प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857: कारण एवं परिणाम [Indian Rebellion of 1857 UPSC NCERT Notes]


प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857: कारण एवं परिणाम [Indian Rebellion of 1857 UPSC NCERT Notes]
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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम –

लार्ड कैनिंग के समय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना गदर थी, जो 1857 ई० में आरम्भ हुआ। ब्रिटिश शासकों की दमनकारी नीति के चलते भारतीय जनमानस में भारी असन्तोष था। अंग्रेजी कुशासन का भारत के सभी वर्गों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत में दो प्रमुख कार्य थे-साम्राज्य बढ़ाना और भारत का व्यापारिक और आर्थिक शोषण करना। अंग्रेजों की धन-लोलुपता की कोई सीमा नहीं थी। ब्रिटिश शासकों की अत्याचार एवं दमनकारी नीति के विरुद्ध भारतीयों का रोष समय-समय पर भारत के भिन्न-भिन्न भागों में सैनिक संघर्ष अथवा जन-विद्रोहों के रूप में प्रकट होता रहा था, जैसे 1806 ई० में बेल्लौर में, 1824 ई० में बैरकपुर में, 1842 में फिरोजपुर में संघर्ष हुए। इसके अतिरिक्त 1816 ई० में बरेली उपद्रव, 1831-33 ई० का कोल संघर्ष, 1848 में काँगड़ा, जसवार और दातारपुर के राजाओं का संघर्ष, 1855-56 ई० में संथालों का संघर्ष। ये संघर्ष अनेक राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक कारणों से हुए थे। इसी तरह के विद्रोह की ज्वाला 1857 ई० में धधक उठी जिसने अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ तक को हिला दिया। इसीलिए इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया।

1857 ई० की स्वतन्त्रता-संग्राम के कारण –

1857 ई० की क्रान्ति का कारण कोई एक विशेष घटना मात्र नहीं था, बल्कि इसके संघर्ष के कारण अधिक गूढ़ थे और वे जून, 1757 ई० के प्लासी के युद्ध से 6 अप्रैल, 1857 को मंगल पाण्डे द्वारा की गयी अंग्रेज अधिकारी की हत्या तक के अंग्रेजी शासन के 100 वर्ष के इतिहास में निहित थे। चर्बी वाले कारतूस और सैनिकों का संघर्ष तो केवल एक चिनगारी मात्र थी, जिसने उन समस्त विस्फोटक पदार्थों में जो राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक असन्तोष के कारणों से एकत्रित हुए थे, आग लगा दी। परिणामस्वरूप 1857 ई० में असन्तोष की ज्वाला ने विकराल रूप धारण कर लिया।

राजनीतिक कारण –

  1. राज्यों को हड़पने की नीति – 1857 ई० की क्रान्ति का प्रमुख कारण लार्ड डलहौजी की राज्य अपहरण नीति थी। इस नीति के द्वारा डलहौजी ने सन्तानहीन भारतीय राजाओं पर उत्तराधिकार निषेध एवं गोद निषेध नियम लागू कर उनके राज्यों को बलात् अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। परिणामस्वरूप देशी राजाओं में अत्यधिक असन्तोष उत्पन्न हो गया और वे अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने को तत्पर हो गये। इनमें सतारा, नागपुर तथा झाँसी के राज्य प्रमुख थे।
  1. कुशासन के आधार पर राज्यों का अपहरण – लार्ड डलहौजी ने कुशासन को आधार बनाकर हैदराबाद के निजाम तथा अवध के नवाब वाजिदअली शाह के विरुद्ध कार्रवाई की और उनके राज्यों का अपहरण कर लिया।
  1. पेंशन तथा पदों की समाप्ति – लार्ड डलहौजी ने पेंशन तथा पदवियों को छीनने का प्रयास किया। उसकी इस नीति के शिकार पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहब हुए। फलतः नाना साहब ने विद्रोह का सहारा लिया।
  1. सरकारी नौकरियों में भेद-भाव – सरकारी नौकरियों में उच्च पदों पर केवल ब्रिटिश नागरिक ही नियुक्त किये जाते थे। भारतीयों को उच्च सेवा करने का अधिकार नहीं था। फलतः भारतीय बुद्धिजीवी के मन में क्रान्ति की ज्वाला फूट पड़ी।
  1. भारतीयों में अंग्रेजी शासन के प्रति अविश्वास – कम्पनी के अधिकारी कभी भी भारतीय जनता का विश्वास नहीं प्राप्त कर सके। वे सदैव विदेशी बने रहे। फलतः भारतीय जनता के साथ अंग्रेजों का विश्वास कभी भी स्थापित न हो सका, जो कालान्तर में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का कारण बना।

