
भारतीय व्यवसाय :-
प्रकृति द्वारा प्राप्त संसाधनों का उपयोग करके मानव अपने लिये जो उपयोगी वस्तु प्राप्त करता है उसे ‘प्राथमिक व्यवसाय’ कहते हैं। प्राथमिक व्यवसाय में कृषि, पशुपालन, खनन, मत्स्य पालन सम्मिलित हैं। ये मानव जीवन के विकास के प्रथम सोपान हैं। इन व्यवसायों के माध्यम से मनुष्य की भौतिक व आधारभूत आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। प्राथमिक व्यवसायों में मनुष्य प्रकृति प्रदत्त पदार्थों का परम्परागत विधि से दोहन करके उपयोगी बनाता है, जैसे-मिट्टियों को जोतकर कृषि कार्य करना, जंगलों को काटकर लकड़ी प्राप्त करना, पशुओं से दूध एवं माँस की प्राप्ति करना, समुद्रों से मछली पकड़ना और पृथ्वी के धरातल के अन्दर से खनन द्वारा खनिज पदार्थ निकालना ही प्राथमिक व्यवसाय कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से निम्न व्यवसायों को शामिल किया जाता है-
- पशुपालन
- मत्स्य
- कृषि
- खनन।
पशुपालन (Animal Husbandry) :-
भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारतीय कृषि में पशुओं का विशेष स्थान है इसीलिए भारत के ग्रामीण इलाकों में कृषि के साथ ही पशुपालन का कार्य भी होता है। भारत में खेत, किसान और पशु मिलकर ‘कृषि पारितन्त्र’ की रचना करते हैं। इस पारितन्त्र में पशुओं का स्थान महत्त्वपूर्ण है। पशुओं से खेत की जुताई, बुआई, गहाई तथा सिंचाई का काम लिया जाता है। इसके साथ ही कृषि से उत्पन्न फसलों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य भी पशुओं द्वारा ही किया जाता है। पशुओं से दूध, दही, घी, मक्खन जैसे पौष्टिक पदार्थ प्राप्त होते हैं इसीलिए गाय-बैल एवं भैंस को किसान का सच्चा मित्र कह सकते हैं। पशुओं के गोबर से उत्तम जैविक खाद एवं ईंधन की भी आपूर्ति होती है।
गाय-बैल-भैंस :-
भारत में सबसे ज्यादा पशु पाये जाते हैं। 2012 की पशु गणना के अनुसार यहाँ 19 करोड़ गाय-बैल तथा 10 करोड़ भैंसें थीं। भारत के कुल पशुधन का 37.28% गाय-बैल, 21.23% भैंसे, 26.40% बकरियाँ तथा 12.71% भेड़ें भारत में पायी जाती हैं। भारतीय पशु अच्छी नस्ल के नहीं होते। इन पशुओं में उच्च प्रतिरोधन क्षमता होती है इसलिए इनकी माँग समस्त विश्व में होती है। इन पशुओं की नस्ल के सुधार के लिए जगह-जगह कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र बनाये गये हैं। वर्ष 1998-99 में भारत में 735 लाख टन दूध उत्पन्न हुआ था। वर्ष 2016-17 के अंत तक 1500 लाख टन दूध का उत्पादन हुआ। दूध के उत्पादन में भैंसों का सबसे अधिक योगदान है। भारत में पशुपालन एवं दुग्ध उद्योग के विकास के लिए राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की स्थापना की गयी है। इस संस्था द्वारा चलाया गया अभियान (श्वेत क्रान्ति) आपरेशन फ्लड (operation flood) सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत के 9 करोड़ दुग्ध उत्पादक इस बोर्ड को प्रतिदिन अपना दूध बेचते हैं
उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक गाय-बैल एवं भैंसें पाली जाती हैं। यहाँ देश के 15% गाय-बैल एवं भैंसें मिलती हैं। मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल में भी गाय-बैल एवं भैंसें पाली जाती हैं। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान एवं गुजरात में उत्तम नस्ल के पशु पाये जाते हैं।
भेड़ (Sheep) :-
भारत के पहाड़ी भागों में जहाँ 30 सेमी से 75 सेमी वर्षा होती है, भेड़ पालन होता है। इस समय भारत में 6.5 करोड़ भेड़ें हैं। एक भेड से 1 किग्रा से 1.5 किग्रा तक ऊन प्राप्त होता है। वर्ष 2002-03 में 460 लाख किग्रा ऊन का उत्पादन हुआ था। भारत में जम्मू- कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय भाग, उत्तरांचल प्रदेश के गढ़वाल, अल्मोड़ा तथा नैनीताल जिले, पंजाब में लुधियाना, अमृतसर, पटियाला तथा हरियाणा में हिसार एवं अम्बाला भेड़-पालन के मुख्य क्षेत्र हैं। भारत में भेड़ की नस्ल में सुधार के लिए 20,000 मेरीनो भेड़ों का आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड से आयात किया गया है।
बकरी (Goat) :-
बकरी को गरीब की गाय कहा जाता है। बकरी को दूध, मांस, चमड़ा तथा बाल प्राप्ति के लिए पाला जाता है। भारत में 13.5 करोड़ बकरियाँ हैं। गुजरात, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु में सर्वाधिक बकरियाँ पाली जाती हैं। विश्व की 40% बकरियाँ भारत में हैं।
