![भारत की मिट्टी: वर्गीकरण, गुण एवं संरक्षण [Indian Soil Classification, Properties and Conservation UPSC NCERT Notes]](https://mlvvxpsmh4vh.i.optimole.com/w:150/h:150/q:mauto/rt:fill/g:ce/f:best/https://naraynum.com/wp-content/uploads/2023/11/Indian-Soil-Classification-Properties-and-Conservation.jpg)
भारत की मिट्टी –
किसी भी देश का भौगोलिक अध्ययन करते समय वहां की मिट्टी का अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक है। मिट्टी का परीक्ष प्रभाव किसी भी देश की आर्थिक दशा पर पड़ता है। मिट्टी धरातल के 15 सेमी गहरी या मोटी उस पर्त को कहते हैं जिनसे पौधे अपना भोजन ग्रहण करते हैं। वैसे तो मिट्टी की गहराई लगभग 3 मी से 6 मी मानी जाती है, किन्तु पौधों की जड़ों को आवश्यक भोजन (खनिज लवण वनस्पति के सड़े-गले अंश, वायु और प्रकाश) धरातल के ऊपरी सतह में ज्यादा पाये जाते हैं। इन तहों की उत्पत्ति सगतल की टूटी हुई शैलों से होती है। मिट्टी के निर्माण में वनस्पति एवं शैलों के टूटे हुए कणों का विशेष महत्त्व होता है। इन तत्त्वों पर सबसे ज्यादा प्रभाव जलवायु का पड़ता है। वनस्पति के निर्धारण में तापमान, वर्षा, शैलों की टूटने की गति, वृष्टि, बहते हुए जल और वायु का विशेष महत्त्व होता है। मिट्टी के निर्माण में पुरानी शैलों के रासायनिक गुण और जलवायु का होना अत्यन्त आवश्यक है। जैसे दक्षिण की काली मिट्टी के निर्माण में ज्वालामुखी के लावा शेलों का विशेष महत्त्व है जिससे इसका रंग काला होता है। इस मिट्टी में लोहे, चूने और ऐलुमिनियम का अंश पाया जाता है |
भारत की मिट्टी का वर्गीकरण (Classification of Indian Soil) –
भारत में शैलों के स्वभाव एवं भिन्न-भिन्न प्रकार की स्थानीय जलवायु के कारण अनेक प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। भारत में पायी जानेवाली मिट्टी को सामान्यतः छह वर्गों में रखा गया है, जो निम्न हैं-
- पर्वतीय मिट्टी (Mountain Soil)
- जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil)
- मरुस्थलीय मिट्टी (Desert Soil)
- काली मिट्टी (Black Soil)
- लाल मिट्टी (Red Soil)
- लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil)
पर्वतीय मिट्टी-
जिस प्रकार विषुवत् रेखा से दूर चलने पर ताप और वर्षा की विभिन्नता के कारण अलग-अलग प्रकार की मिट्टी के कटिबन्ध मिलते हैं उसी प्रकार पर्वतों के नीचे से ऊपर जाने पर कई प्रकार की मिट्टियाँ मिलती हैं। नीचे के ढाल पर भूरी मिट्टी, इसके ऊपर हल्की भूरी मिट्टी और पर्वतीय भाग पर भूरे रंग की मिली-जुली मिट्टी मिलती है। भारत में लगभग 2 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर पर्वतीय मिट्टियों का विस्तार है। हिमालय के पर्वतीय भाग में नवीन, पथरीली, सरन्ध्र तथा चूनायुक्त मिट्टियाँ पायी जाती हैं। दक्षिणी भाग में कंकड़, पत्थर एवं मोटे कणोंवाली वायुयुक्त मिट्टी तथा देहरादून, नैनीताल और पौड़ी में चुनायुक्त मिट्टी पायी जाती है। हिमालय के ऊँचे भागों में आग्नेय चट्टानों से निर्मित मिट्टी पायी जाती है। इस मिट्टी पर चाय की खेती, फलों की खेती और सूखे मेवों की खेती अच्छी होती है। सिंचाई की सुविधा मिलने पर इस मिट्टी में गेहूँ, चावल आदि की खेती अच्छी होती है।
जलोढ़ मिट्टी –