आर्थिक कारण

  1. अंग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति – अंग्रेजों की आर्थिक नीतियाँ भारतीय व्यापार और उद्योगों के विरुद्ध थीं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राजनीतिक शक्ति के प्रयोग के फलस्वरूप भारतीय हस्तशिल्प और व्यापार का सर्वनाश हो गया। अंग्रेजों ने भारतीय सूती कपड़े व अन्य उद्योगों से उत्पादित वस्तुओं पर भारी कर लगाकर भारतीय व्यापारियों की आर्थिक स्थिति को चौपट कर दिया और धीरे-धीरे अंग्रेजी उत्पादों को भारतीय मण्डियों में भर दिया। परिणामस्वरूप भारत का व्यापारी वर्ग क्षुब्ध हो गया।
  1. दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था – अंग्रेजों की भूमिकर व्यवस्था तो बहुत ही अप्रिय एवं दोषपूर्ण थी। उन्होंने जमींदारों को भूमि का स्थायी स्वामी बना दिया जो किसानों से मनमाना भू-राजस्व वसूल करने लगे। अब भारतीय किसान अपनी जीविका चलाने में अक्षम हो गया। परिणामस्वरूप भारतीय समाज का सामान्य एवं बहुसंख्यक वर्ग भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने को तैयार हो गया।
  1. भारतीय उद्योगों का विनाश – अंग्रेजों की आर्थिक साम्राज्यवाद की नीतियों ने भारत के उद्योगों को चौपट कर दिया। यहाँ के हस्तशिल्पों का पतन होने लगा। भारत के कारीगरों का बना माल मशीनों से बने माल के सामने टिक न सका।
  1. बेरोजगारी की समस्या- अंग्रेजों की इसी आर्थिक नीति के कारण बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हो गयी। वस्त्र उद्योग में लगे जुलाहे पूर्णत: बेकार हो गये।

धार्मिक कारण –

  1. ईसाई धर्म का प्रचार- अंग्रेजों ने भारतीयों का धार्मिक उत्पीड़न किया। अंग्रेज अधिकारी मेजर एडवर्ड्ज ने स्पष्ट रूप से कहा था, “भारत पर हमारे अधिकार का अन्तिम उद्देश्य पूरे देश को ईसाई बनाना है।” अंग्रेज अधिकारी भारतीय सैनिकों को ईसाई बनने के लिए प्रेरित करते थे। अंग्रेजों की यह धर्मान्तरण की नीति उनके विरुद्ध संघर्ष का कारण बन गयी।
  1. गोद-निषेध की नीति धर्म-विरुद्ध – लार्ड डलहौजी ने गोद लेने (दत्तक पुत्र) की प्रथा का अन्त कर भारतीयों की धार्मिक भावनाओं एवं मान्यताओं का तिरस्कार किया, जिससे भारतीय अंग्रेजों के विरुद्ध होते चले गये।
  1. धार्मिक भेदभाव की नीति – सरकार की ओर से ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों को आर्थिक सहायता दी जाने लगीं तथा उन्हें सरकारी नौकरी भी आसानी से प्राप्त होने लगी। इससे भी भारतीय समाज में अंग्रेजों के प्रति प्रतिशोध की भावना पैदा हो गयी।

सामाजिक कारण –

  1. भारतीयों के प्रति तिरस्कार की नीति – अंग्रेज भारतीयों को हीन समझते थे तथा उनका सामाजिक तिरस्कार करते थे। भारतीयों को सामाजिक अपमान असहय था । इससे भी भारतीय अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध आन्दोलित हो गये।
  1. भारतीयों के साथ अपमानजनक व्यवहार – यूरोपीय अधिकारी वर्ग भारतीयों के प्रति बहुत कठोर तथा असहनशील थे। वे भारतीयों को काले अथवा सूअर की संज्ञा देते थे। अंग्रेज प्रत्येक अवसर पर भारतीयों का अपमान करने से नहीं चूकते थे। अंग्रेजों के अपमानजनक व्यवहार को भारतीय स्वाभिमान बर्दाश्त न कर सका और अपने अपमान के प्रतिशोध में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए कमर कसकर तैयार हो गया।