मुर्गीपालन :-
भारत में मुर्गीपालन का कार्य प्राचीन काल से ही हो रहा है परन्तु भारतीय अर्थव्यवस्था में पिछले कुछ दशकों में इस क्षेत्र में तीव्र विकास हुआ है। 1950- 51 में अण्डों का वार्षिक उत्पादन 1.8 अरब था जो 2013-14 में 73.89 अरब अण्डा हो गया। अण्डों के उत्पादन में भारत का विश्व में तीसरा स्थान है। वर्ष 1992 की पशु-जनगणना के आधार पर देश में 30.70 करोड़ मुर्गियाँ तथा बत्तखें थीं।
आपरेशन फ्लड योजना (Operation Flood) :-
देश में दुग्ध उत्पादन में क्रान्तिकारी वृद्धि लाने के लिए जुलाई, 1970 से आपरेशन फ्लड नामक योजना प्रारम्भ की गयी। इस योजना का मुख्य उद्देश्य गाँवों का समन्वित विकास करना, गाँवों के किसानों को खाली समय में पशुपालन व्यवसाय पर ध्यान केन्द्रित करना था जिससे न केवल बड़े कृषकों को बल्कि लघु कृषकों तथा भूमिहीन श्रमिकों को भी अतिरिक्त आय की प्राप्ति हो। इस योजना ने गाँवों के विकास में निम्न प्रकार योगदान दिया-
- छोटे व सीमान्त किसानों की आय में वृद्धि सम्भव हो सकी।
- इसके द्वारा कृषि के लिए कम्पोस्ट खाद और बायोगैस भी मिलने लगी।
- भूमिहीन मजदूर पशुपालन द्वारा अपने परिवार की निर्धनता दूर कर सका।
- दुग्ध का उत्पादन अधिक होने से नगरों में इसका वितरण भी बढ़ गया है जिसके कारण गाँवों और नगरों के बीच की दूरी कम हुई।
- इसके कारण लोगों में सहकारिता की भावना उत्पन्न हुई ।।
भारत वर्तमान में विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है। 2013-14 में भारत द्वारा 137.69 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन किया गया। इस क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर 3.54% दर्ज की गयी। वर्ष 2012-13 में प्रत्येक व्यक्ति के लिए 296 ग्राम दूध प्रतिदिन उपलब्ध था।
मत्स्य व्यवसाय (Fishing Occupation) :-
भारत की तट रेखा 15,200 किमी लम्बी है। भारत में अन्तः स्थलीय क्षेत्रों में मछलियों की संख्या कम है। इसके लिए सागरों की तली में जाना होगा | मछलियों को समुद्र से पर्याप्त मात्रा में भोजन प्राप्त होता है। भारत में इन्हीं कारणों से मत्स्य उद्योग के विकास की अधिक सम्भावना है। 1950-51 में केवल 7.5 लाख मीट्रिक टन मछलियाँ पकड़ी गयीं। 2011-12 में यह उत्पादन बढ़कर 87.0 लाख टन हो गया। भारतीय मछुआरे कुशल और साहसी होते हैं। भारत में मछली भण्डारण की भी उचित व्यवस्था है। स्वतन्त्रता- प्राप्ति के पश्चात् देश में विकसित की गयी बहुउद्देशीय परियोजनाओं के अन्तर्गत बाँधों के पीछे निर्मित जलाशयों और नदियों में मत्स्य उद्योग का विकास किया गया। इन क्षेत्रों से काफी मात्रा में मछलियाँ पकड़ी जा रही हैं। भारत का विश्व में मछली उत्पादन में दूसरा स्थान है। मत्स्य उद्योग को एक सशक्त रोजगार के रूप में विकसित किया गया है। भारत अपने मछली उत्पाद को जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन एवं फ्रांस को निर्यात करता है। ताजे जल के मछली उत्पादन में भारत चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। भारत ने वर्ष 2013-14 की अवधि में देश का कुल मत्स्य उत्पादन 9.58 मिलियन टन रहा जिसमें अन्तर्देशीय क्षेत्र का योगदान 6.17 मिलियन टन और समुद्री क्षेत्र का योगदान 3.41 मिलियन टन रहा।
कृषि व्यवसाय (Agricultural Occupation) :-
भारत कृषि प्रधान देश हैं। यहाँ पर 52% जनसंख्या कृषि कार्य करती है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। देश की लगभग 2/3 जनसंख्या कृषि कार्य करती है। भारत में कृषि से देश की जनसंख्या को भोजन, पशुओं को चारा और उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है। भारत की राष्ट्रीय आय का 14.1% कृषि से ही प्राप्त हो जाता है। भारत के व्यापार का 14% कार्य कृषि से प्राप्त साधनों से होता है। यहाँ अधिकांश खेती मानसून पर निर्भर करती है और मानसून की स्थिति अनिश्चित होती है। इसीलिए भारत में खेती को मानसून का जुआँ कहा जाता है। भारत में भौगोलिक विभिन्नताओं के कारण मिट्टी और जलवायु में पर्याप्त विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। इसी कारण भारत में कृषि की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं, जो निम्न हैं-