यह मिट्टी नदियों द्वारा लायी गयी भूमि के संचय से बनी है। यह नवीन और उपजाऊ मिट्टी है। इस मिट्टी का महत्त्व इसलिए है क्योंकि यह अत्यन्त उपजाऊ है और यह भारत के 7.7 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैली है। भारत के विशाल उत्तरी मैदान में नदियों द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में बहाकर लायी गयी जीवांश युक्त उर्वरक मिट्टी मिलती है जिसे ‘कॉप’ या ‘कछारी’ मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी देश के 40% भाग पर पायी जाती है। इस मिट्टी के निर्माण में गंगा, यमुना और सतलज नदियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जलोढ़ मिट्टी पूर्वी तटीय मैदानों, विशेष रूप से महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टाई प्रदेशों में सामान्य रूप से मिलती है। बाढ़ के समय नदियों के किनारे नवीन जलोढ़ मिट्टी का विस्तार अधिक हो जाता है। जिन भागों में बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता वहाँ पर पुरानी जलोढ़ मिट्टी पायी जाती है जिसे ‘बांगर मिट्टी’ (Bangar Soil) कहते हैं। नदियों के जिन भागों में नदियों द्वारा बहाकर लायी गयी नवीन कॉप मिट्टी का जमाव पाया जाता है उसे ‘खादर मिट्टी’ (Khandar Soil) कहते हैं। नवीन जलोढ़ मिट्टी पुरानी जलोढ़ मिट्टी से ज्यादा उर्वरक होती है।
जलोढ़ मिट्टी ज्यादा उर्वरक होती है, जिसमें सभी प्रकार के फसलों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है। इस मिट्टी में चूना, पोटाश और फास्फोरिक अम्ल अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। इन मिट्टियों में नाइट्रोजन और जैविक पदार्थ कम मात्रा में पाये जाते हैं। भारत की 50% जनसंख्या के लिए कृषि कार्य द्वारा भोजन इसी मिट्टी पर उत्पन्न किया जाता है। इसमें गेहूँ, गन्ना, चावल, तिलहन, तम्बाकू और जूट की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।
मरुस्थलीय मिट्टी-
मरुस्थलीय मिट्टी थार के मरुस्थल और उसके निकटवर्ती शुष्क प्रदेशों में पायी जाती है। इस मिट्टी के कण बड़े होते हैं। इस मिट्टी को स्थानीय भाषा में कल्लार, ऊसर, थूर तथा रॉकड़ आदि नामों से पुकारा जाता है। इस मिट्टी में क्षारीय एवं लवणयुक्त तत्त्वों की मात्रा ज्यादा पायी जाती है। इस मिट्टी में जल ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती है। इस मिट्टी में जीवांशों का भी अभाव रहता है। इस मिट्टी का विस्तार 114 लाख हेक्टेयर पर है। इस मिट्टी के कण असंगठित नहीं होते जिससे वायु इसको एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़ाकर आसानी से ले जाती है। इस मिट्टी में वायु और प्रकाश का प्रवेश भी आसानी से हो जाता है। इस मिट्टी में उपजाऊ क्षमता कम होती हैं परन्तु सिंचाई के द्वारा इन मिट्टियों में ज्वार, बाजरा, मूँगफली तथा उड़द आदि फसलों की खेती की जाती है। इस मिट्टी का विस्तार पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, दक्षिणी पंजाब तथा दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा में पाया जाता है।
काली मिट्टी –
इस मिट्टी का निर्माण लावायुक्त पदार्थों से हुआ है। प्राचीन काल में दक्षिण के पठार में ज्वालामुखी के उद्गार से लावा बहकर धरातल के ऊपर फैल गया और ठण्डा होकर ठोस रूप में जम गया जो आज काली मिट्टी के रूप में स्पष्ट हो गया है। इस मिट्टी को ‘काली मिट्टी’ (Black Soil) या ‘रेगूर मिट्टी’ (Regur Soil) भी कहते हैं। इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अधिक होती है। इसमें लोहा, फास्फोरस, चूना, मैग्नीशियम, ऐलुमिनियम और जीवांश के तत्त्वों की मात्रा अधिक पायी जाती है। इस मिट्टी का विस्तार लगभग 5.1 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में है। महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा और दक्षिण मध्य प्रदेश के पठारी भागों में यह मिट्टी विस्तृत है। इस मिट्टी का विस्तार दक्षिण में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों की घाटियों में मिलता है। इस मिट्टी के निर्माण में जलवायु दशाएँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इसी कारण इस मिट्टी का विस्तार लावा पठार के अलावा अन्य जगहों पर भी है।