सैनिक कारण –

  1. उच्च पदों से वंचित भारतीय – सेना में ऊँचा से ऊँचा पद जो किसी भारतीय को मिल सकता था, वह सूबेदार का था जिसमें केवल ₹ 60 या ₹ 70 मासिक वेतन मिलता था, इसमें पद-वृद्धि के अवसर बहुत ही कम थे। समान पदों पर कार्य करते हुए भी भारतीय सैनिकों को वे सुख-सुविधाएँ नहीं प्राप्त होती थीं जो अंग्रेज सैनिकों को प्रदान की जाती थीं। भेद-भाव की इस नीति ने सैनिकों में. क्रान्ति की भावना भर दी।
  1. चर्बी युक्त कारतूसों का प्रयोग – 1856 में अंग्रेजी सरकार ने पुरानी लोहे वाली बन्दूक के स्थान पर एक नवीन राइफल जो अधिक अच्छी थी, का प्रयोग करने का निश्चय किया। इस नयी राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को मुँह से काटना पड़ता था। जनवरी, 1857 ई० में बंगाल सेना में यह बात फैल गयी कि नयी राइफल के कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी है। सैनिकों को विश्वास हो गया कि चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग उन्हें धर्मभ्रष्ट करने का एक निश्चित षडयंत्र है। परिणामस्वरूप सैनिकों में क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी।
  1. वेतन में असमानता – अंग्रेज सिपाहियों की अपेक्षा भारतीय सिपाहियों को कम वेतन मिलता था। यह असमानता भारतीय सैनिकों के लिए असह्य हो गयी।

1857 ई० के संग्राम का विस्फोट –

सैनिकों द्वारा चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करना अस्वीकार कर दिये जाने पर उन पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर उन्हें दण्डित किया गया। विरोध में 29 मार्च, 1857 ई० को बैरकपुर छावनी में सैनिकों ने न केवल विद्रोह किया, वरन् मंगल पाण्डे नामक वीर सैनिक ने अपने एडजुटेंट (Adjutant) की गोली मार कर हत्या कर दी। परिणामस्वरूप उन्हें 8 अप्रैल, 1857 ई० को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। मई, 1857 ई० में मेरठ में सैनिकों ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। उन्हें सैनिक न्यायालय ने दीर्घकालीन कारावास का कठोर दण्ड सुनाया। फलतः 10 मई को सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया और अपने अधिकारियों पर गोली चला दी। अपने बन्दी साथियों को मुक्त कराकर वे लोग दिल्ली की ओर चल पड़े।

क्रान्तिकारियों ने 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुरशाह द्वितीय को भारत का सम्राट घोषित कर दिया गया। क्रान्ति शीघ्र ही समस्त उत्तरी और मध्य भारत में फैल गयी। लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, बनारस, बिहार के कुछ भाग, झाँसी और कुछ अन्य क्षेत्रों में भी क्रान्ति भड़क उठी। दिल्ली नगर का हाथ से निकलना अंग्रेजों के लिए एक भारी क्षति थी, इसलिए अंग्रेजों ने दिल्ली को फिर से प्राप्त करने का प्रयत्न किया। पंजाब से सेनाएँ बुलायी गयीं और उत्तर की ओर से आक्रमण किया गया। भारतीय सैनिकों ने घोर संग्राम किया किन्तु अन्त में सितम्बर, 1857 ई० में अंग्रेजों का दिल्ली पर पुनः अधिकार हो गया। इसी प्रकार 6 दिसम्बर, 1857 ई० को जनरल कैम्पबेल ने नाना साहब को हराकर कानपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। मार्च, 1858 ई० में अंग्रेजों ने लखनऊ पर भी अधिकार कर लिया। 3 अप्रैल, 1858 ई० को जनरल ह्यरोज ने झाँसी पर विजय प्राप्त कर ली। अप्रैल, 1858 में जगदीशपुर (बिहार) के कुँवर सिंह ने क्रान्ति का बिगुल बजा दिया किन्तु वे असफल ही रहे। दिसम्बर, 1858 ई० तक समग्र भारत पर अंग्रेजों की सत्ता पुनः स्थापित हो गयी।

प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफलता के कारण –

1857 ई० की क्रान्ति की असफलता के निम्नलिखित कारण थे :