- स्थानान्तरित कृषि – यह कृषि की सबसे पुरानी पद्धति है। इसमें एक जगह की भूमि की उर्वरा शक्ति खत्म हो जाने पर दूसरे जगह की भूमि पर कृषि कार्य किया जाता है।
- स्थायी कृषि – मानव सभ्यता के विकास के साथ ही इस पद्धति की शुरुआत हुई। इस पद्धति में किसान एक ही स्थान पर कृषि कार्य करता है, जैसे गंगा-यमुना का दोआब क्षेत्र ।
- निर्वाह कृषि – इसमें किसान कृषि कार्य अपने जीवन निर्वाह के लिए करता है। अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्रों में यह पद्धति प्रचलित है।
- व्यापारिक कृषि – इस कृषि पद्धति में खेती का कार्य बड़े-बड़े फार्मों में मशीनों द्वारा किया जाता है। इसमें किसानों को अपनी फसल का पूरा मूल्य प्राप्त होता है; जैसे–गेहूँ, गन्ना एवं कपास ।
- रोपण कृषि – यह कृषि की अत्यन्त विशिष्ट पद्धति है। इसमें एक ही फसल को खेतों में एक बार बो दिया जाता है जिससे काफी समय तक उपज प्राप्त होती रहती है। जैसे– चाय, महवा, रबड़ एवं मसाले की खेती।
भारतीय कृषि की समस्याएँ (Problems of Indian Agriculture) :-
भारत में कृषि का पर्याप्त विकास हुआ है फिर भी यहाँ की कृषि अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं। ये समस्याएँ निम्न हैं-
- कृषि पर जनसंख्या का दबाव ऐसा है कि प्रतिवर्ष हजारों हेक्टेयर भूमि आबादी एवं कल-कारखानों से घिर जाती हैं, जिससे कृषियोग्य भूमि कम होती जा रही है।
- भारत में अधिकतर कृषि जोतें आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं हैं। कृषि के छोटे जोतों के कारण उनमें आधुनिक कृषि उपकरणों का प्रयोग करना कठिन कार्य हैं।
- कृषि भूमि का वितरण काफी असन्तुलित है।
- एक ही भूमि पर निरन्तर कृषि कार्य होने से उसकी उर्वरा शक्ति कम होती जा रही है। वनों की कमी के कारण भी कृषि भूमि की उर्वरता कम हो रही है।
- भारतीय किसान अशिक्षित व निर्धन हैं जिसके कारण वे नये एवं उन्नत किस्म के बीजों एवं खादों का प्रयोग करने में असमर्थ हैं।
- भारत में सिंचाई की सुविधाओं की कमी है। भारत के अधिकांश क्षेत्रों में कृषि पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर है। जिस वर्ष वर्षा कम होती है उस वर्ष उत्पादन भी कम होता है।
- भारत की अधिक जनसंख्या भी कृषि की सबसे बड़ी समस्या है।
भारतीय कृषि की समस्याओं को दूर करने के उपाय (Ways to solve the problems of Indian agriculture) :-
भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पिछले कुछ वर्षों से भारतीय कृषि अपने जीवन निर्वहन रूप को त्यागकर व्यापारिक कृषि का रूप धारण करती जा रही है, जिसके द्वारा भारतीय कृषि की समस्याएँ कम हो रही हैं। इसके लिए निम्न उपाय करने चाहिए-
- छोटी-छोटी अनार्थिक जोतों को चकबन्दी व्यवस्था द्वारा जोड़ दिया जाय ताकि बड़ी जोत आर्थिक दृष्टि से लाभकारी बन सकें।
- अधिक उत्पादन के लिए उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग करना।
- भारत में सहकारी आन्दोलन द्वारा बड़ी जोतों में मशीनों के प्रयोग से अधिक अन्न उत्पन्न करना।
- फसलों को रोगों और कीड़ों-मकोड़ों से बचाव के लिए कीटनाशक का प्रयोग करना।
- शुष्क कृषि में मेड़बन्दी और समोच्च जुताई करना जिससे मिट्टी के कटाव को रोककर उसकी नमी बरकरार रखी जा सके।
- अत्याधुनिक कृषि उपकरणों का प्रयोग करना ।
- कृषि उपज के भण्डारण के लिए अनेक स्थानों पर भण्डार गृहों की स्थापना करना ।
- सरकार द्वारा कृषि उपजों का मूल्य निर्धारण करना।
- कृषि कार्यों के लिए आसान शर्तों पर किसानों को सरकारी ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था ।
- सिचाई सुविधाओं का विकास करना।
- मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखने के लिए मिट्टी संरक्षण प्रबंधन की व्यवस्था ।
भारतीय कृषि को जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सर्वप्रथम चकबन्दी द्वारा छोटी कृषि जोतों को आपस में मिलाकर आर्थिक दृष्टि से लाभकारी बनाना और भविष्य में होनेवाले बँटवारे पर रोक लगाना चाहिए। छोटे व सीमान्त कृषकों को भूमि पर सहकारिता के आधार पर आधुनिक कृषि यन्त्रों की सहायता से वैज्ञानिक तरीके से कृषि करने की व्यवस्था करना चाहिए।
कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए सरकारी प्रयास :-
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी है। इसी को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से कृषि को आत्मनिर्भर, प्रगतिशील उद्योग बनाने पर बल दिया है। ये प्रयास निम्न हैं-
- जमींदारी प्रथा का अन्त करके बिचौलियों की भूमिका को खत्म कर दिया गया जिससे कृषि भूमि सिर्फ किसानों की होती है।
- सरकार ने खेतों के बिखरे रूप को समाप्त करके चकबन्दी की व्यवस्था कर दी है जिससे किसान एक ही स्थान पर खेती करने और उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित हैं।
- सरकार ने सहकारी आन्दोलन को प्रोत्साहित करके किसानों को सहकारी समिति से उत्तम बीज, रासायनिक खाद, कृषि ऋण उपलब्ध करके कृषि उत्पादन प्रणाली में सुधार किया है जिससे किसानों को ऋण के लिए महाजनों के शोषण का सामना नहीं करना पड़ता।
- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सरकार ने अनेक भण्डारण एवं कृषिगत संस्थाओं की स्थापना की है जैसे- राष्ट्रीय बीज निगम, केन्द्रीय भण्डार निगम, भारतीय खाद्य निगम, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् एवं कृषि विश्वविद्यालय ।
- सिंचाई के साधनों में विस्तार किया गया, ऊर्जा आपूर्ति की व्यवस्था की गयी और आधुनिक पद्धति द्वारा कृषि के उत्पादन में वृद्धि करने के उपाय किसानों को बताये गये।
भारत की कृषि फसलें (Agriculture Crops in India) :-
भारत में पैदा होनेवाली कृषि फसलों को तीन वर्गों में बाँटा गया है-
- खाद्यात्र फसलें गेहूँ, चावल, ज्वार-बाजरा, दालें, मक्का और तिलहन ।
- औद्योगिक फसलें- गन्ना, कपास, जूट, रेशम, फल।
- पेय एवं बागाती फसलें- चाय, कहवा, रबड़, तम्बाकू ।
खाद्यान्न फसलें (Crops of Food grains) :-
1. गेहूँ (Wheat) :-
गेहूँ भारत की प्रमुख खाद्य फसल है। गेहूँ उत्पादन की दृष्टि से भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है। भारत में गेहूँ की खेती शीतकाल में होती है। भारत की लगभग 10% भूमि पर गेहूँ की कृषि की जाती है। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप गेहूँ की खेती में भारी वृद्धि हुई है।
आवश्यक भौगोलिक दशाएँ – गेहूँ समशीतोष्ण कटिबन्धीय फसल है। गेहूँ बोते समय तापमान 10°C. पकते समय 12°C व काटते समय 25°C होना चाहिए। इसके लिए 50 सेमी से 75 सेमी वर्षा आवश्यक है। चिकनी व दोमट मिट्टी गेहूँ की कृषि के लिए अच्छी होती है। इसको काटने के लिए ज्यादा श्रमिकों की आवश्यकता होती है।
उत्पादन क्षेत्र – भारत के उत्तरी विशाल मैदान मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूँ उत्पन्न होता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गुजरात एवं महाराष्ट्र में गेहूँ उत्पन्न किया जाता है। उत्तरी भाग में 70% गेहूँ उत्पन्न किया जाता हैं। उत्तर प्रदेश में भारत का सबसे ज्यादा गेहूँ उत्पन्न होता है तथा पंजाब दूसरे स्थान पर है। यहाँ पर 20% गेहूँ उत्पन्न होता है।
गेहूँ का उत्पादन एवं व्यापार – सन् 1950-51 में 97 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर 68 लाख टन गेहूँ का उत्पादन हुआ था। 1998-99 में यह क्षेत्र 273.9 लाख हेक्टेयर हो गया जिस पर 707.7 लाख टन गेहूँ का उत्पादन हुआ था । सन् 2003-2004 में 727.4 लाख टन गेहूँ का उत्पादन हुआ। 2014-15 में 88.94 मिलियन टन गेहूँ का उत्पादन हुआ। भारत विदेशों से गेहूँ का आयात किया करता था परन्तु हरित क्रान्ति की वजह से अब भारत गेहूँ उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है।
2. चावल (Rice)
चावल भारत की सबसे प्रमुख खाद्यान्न फसल है। भारत के 1/4 भाग पर चावल की कृषि की जाती है। समस्त विश्व का 21.6% चावल भारत में उत्पन्न किया जाता है, इसलिए चावल उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है। भारत में चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन चीन से कम है।
भौगोलिक दशाएँ – चावल उपोष्ण कटिबन्धीय फसल है। इसके लिए 20°C से 27°C तापमान की आवश्यकता होती है। चावल की खेती के लिए 150 सेमी से 200 सेमी वर्षा आवश्यक है। चावल के लिए उपजाऊ दोमट मिट्टी जिस पर पानी ठहर सके होना अत्यन्त आवश्यक है। चावल को खेत में छिड़कने में बाँधने, रोपाई करने, फसल काटने और धान कूटने के लिए पर्याप्त संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है।