इस प्रकार की मिट्टी कपास की कृषि के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसीलिए इसे ‘कपास की काली मिट्टी’ कहते हैं । पानी पड़ते ही यह मिट्टी चिपचिपी हो जाती है | लसदार होने के कारण इसमें नमी काफी समय तक बनी रहती है | इसलिए इस मिट्टी में सिंचाई की आवश्यकता कम होती है। इस मिट्टी में कुछ दोष भी है। सूखने पर यह मिट्टी बहुत कड़ी होकर फट जाती है जिससे भूमि में दरार पड़ जाती है। इस तरह की स्थिति में हल चलाना कठिन हो जाता है। उर्वरता के कारण यह मिट्टी सबसे ज्यादा उपयोगी है। इसमें बिना खाद डाले ही खेती की जा सकती है।
लाल मिट्टी –
इस मिट्टी का रंग लाल इसलिए होता है क्योंकि गर्मी के दिनों में कैपिलरी छिद्रों द्वारा मिट्टी पर लोहे का जंग उतर आता है। जंग आने से यह लगने लगता है कि इस मिट्टी का निर्माण उन शैलों के टूटने से हुआ होगा जिसमें लोहे का अंश अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसका विस्तार तमिलनाडु राज्य में ज्यादा है। यह मिट्टी उष्ण कटिबन्धीय है जो ताप्ती नदी की उत्तरी सीमा पर बहुतायत में मिलती है। ताप्ती नदी के उत्तर में बुन्देलखण्ड को आर्कियन शैलों से प्राप्त मिट्टी तथा असम में पायी जानेवाली मिट्टी का रंग भी लाल है। दक्षिण में छोटा नागपुर का पठार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक तथा दक्षिणी-पूर्वी महाराष्ट्र राज्य में इस प्रकार की मिट्टी पायी जाती है। इस मिट्टी में फास्फोरस, नाइट्रोजन तथा वनस्पति के सड़े-गले अंशों का अभाव होता है इसलिए यह मिट्टी अनुपजाऊ प्रकार की मिट्टी है। इस मिट्टी में ज्वार-बाजरा की खेती ही होती है।
लैटेराइट मिट्टी-
लैटेराइट मिट्टी का रंग भी लाल और हल्का पीला होता है। यह मिट्टी बड़े कणवाली होती है। इस मिट्टी में कंकड़ और पत्थर के टुकड़े अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। यह मिट्टी अनुपजाऊ प्रकार की है इसीलिए लैटेराइट मिट्टी के प्रदेशों में जनसंख्या और वनस्पति का अभाव रहता है। इस लैटेराइट मिट्टी में मैग्नीशियम, नाइट्रोजन और चूने का अभाव रहता है जो कि पौधों का मुख्य भोजन है।
लैटेराइट मिट्टी दक्षिण के पठार और पहाड़ियों की मुख्य मिट्टी है। इस प्रकार की मिट्टी उष्ण कटिबन्ध के उन भागों में ज्यादा पायी जाती है जहाँ मानसूनी वर्षा अधिक होती है। अधिक वर्षा की वजह से मिट्टी में पायी जानेवाली सिलिका पानी के साथ बह जाता है। इसमें ऐलुमिनियम, आइरन ऑक्साइड तथा मैग्नीशियम अंश ज्यादा पाया जाता है। मध्य प्रदेश के पूर्वी घाट, मालाबार तट, दक्षिणी महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजमहल और असम में यह मिट्टी पायी जाती है। जुताई एवं खाद का इस्तेमाल करके इसमें ज्वार, बाजरा, गेहूँ, दलहन आदि की फसलें उत्पन्न की जाती हैं। यह मिट्टी भारत के 8 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर फैली है।
भारतीय मिट्टी के गुण (Qualities of Indian Soil) –
भारत में पायी जाने वाली मिट्टियों में निम्न गुण पाये जाते हैं-
- भारत में पायी जाने वाली पर्वतीय मिट्टी भूरे रंग की मिश्रित उर्वरक मिट्टी होती है जिसमें चावल व चाय की खेती अच्छी होती है। भारत में पायी जानेवाली जलोढ़ मिट्टी में पोटाश, चूना व फास्फोरस की मात्रा अधिक पायी जाती है। अपनी उर्वरा शक्ति के लिए यह विश्व प्रसिद्ध है। भारत की 50% जनसंख्या का भरण-पोषण इसी मिट्टी पर उत्पन्न फसलों से होता है। इस मिट्टी में गेहूँ, चावल, गन्ना, जूट आदि फसलें उत्पन्न की जाती हैं।