  1. समय से पूर्व क्रान्ति की शुरुआत – क्रान्ति का 31 मई, 1857 ई० के पूर्व प्रारम्भ होना क्रान्ति की असफलता का कारण बना। यदि यह क्रान्ति अपनी निश्चित तिथि पर समग्र भारत में एक साथ होती तो इसका दमन करना अंग्रेजों के लिए असम्भव हो जाता। समय से पूर्व प्रारम्भ हो जाने के कारण यह क्रान्ति व्यापक रूप धारण न कर सकी। यह केवल नगरों तक सीमित हो गयी। इसे ग्रामीण जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त न हो सका।
  1. क्रान्तिकारियों के पास सीमित साधन – अंग्रेजी साम्राज्य के साधन क्रान्तिकारियों के साधनों की अपेक्षा बहुत अधिक थे। भारतीय क्रान्तिकारियों के पास आग्नेयास्त्रों (बन्दूकों) का सर्वथा अभाव था। वे परम्परागत तलवारों व भालों से लड़ते थे, जबकि दूसरी ओर अंग्रेजी सेना आधुनिकतम हथियारों; जैसे- राइफल, तोप आदि से सुसज्जित थी। फलतः स्वतन्त्रता सेनानी इनका सामना करने में असफल रहे।
  1. अंग्रेजों के पास कुशल सेनापतियों का बाहुल्य – कम्पनी को लॉरेन्स बन्धु, निकलसन, आउट्रम, कैम्पबेल, नील, ह्यूरोज- जैसे विशेष योग्य सेनानायकों की सेवाएँ प्राप्त थीं। ये अनुभवी सैनिक थे। इन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी स्थिति को सँभाल कर रखा। दूसरी ओर भारतीय पक्ष में कुशल नेतृत्व के लिए योग्य सेनानायकों का अभाव था। स्वतन्त्रता सेनानी मात्र सैनिक थे। यद्यपि इनमें रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब आदि वीर सेनानी थे, किन्तु इनमें सेना की संगठनशक्ति का अभाव था। यही कुशल नेतृत्व का अभाव भारतीयों की असफलता का कारण बना।
  1. सीमित क्षेत्र में क्रान्ति – सन् 1857 की क्रान्ति स्थानीय, सीमित और असंगठित थी। बम्बई (मुम्बई) और मद्रास (चेन्नई) – की सेनाएँ अंग्रेजी राज्य की भक्त बनी रहीं। नर्मदा नदी के दक्षिण के प्रदेश में सामान्यतया शान्ति बनी रही तथा सिन्ध और राजस्थान का भी सहयोग नहीं प्राप्त हुआ। फलतः यह क्रान्ति असफल ही रही।
  1. क्रान्ति में एकता का अभाव – 1857 ई० की क्रान्ति का स्वरूप मुख्यतः सामन्तवादी था। एक तरफ अवध, रुहेलखण्ड तथा उत्तरी भारत के सामन्तवादी तत्त्वों ने क्रान्ति का समर्थन और नेतृत्व किया तो दूसरी ओर पटियाला, ग्वालियर, हैदराबाद के शासकों ने इस क्रान्ति के दमन में सहायता प्रदान की।
  1. नौसैनिक शक्ति का अभाव – भारतीय क्रान्तिकारियों के पास कोई नौसैनिक शक्ति नहीं थी। फलत: वे समुद्री मार्ग द्वारा इंग्लैण्ड से आ रही युद्ध सामग्री व अंग्रेजी सेना को भारत में आने से रोक न सके। इस प्रकार अंग्रेजों ने ब्रिटिश साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों से अत्यधिक संख्या में सैनिक बुलाकर भारत में एकत्रित कर लिये ।
  1. अंग्रेजों के पास अच्छी संचार व्यवस्था – अंग्रेजों की सफलता का मुख्य कारण उनकी विद्युत तार व्यवस्था थी। अंग्रेज अपनी इस संचार व्यवस्था के माध्यम से क्रान्तिकारियों की गतिविधियों से सदैव अवगत रहे। यदि भारतीय क्रान्तिकारी अंग्रेजों की इस व्यवस्था को नष्ट कर देते तो क्रान्ति के परिणाम अवश्य ही कुछ और होते।
  1. निश्चित उद्देश्य का अभाव – प्रारम्भ में क्रान्तिकारियों का एक सामान्य लक्ष्य था कि बहादुरशाह द्वितीय को भारत की गद्दी पर बैठाया जाय किन्तु जब अंग्रेजों ने बहादुरशाह को बन्दी बना लिया तो क्रान्तिकारियों का यह लक्ष्य समाप्त हो गया। अब क्रान्तिकारियों के सम्मुख विदेशी विरोध भावना के अतिरिक्त कोई अन्य सामान्य उद्देश्य नहीं रह गया। अब अंग्रेजों ने परिस्थिति का लाभ उठाकर हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने का प्रयास किया। इससे भी क्रान्ति को निर्बल होना पड़ा।
  1. सफल नेतृत्व का अभाव – क्रान्तिकारियों के पास कोई कुशल तथा अनुभवी नेता नहीं था। नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, कुँवर सिंह सभी अपने-अपने ढंग से संघर्ष कर रहे थे। इस प्रकार प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन असफल सिद्ध हुआ।