चावल उत्पादक क्षेत्र – भारत में चावल की उपज मुख्य रूप से निम्न भागों में अधिक होती है- (1) पश्चिमी तटीय मैदान (2) डेल्टाई प्रदेश तथा पूर्वी तटीय मैदान (3) उत्तर-पूर्वी मैदानी भाग (4) हिमालय का तराई प्रदेश (5) पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, उत्तरी आन्ध्र प्रदेश एवं उड़ीसा राज्य मुख्य हैं। पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सिचाई के द्वारा चावल उत्पन्न किया जाता है। हिमालय का तराई भाग उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत आता है।
उत्पादन एवं व्यापार – सन् 1950-51 में भारत में 308 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर 206 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ था। 1998-99 में चावल का क्षेत्रफल 446 लाख हेक्टेयर हो गया जिस पर 860 लाख टन चावल उत्पन्न किया गया है। 2003-04 में देश में 863.5 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ। 2006-2007 में 950 लाख टन एवं 2014-15 में चावल का उत्पादन 104.80 मिलियन टन हुआ। पहले भारत को विदेशों से चावल मँगाना पड़ता था परन्तु इस क्षेत्र में आश्चर्यजनक वृद्धि के कारण चावल उत्पादन में भारत आत्मनिर्भर हो गया है।
3. ज्वार बाजरा (Jowar Bajra) :-
ज्वार-बाजरा और रागी को मोटे अनाजों की श्रेणी में रखा जाता है। ज्वार बाजरा खरीफ की फसले हैं। इन फसलों को गरीब लोगों का खाद्यान्न कहते हैं। इन फसलों का प्रयोग पशुओं के खिलाने के लिए भी किया जाता है।
भौगोलिक दशाएँ – ज्वार-बाजरा उष्ण एवं शुष्क प्रदेशों की उपज हैं। इसके लिए 10°C से 25°C तापमान की आवश्यकता होती है। इन उपजों के लिए 40 सेमी से 60 सेमी वर्षा पर्याप्त होती है। इसको सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जाता है परन्तु इसके लिए हल्की दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त होती है।
ज्वार-बाजरा उत्पादक क्षेत्र – मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश भारत का 3/4 से अधिक ज्वार-बाजरा उत्पन्न करता है। महाराष्ट्र 40% और कर्नाटक 20% ज्वार बाजरा उत्पन्न करता है। बाजरा उत्पादन में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है। राजस्थान, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश में भी बाजरा उत्पन्न किया जाता है।
उत्पादन एवं व्यापार – भारत में 2014-15 में 97.0 लाख हेक्टेयर भूमि पर 14.01 मिलियन टन बाजरा उगाया गया था। ज्वार- बाजरा में गेहूं और चावल की अपेक्षा अधिक प्रोटीन होता है।
4. मक्का :-
मक्का के उत्पादन में भारत एशिया में दूसरे स्थान पर और विश्व में दसवें स्थान पर है। इसको खरीफ फसलों के अन्तर्गत उगाया जाता है। खाद्यान्न के साथ इसका उपयोग पशु चारे के रूप में भी होता है।
भौगोलिक दशाएँ – मक्का उष्णाई जलवायु का पौधा है। इसके लिए 25°C से 30°C तापमान आवश्यक है। मक्का की कृषि के लिए 50 सेमी से 100 सेमी वर्षा होना आवश्यक है। मक्का की खेती के लिए दोमट सरन्ध्र मिट्टी व ढालू भूमि अत्यन्त आवश्यक है।
मक्का उत्पादक क्षेत्र – भारत में सबसे अधिक मक्का उत्तर प्रदेश में उत्पन्न किया जाता है। यहाँ भारत का 20% मक्का उत्पन्न होता है। इस दृष्टि से मध्य प्रदेश दूसरे स्थान पर, राजस्थान तीसरे स्थान पर हैं। बिहार में भी मक्का उत्पन्न किया जाता है।
उत्पादन एवं व्यापार – सन् 1960-61 में भारत में मक्का का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 926 किग्रा था जो सन् 1990-91 में बढ़कर 1.518 किग्रा और 1998-99 में 1755 किग्रा हो गया। 2014-15 में 23.67 मिलियन टन मक्का का उत्पादन हुआ।
5. दालें एवं दलहन :-
भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है। भारतीय शाकाहारी हैं इसलिए ये प्रोटीन के लिए दालों का ही प्रयोग करते हैं। माँग की तुलना में भारत में कम दाल उत्पन्न होती है जिससे दाल गरीब लोगों की पहुँच से बाहर हैं। चना, उर्द, अरहर, मूँग, मसूर तथा मटर भारत में पैदा होनेवाली दालों की किस्में हैं।
