

इतिहास-पूर्व अंतिम चरण को नव पाषाण युग का नाम दिया गया है | भारतीय उप-महाद्वीप में इसका कालक्रम 8000 ईसा पूर्व माना जाता है | इस युग की प्रमुख विशेषता थी, नए किस्म के घिसाई और पॅालिश किए गए पत्थर के औजार| इस काल को पौधों की खेती और घरेलू पशुपालन की शुरुआत के रूप मैं पहचाना जाता है | इसकी वजह से जीवन में स्थायी आवास की शुरुआत हुई और गांवों मैं आबादी का विकास हुआ | नव पाषाण युग में निम्नलिखित विशेषताएँ थीं –

  1. कृषि संबंधी गतिविधियों का आरम्भ |
  2. घरों में पशुपालन |
  3. तीखे नुकीले पत्थर के औजारों की घिसाई और उन पीआर पॉलिश की शुरुआत |
  4. पॉटरी (मिट्टी के बर्तनों) का उपयोग |

नव-पाषाण युग के औजार :-

नव पाषाण युग के औजारों में चिकनी सतह वाले घिसाई के औजार और भली-भांति गोलाई किए हुए नपे तुले आकार के औजार शामिल हैं | घिसाई ने औजारों को पैना आकार दिया गया और पॉलिश ने इन औजारों को पहले की अवधि के औजारों से अधिक प्रभावी बना दिया | नव पाषाण युग के घिसाई किए गए औजारों मैं विभिन्न प्रकार की कुल्हाड़ियाँ शामिल हैं | जिन्हें ‘सेल्ट’ (आदिम कुल्हाड़ियाँ) कहा जाता है | पत्थर के औजारों के अतिरिक्त इस युग के स्थानों पर विविध प्रकार की हड्डियों से बनी वस्तुएँ, जैसे सुइयाँ, स्क्रैपर, भूमि में छिद्र करने वाले औजार (बोरट) तीरों के अग्रभाग, पेंडेंट, चूड़ियाँ और कान के बुंदे आदि भी पाए गए हैं |

नव पाषाण युगीन स्थलों का भौगोलिक विभाजन :-

भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग सम्पूर्ण भू-भाग में नव पाषाण युगीन स्थलों का विस्तार मिलता है | उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में बलूचिस्तान के कच्छी मैदानी क्षेत्र में मेहरगढ़ ऐसा ही एक उत्कृष्ट स्थल है | मेहरगढ़ में की गई खुदाई ने नव पाषाण युग के लोगों द्वारा घरों के निर्माण के साक्ष्य सामने आए हैं | ये घर धूप में सुखाई गई ईंटों से बने थे | इन घरों में छोटे कमरों के विभाजन किए गए थे | गेहूँ, जौ और कपास की खेती किए जाने के प्रमाण इन स्थलों पर पाए गए | कश्मीर घाटी के प्रमुख स्थानों में बुर्जहोम और गुफकराल आदि शामिल हैं | नव पाषाण युग की सभ्यता की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं में से एक विशेषता इन जगहों पर रहने के लिए पाए गए गोलाकार या आयताकार गड्ढे थे। विंध्य पठार के किनारे के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के पास स्थित बेलन घाटी में भी कई ऐसे स्थान, जैसे – कोल्हडीहवा और महागारा हैं झन से इस प्रकार के साक्ष्य मिले हैं | नव पाषाण काल के औज़ार, मिट्टी के बर्तन, अन्य कलाकृतियाँ, फूल-पौधों और प्राणियों के अवशेष इन स्थानों पर मिले हैं | जिनमाइन बिहार और मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में चिरंड बहुत ही लोकप्रिय स्थल हैं | इसके अतिरिक्त असाम, मेघालय और नागालैंड की पहाड़ियों पर भी अनेक स्थल मौजूद हैं | इन क्षेत्रों से घिसाई की गई छोटी कुल्हाड़ियों के साथ-साथ मिट्टी के बर्तन आदि इस क्षेत्र से मिले हैं | दक्षिण भारत में कृष्णा, तुंगभद्रा और कावेरी नदियों के किनारे-किनारे अनेक स्थलों की खोज की गई है । जिनमें से कुछ प्रमुख स्थल है- संगनकल्लु, ब्रहमगिरि, मस्की, पिक्लीहाल, हल्लूर, कर्नाटक में उत्नुर, नागार्जुनकोंडा, आंध्र प्रदेश में बुडिहाल और तमिलनाडु में पल्ली आदि | इन स्थानों पर खेती और पशुपालन के भी प्रमाण मिले हैं | रागी दक्षिण भारत के गावों मैं उगाई गई सबसे प्राचीन फसल थी ।