1857 ई० के स्वतन्त्रता-संग्राम के परिणाम –

यद्यपि भारतीयों को अपने इस स्वाधीनता-आन्दोलन में असफलता का आलिंगन करना पड़ा, किन्तु इसका देशव्यापी असर हुआ। वास्तव में यह आन्दोलन शीघ्र ही अंग्रेजी सत्ता के लिए चुनौती बनकर खड़ा हो गया। इसके परिणाम बड़े ही महत्त्वपूर्ण एवं दूरगामी सिद्ध हुए –

  • भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का पूरी तरह अन्त हो गया और भारत पर ब्रिटिश शासन की प्रभुसत्ता स्थापित हो गयी।
  • ब्रिटिश सरकार ने बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को भंग करके उनके स्थान पर भारतीय राज्य सचिव की व्यवस्था की, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की कौंसिल बनायी गयी। गवर्नर जनरल के पदनाम में परिवर्तन कर उसे वायसराय कर दिया गया।
  • इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया ने 1858 ई० में घोषणा करके भारतीयों को उदारवादी शासन तथा अन्य सुविधाएँ देने का आश्वासन दिया।
  • भारत में ब्रिटिश सेना के अन्तर्गत अंग्रेज सैनिकों की संख्या में वृद्धि की गयी ।
  • इस क्रान्ति के फलस्वरूप अंग्रेजों और भारतीयों में कटुता उत्पन्न हो गयी।
  • अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम जनता में फूट डालकर शासन करने की नीति अपनायी।
  • भारत में राष्ट्रीय जागरण को नयी दिशा प्राप्त हुई।
  • भारत में वैधानिक शासन का विकास प्रारम्भ हो गया।
  • भारतीयों में स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष की प्रवृत्ति बढ़ी ।
  • अंग्रेजों ने डलहौजी की अपहरण नीति का परित्याग करते हुए भारतीय नरेशों को दत्तक पुत्र लेने की अनुमति प्रदान की।
  • निष्कर्षत: 1857 की क्रान्ति ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ें हिला कर रख दिया।

1857 के विद्रोह के प्रमुख केन्द्र एवं विद्रोही नेता –

केन्द्रविद्रोही नेताविद्रोह की तिथिउन्मूलन के सैन्य अधिकारी
दिल्लीबहादुरशाह द्वितीय, बख्त खां11 मई, 1857निकल्सन, हडसन
कानपुरनाना साहब, तात्या टोपे5 जून, 1857काॅलिन कैम्पबेल
लखनऊबेगम हजरत महल, बिरजिस कादिर4 जून, 1857काॅलिन कैम्पबेल
झाँसीरानी लक्ष्मी बाई4 जून, 1857जनरल ह्यूरोज
जगदीशपुरकुँवरसिंह, अमरसिंह12 जून, 1857विलियम टेलर, विंसेण्ट
फैजाबादमौलवी अहमदुल्लाजून, 1857जनरल रेनाॅर्ड
इलाहाबादलियाकत अलीजून, 1857जर्नल रीड
बरेलीखान बहादुरजून, 1857विंसेण्ट आयर