भौगोलिक दशाएँ – समस्त भारत में दाल उत्पन्न की जाती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में दाल नहीं उत्पन्न होती है। दालें फलीदार पौधों के रूप में उत्पन्न होती है। यह मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करती है। दालों की फसल को अन्य फसलों के साथ उगाया जाता है। इसीलिए इन्हें अदल-बदल कर उगाया जाता है।
उत्पादन एवं व्यापार – भारत में बढ़ती हुई जनसंख्या के हिसाब से दाल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन बहुत कम है। इन फसलों की उपज बढ़ाने के लिए ‘राष्ट्रीय दाल विकास परियोजना’ शुरू की गयी। भारत में 1950-51 में दलहन के अन्तर्गत 1.9 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल था जो बढ़कर 2.3 करोड़ हेक्टेयर तथा वार्षिक उत्पादन लगभग 1.30 करोड़ टन हो गया। देश में 2012-13 के दौरान 18.34 मिलियन टन दलहन का उत्पादन हुआ।
6. तिलहन (Oil Seeds) :-
खाद्यात्रों के अतिरिक्त तिलहन यानी वनस्पति तेल भी भोजन के मुख्य अंग हैं। मूंगफली, सरसों, तिल, सोयाबीन, सूरजमुखी प्रमुख तिलहनी फसलें हैं। भारत में उत्पन्न तिलहनी फसलों में 60% से अधिक योगदान मूँगफली और सरसों का है। भारत में 2012-13 में 30.94 मिलियन टन तिलहन का उत्पादन हुआ।
- मूँगफली – मूंगफली ब्राजील का मूल पौधा है।
- भौगोलिक दशाएँ- इसकी खेती उष्णकटिबन्धीय जलवायु में होती है। इसके लिए 15°C से 25°C तापमान आवश्यक है। इसकी खेती के लिए 75 सेमी से 150 सेमी वर्ष आवश्यक है। उत्पादन क्षेत्र – भारत में 90% मूँगफली आन्ध्र प्रदेश एवं तेलंगाना में उत्पन्न की जाती है। तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और ओडिशा में भी मूँगफली पैदा की जाती है।
- उत्पादन एवं व्यापार – मूँगफली के उत्पादन में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है। 2011-12 में 6.96 मिलियन टन मूँगफली उत्पन्न हुई थी। भारत में 50% मूँगफली का उपयोग तेल निकालने के लिए किया जाता है। 15% उपयोग भूनकर खाने में होता है। शेष 35% मूँगफली कनाडा एवं यूरोपीय देशों को निर्यात की जाती है।
- सरसों – भारत में सरसों रबी फसल के साथ बोयी जाती है। इसकी खेती गेहूं, चना और मटर की फसलों के साथ होती है।
- भौगोलिक दशाएँ – सरसों की खेती के लिए 20°C से 25°C तापमान की आवश्यकता होती है। इसके लिए 75 सेमी से 150 सेमी वर्षा उपयुक्त होती है।
- उत्पादन क्षेत्र – भारत में सरसों की खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पश्चिमी बंगाल, पंजाब, मध्य प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान राज्यों में होती है।
- उत्पादन एवं व्यापार – सन् 1950-51 में 7.6 लाख टन सरसों का उत्पादन हुआ था जो 1998-99 में बढ़कर 61 लाख टन हो गया। पश्चिमी बंगाल और बिहार राज्यों से सरसों ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और बेल्जियम को भेजी जाती है। वर्ष 2003-04 में तिलहन का उत्पादन 249.80 लाख टन हुआ। 2006-07 के दौरान तिलहन का उत्पादन 300 लाख टन तक पहुँच गया लेकिन 2007-2008- में तिलहन का उत्पादन घटकर 280 लाख टन रह गया और 2014-15 में 26.67 मिलियन टन है।
औद्योगिक फसलें (Commercial Crops) :-
1. गन्ना (Sugarcane) :-
गन्ना भारत का मूल पौधा है। यह भारत की महत्त्वपूर्ण औद्योगिक फसल है। गन्ना उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है। गन्ना उत्पादन में ब्राजील प्रथम स्थान पर है।
भौगोलिक दशाएँ (Geographical Conditions) – यह उपोष्ण कटिबन्ध का पौधा है। इसके लिए 20°C से 25°C तापमान आवश्यक होता है। गन्ने के लिए 100 सेमी से 150 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। इसके लिए गहरी दोमट मिट्टी जिसमें नमी लम्बे समय तक बनी रहे, की आवश्यकता होती है। गन्ने की कटाई, निराई एवं गुड़ाई के लिए अधिक श्रमिकों की आवश्यकता होती है। गन्ने की खेती के लिए चमकीली धूप और स्वच्छ आकाश का होना आवश्यक होता है।
उत्पादक क्षेत्र – भारत का लगभग आधा गन्ना अकेले उत्तर प्रदेश में पैदा होता है। इस दृष्टि से महाराष्ट्र का स्थान दूसरा है। यहाँ 13% गन्ना उत्पन्न होता है। प्रति हेक्टेयर उत्पादन में तमिलनाडु प्रथम स्थान पर है। कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश में भी गन्ना उत्पन्न किया जाता है।