जीविकोपार्जन की पद्धति :-

नव पाषाण चरण में खेती-बाड़ी का आगमन बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तन था । भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर इस काल के लोगों ने विविध प्रकार की फसलें उगाई जैसे- गेहूँ, जौ, दालें आदि। खेती-बाड़ी के काम ने पशुपालन को गति दी। शिकार अभी भी लोगों का मुख्य व्यवसाय था। लोगों द्वारा घरों में पाले गए पालतू जानवरों में भेड़, बकरी, गाय-भैंस आदि शामिल थे, तो शिकार किए गए जंगली जानवरों में थे सूअर, नीलगाय और चिंकारा आदि। नव पाषाण काल के लोगों द्वारा बनाए गए विविध प्रकार के पत्थर के औजारों के संबंध में पहले हाथ से बनाए और बाद में चाक पहिये पर बनने लगे और इन्हें बड़ी-बड़ी भट्टियों में पकाया भी गया। अनाज भंडारण के लिए यह मुख्य साधन थे | संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि नियोलिथिक सभ्यताओं को विशेष रूप से शिकारी से संग्रहकर्ता और संग्रहकर्ता से पेड़-पौधों कि खेती-बाड़ी करने और पशुपालन करने वाले लोगों में परिवर्तित होने वाले जनसमूह के रूप में पहचाना जाता है | पॉलिश किए गए नए औजारों ने मानवों के लिए खेती-बाड़ी, शिकार करने और अन्य गतिविधियों से संबद्ध कामों को आसान कर दिया था । इसके परिणामस्वरूप खाद्य संसाधनों कि बहुतायत में उपलब्धता से जनसंख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज कि गई और बढ़ती आबादी के कारण गांवों कि स्थायी आबादियों में भी वृद्धि हुई । नव पाषाण युग कि सभ्यताओं ने ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कीं, जिनसे बाद के समय में शहरों और कस्बों के विकास में सहायता मिली।

प्रागैतिहासिक कला :-

चट्टानों पर चित्रकारी मध्य पाषाण युग के लोगोन की बहुत ही महत्वपूर्ण और भिन्न विशेषता थी यद्यपि इसकी शुरुआत के संकेत उत्तर पुरापाषाण काल में भी पाए गए हैं । यह चित्रकारी चट्टानों में बनाए गए बसेरों की दीवारों पीआर बनाई गई थी और इनमें से अधिकतर चित्रकारी मध्य प्रदेश में भीमबेट्का में पाई गई हैं। इनसे मध्य पाषाण लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन की झांकी मिलती है | चित्रकारी में पाए गए चित्रों का मुख्य विषय है -शिकार, मछ्ली पकड़ना और भोजन एकत्र करना। जंगली सूअर, भैंस, बकरी और नीलगाय आदि के चित्र आमतौर पीआर मिलते हैं। चट्टानों पीआर की गई चित्रकारियों में बच्चे का जन्म, बच्चों का पालन-पोषण और दफनाये जाने की रीतियाँ पूरी किए जाने संबंधी चित्र भी दर्शाए गए हैं | एक समूह में रहकर शिकार करने के दृश्यों से संकेत मिलता है की मध्य पाषाण काल के लोग समूह बनाकर रहते थे | अतः हम यह कह सकते हैं की मध्य पाषाण कालिक समाज पुरापाषाण युग के लोगों से अधिक स्थिर था । यद्यपि शिकार-संग्रहण अभी भी इंका मुख्य पेशा था।