1857 ई० के स्वाधीनता-संग्राम के प्रमुख नेता –

  1. मंगल पाण्डे – मंगल पाण्डे बैरकपुर की ब्रिटिश छावनी के एक बहादुर सैनिक थे। 29 मार्च, 1857 ई० को परेड करते समय उन्होंने गाय और सूअर की चर्बी से युक्त कारतूस का प्रयोग करने से साफ इनकार कर दिया। अतः अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें हथियार डाल देने का आदेश दिया तो उन्होंने उत्तेजित होकर दो अंग्रेज अधिकारियों को गोलियों से छलनी कर दिया। बाद में वीर मंगल पाण्डे को बन्दी बनाकर 8 अप्रैल, 1857 ई० को फाँसी के फन्दे पर लटका दिया गया। मंगल पाण्डे का यह बलिदान 1857 ई० की क्रान्ति का तात्कालिक कारण बन गया।
  1. बहादुरशाह जफर – बहादुरशाह जफर भारत के अन्तिम मुगल सम्राट थे। यद्यपि उनकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी, फिर भी जब मई, 1857 ई० को मेरठ के क्रान्तिकारियों ने बहादुरशाह को अपना नेता चुना और क्रान्ति की बागडोर उन्हें सौंप दी तो उन्होंने वीरतापूर्वक अंग्रेजों से लोहा लिया और तीन माह तक दिल्ली को अंग्रेजी प्रभाव से मुक्त रखा, किन्तु अंग्रेजों की बढ़ती हुई शक्ति के सामने अन्ततः उन्हें पराजित होकर बन्दी होना पड़ा। 1862 ई० में उनकी मृत्यु हो गयी।
  1. नाना साहब – नाना साहब मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। इनका वास्तविक नाम धुन्धु पन्त था। अंग्रेजों ने उन्हें पेन्शन देकर बिठूर भेज दिया था। कालान्तर में लार्ड डलहौजी ने उनकी पेन्शन बन्द कर दी जिससे नाना साहब अंग्रेजों के विरोधी हो गये और 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान कानपुर को अंग्रेजों से छीन लिया।
  1. कुँवर सिंह – कुँवर सिंह जगदीशपुर (बिहार) के राजा थे। प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन को कुँवर सिंह ने भरपूर सहयोग दिया तथा स्वयं अनेक स्थानों पर अंग्रेजी सेना से जमकर लोहा लिया और अंग्रेजों को पराजित किया। कुँवर सिंह पक्के राष्ट्रभक्त थे। वे आजीवन राष्ट्र सेवा में लगे रहे।
  1. तात्या टोपे – तात्या टोपे महान राष्ट्रभक्त, वीर सेनानी तथा नाना साहब के अभिन्न सहयोगी थे। प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन में इन्होंने कई स्थानों पर अंग्रेजी सैनिकों को भारी नुकसान पहुँचाया और पराजित भी किया। अन्त में विश्वासघात कर अंग्रेज भारतमाता के इस वीर सेनानी को बन्दी बनाने में सफल हुए। तत्पश्चात् 1859 ई० में इन्हें मृत्युदण्ड दे दिया गया।
  1. रानी अवन्तीबाई – रानी अवन्तीबाई मध्य | प्रदेश की एक छोटी रियासत रामगढ़ की रानी एवं वीरांगना नारी थीं। रानी ने प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय अंग्रेजों से डटकर मोर्चा लिया और अन्त में अपनी रियासत की रक्षा एवं राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया।
  1. रानी लक्ष्मीबाई – रानी लक्ष्मीबाई झाँसी के राजा गंगाधर राव की पत्नी थीं। 1853 ई० में राजा की मृत्यु के बाद वे दामोदर राव नामक एक बालक को दत्तक पुत्र के रूप में लेकर स्वयं झाँसी का राज-काज देखने लगीं। परन्तु लार्ड डलहौजी ने गोद- निषेध नीति के तहत झाँसी को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। रानी ने इसे अस्वीकार कर दिया और अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए कमर कस ली। काफी संघर्ष के बाद भी रानी ने हार नहीं मानी और अन्त में देश की रक्षा में लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गयीं।
  1. बेगम हजरत महल – बेगम हजरत महल एक वीर, साहसी एवं निर्भीक महिला थीं। इन्होंने प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम के समय लखनऊ के क्रान्तिकारियों का न केवल नेतृत्व किया वरन् कुछ समय के लिए लखनऊ को अंग्रेजों की सत्ता से मुक्त कर दिया। कालान्तर में अंग्रेजों की बढ़ती शक्ति एवं सेना का सामना न कर पाने के कारण वे सम्भवतः नेपाल चली गयीं और अन्त में उनकी वहीं मृत्यु हो गयी। भारतीय स्वतन्त्रता – आन्दोलन के क्रान्तिकारियों में इनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है।