उत्पादन एवं व्यापार – 1960-61 में 24 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर 1,100 लाख टन गन्ना का उत्पादन हुआ था। 1998-99 में 2957 लाख टन गन्ना उत्पन्न हुआ था। पिछले 40 वर्षों में गन्ने का क्षेत्र बढ़कर लगभग 11, गुना और उत्पादन 2, गुना हो गया है। 2014-15 में देश में 359.33 मिलियन टन गन्ने का सर्वोच्च उत्पादन हुआ।
2. कपास (Cotton) :-
कपास रेशेदार और औद्योगिक फसल है। बोये गये क्षेत्र के हिसाब से भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है। भारत में विश्व का 10% कपास उत्पन्न होता है।
भौगोलिक दशाएँ – कपास उष्णकटिबन्धीय जलवायु का पौधा है। इसके लिए 20°C से 30°C तापमान आवश्यक होता है। 60 सेमी से 80 सेमी वर्षा, गहरी काली दोमट मिट्टी कपास के लिए उपयुक्त है। कपास की खेती के लिए शुष्क मौसम और चमकीली धूप उपयुक्त होती है। सस्ते श्रमिकों की भी आवश्यकता होती है।
उत्पादन क्षेत्र – आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में कपास की खेती होती है।
उत्पादन एवं व्यापार – वर्ष 1950-51 में कपास का उत्पादन 30 लाख गाँठ का जो 2004-05 में बढ़कर 232 लाख गाँठों के सर्वोच्च स्तर पर पहुँच गया। 2006 एवं 2007 में 255 लाख गाँठ एवं 2014-15 में 35.47 मिलियन टन गाँठों का उत्पादन हुआ। भारत में लम्बी रेशेवाली कपास अमेरिका, सूडान, मिस्र एवं कीनिया से आयात की जाती है। भारत छोटे रेशेवाली कपास का निर्यात जापान को करता है। वर्ष 2012-13 में भारत ने ₹ 55,003.70 करोड़ के वस्त्र निर्यात किये।
3. जूट (Jute) :-
जूट भारत का मूल पौधा है। भारत विश्व का 40% जूट उत्पन्न करता है। जूट का उपयोग टाट, बोरियाँ और रस्सी बनाने के लिए किया जाता है। जूट को सोने का रेशा कहा जाता है।
भौगोलिक दशाएँ – जूट उष्णाई जलवायु का पौधा है। इसके लिए 25°C से 35°C तापमान आवश्यक हैं। 100 सेमी से अधिक वर्षा जूट की खेती के लिए आवश्यक है। दोमट, जलोढ़ मिट्टी जूट की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। नदियों की घाटी और डेल्टाई भागों में जूट की खेती होती है। जूट की खेती के लिए सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है। जूट के रेशों को सड़ाने के लिए अधिक मात्रा में जल की भी आवश्यकता होती है।
उत्पादन क्षेत्र – पश्चिमी बंगाल में 65% जूट का उत्पादन होता है। असीम में 15% और बिहार में 13% जूट उत्पन्न होता है। ओडीसा में 6% और उत्तर प्रदेश के डेल्टाई भागों में भी जूट की खेती होती है।
उत्पादन एवं व्यापार – वर्ष 1960-61 में 6 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर जूट की कृषि की जाती थी जो बढ़कर 2001-02 ई० में 9 लाख हेक्टेयर हो गयी। सन् 1960-61 ई० में जूट का उत्पादन 41 लाख गाँठों (1 गाँठ 180 किग्रा) का था जो 2002-03 में बढ़कर 107.8 लाख गाँठें हो गया। 2006-2007 में 112.5 लाख गाँठों का उत्पादन हुआ। 2014-15 में इसका उत्पादन बढ़कर 11.45 मिलियन टन गाँठ रह गया। भारत बांग्लादेश से जूट आयात करता है। भारत जूट से बनी वस्तुओं को फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका आदि देशों को निर्यात करता है।
4. रेशम :-
भारत प्राचीन काल से ही रेशम का उत्पादक और उपभोक्ता रहा है। रेशम की प्राप्ति के लिए शहतूत के वृक्षों पर कीड़े पाले जाते हैं। एक पौण्ड भार के रेशम उत्पादक कीड़े एक वर्ष में एक टन शहतूत की पत्तियों को अपना भोजन बना लेते हैं।
उत्पादन क्षेत्र – भारत में कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश व तेलंगाना, असोम, पश्चिमी बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में मुख्य रूप से रेशम का उत्पादन किया जाता है।
उत्पादन एवं व्यापार – भारत का रेशम उत्पादन लगभग 18000 टन है जो विश्व उत्पादन का 20% है। 1980-81 में रेशम का कुल उत्पादन 5000 टन था जो 1986-87 में बढ़कर 8785 टन हो गया था। पहले भारत जापान से रेशम आयात करता था। अब भारत रेशम की वस्तुओं का निर्माण कर उनका निर्यात करता है। इसके निर्यात से प्रति वर्ष लगभग ₹250 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। भारत को रेशम निर्यात करने में चीन का विशेष सहयोग प्राप्त होता है। 2001-02 में रेशम उत्पादन 17,351 मीट्रिक टन के रिकार्ड उत्पादन स्तर पर पहुँच कर सूखे के कारण वर्ष 2011-12 में यह घटकर 20,410 मीट्रिक टन हो गया।