- भारत में पायी जानेवाली मरुस्थलीय मिट्टी में क्षारीय गुण पाया जाता है। इसमें सोडियम, मैग्नीशियम और कैल्शियम की मात्रा ज्यादा पायी जाता है। इसमें ज्वार, बाजरा, मूँगफली और उड़द की खेती होती है। पवन द्वारा यह मिट्टी एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़कर चली जाती है।
- भारत में पायी जानेवाली काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी के उद्गार से निकले लावा से हुआ है। इसीलिए यह मिट्टी उपजाऊ है। इसमें नमी धारण करने की क्षमता ज्यादा है। इसमें कपास की खेती होती है इसीलिए इसे कपास की काली मिट्टी कहते हैं। सूखने पर इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं।
- भारत में पायी जानेवाली लाल मिट्टी में फास्फोरस, जीवांश व नाइट्रोजन की कमी होती है, इसीलिए यह मिट्टी कम उपजाऊ है। इस मिट्टी में ज्वार, बाजरा, दाल व तिलहन की खेती की जाती है।
- भारत में पायी जानेवाली लैटेराइट मिट्टी का रंग पीला होता है। लैटेराइट मिट्टी कम उपजाऊ होती है। इसमें मोटे अनाज जैसे- चाय, रबड़, काजू, कहवा व गन्ने की खेती की जाती है।
- भारत में अधिक वर्षावाले भागों में मिट्टी का अपरदन तेजी से होता है। भारत के मैदानी भागों में भी मिट्टी का अपरदन तेजी से होता है। मरुस्थलीय भाग में मिट्टी के अपरदन में वायु की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होती है।
- भारत में ज्यादातर समय ऊँचा तापमान का पाया जाता है जिससे मिट्टियों का भौतिक और रासायनिक विघटन होता रहता है।
- भारत में लगातार कृषि करने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम होती जा रही है।
- भारत में पायी जानेवाली अधिकांश मिट्टी प्राचीन जलोढ़ मिट्टी है, जो अत्यन्त गहरी और उपजाऊ होती है। जलोढ़ मिट्टी के अतिरिक्त भारत में पायी जानेवाली मिट्टी कम उपजाऊ और पतली परतवाली होती है |
भारतीय मिट्टी का संरक्षण (Conservation of Indian Soil) –
भारत में लगातार कृषि, वर्षा, भौतिक और रासायनिक विघटन के कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो रही है। इस उर्वरा शक्ति को बनाये रखना अत्यन्त जरूरी है। मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखना ही मिट्टी का संरक्षण कहलाता है। मिट्टी के संरक्षण के लिए निम्न उपाय करने चाहिए-
- मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि के लिए रासायनिक खादों की अपेक्षा जैविक खादों का इस्तेमाल करना चाहिए।
- मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए खेतों में मेंड़ बनाना, बाँध बनाना और पशुओं की अनियन्त्रित चराई पर रोक लगाना चाहिए।
- खेतों से जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
- ढालों के विपरीत जुताई करके मिट्टी की उर्वरा शक्ति को कायम रखना चाहिए।
- नालियों और गड्ढों को समतल करना चाहिए।
- खेतों में हरी खादवाली फसलों को उगाना चाहिए।
- खेतों में प्रतिवर्ष फसलों को बदल-बदलकर उगाना चाहिए जिससे खेतों की उर्वरा शक्ति बनी रहे।
भारत में मिट्टी के अपरदन और मिट्टी के स्थायी संरक्षण के लिए सन् 1953 में केन्द्रीय संरक्षण बोर्ड की स्थापना की गयी। इसके मुख्य रूप से तीन उद्देश्य थे-
- कटावयुक्त भूमि को कृषि योग्य भूमि में बदलना।
- मरुस्थलों के विस्तार पर नियन्त्रण लगाना।
- वर्तमान कृषि योग्य भूमि की उर्वरा शक्ति में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जयपुर, जोधपुर, देहरादून व कोटा में अनेक अनुसंधानशालाएँ स्थापित की गयी हैं।