5. फल :-
विश्व फल उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 11% है। आम व केला उत्पादन में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है। उष्णकटिबन्धीय जलवायु के कारण भारत में फल भारी मात्रा में उत्पन्न किया जाता है। भारत के आम व केला की माँग विदेशों में भी है । शीतोष्ण कटिबन्धीय फलों में सेब, आलू बुखारा, आडू, बादाम, खुबानी, अंगूर आदि मुख्य हैं।
उत्पादन क्षेत्र – भारत में फलों का सबसे अधिक उत्पादन जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में होता है। भारत के उत्तरी मैदानों पर भी फलों का उत्पादन होता है।
उत्पादन एवं व्यापार- भारत में सन् 2013-14 में 88977 हजार टन फलों का उत्पादन हुआ था जिसमें काजू की मात्रा 0.46 मिलियन टन थी। काजू उत्पादन में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है। यहाँ विश्व का 43% काजू उत्पादन होता है। विश्व का 54% आम भारत में पैदा होता है।
पेय एवं बागाती फसलें (Plantation Crops) :-
1. चाय (Tea) :-
चाय भारत की मुख्य पेय फसल है। भारत में इसकी खेती 1840 में विलियम बेंटिंक ने प्रारम्भ करवायी थी। बाद में भारत चाय उत्पादन में अग्रणी हो गया। वर्तमान में समस्त विश्व की 1/ 4 चाय अकेले भारत में उत्पन्न की जाती है। भारत में चाय की खेती उद्योगों के रूप में की जाती है। वर्तमान में देश में चाय के लगभग 14,000 बागान हैं जिनमें 10 लाख व्यक्ति कार्य करते हैं।
भौगोलिक दशाएँ – चाय उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु । का पौधा है। चाय की पैदावार के लिए 20°C से 30°C तापमान अनिवार्य है। इसके लिए 150 सेमी से 200 सेमी वर्षा उपयुक्त मानी जाती है। चाय की खेती हल्के ढालवाली भूमि पर की जाती है। चाय की खेती के लिए हल्की लोहांश युक्त मिट्टी अच्छी मानी जाती है। चाय की खेती बगानों में की जाती है इसके चारों ओर ऊँचे- ऊँचे वृक्ष लगाये जाते हैं जिससे चाय की पत्ती पर सूर्य की किरणें सीधी न पड़ें।
उत्पादन क्षेत्र – असम में भारत की 50% चाय उत्पन्न होती है। यहाँ की सुरमा एवं ब्रह्मपुत्र नदियों की घाटियों में चाय के बागान स्थित हैं। पश्चिमी बंगाल 22% चाय का उत्पादन करता है। तमिलनाडु में 12% चाय का उत्पादन नीलगिरि एवं अन्नामलाई के पहाड़ी ढालों पर होता है। केरल में मध्य त्रावणकोर, मालाबार एवं वालनद मुख्य जिले हैं जहाँ चाय उत्पन्न की जाती है। इसके अतिरिक्त उत्तराखण्ड के गढ़वाल एवं कुमायूँ, बिहार, कर्नाटक एवं हिमाचल प्रदेश में भी थोड़ी बहुत चाय उत्पन्न की जाती है।
उत्पादन एवं व्यापार – 1960-61 में 3 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर 3 लाख टन चाय पैदा की गयी थी। 1998-99 में 4.08 लाख हेक्टेयर भूमि पर 8 लाख टन चाय का उत्पादन हुआ। भारत में चाय का उत्पादन खपत से अधिक होता है। इसलिए भारत ब्रिटेन, पोलैण्ड, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, इराक, ईरान, मिस्र, सूडान, अफगानिस्तान को चाय का निर्यात करता है। 1998-99 में चाय के निर्यात से 1302 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई। 2003-04 के दौरान चाय का उत्पादन 85 करोड़ 4 लाख 90 हजार किलोग्राम होने का अनुमान था। 2010-11 में यह उत्पादन 270.0 मि. किग्रा था।
2. कहवा (Coffee) :-
चाय की भाँति कहवा भी पेय पदार्थ है। भारत में कहवा की खेती 1830 से प्रारम्भ हुई थी। कर्नाटक राज्य में कहवा का सर्वप्रथम बागान लगाया गया। भारत विश्व का 3% कहवा उत्पन्न करता है। भारतीय कहवा उत्तम किस्म का है। इस कार्य के लिए लगभग 2.5 लाख व्यक्ति कार्यरत हैं।
भौगोलिक दशाएँ – कहवा उत्पादन के 15°C से 30°C तापमान आवश्यक है। कहवा के पौधों पर सूर्य की सीधी किरणें नहीं पड़नी चाहिए। इसके लिए 200 सेमी से 250 सेमी वर्षा आवश्यक है तथा ढालू भूमि होनी चाहिए। कहवा के लिए लोहा, चूना एवं जीवांशयुक्त मिट्टी या लावा मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती हैं। कहवा की पत्ती तोड़ने के लिए महिला श्रमिकों की आवश्यकता होती है। भारत में तीन प्रकार का कहवा – (1) अरेबिका कहवा (2) रोबस्टा कहवा (3) लाइब्रेरिका कहवा, उत्पन्न किया जाता है।
उत्पादन क्षेत्र – कर्नाटक राज्य में कहवा के 4,600 बाग हैं। भारत का 70% कहवा यहाँ उत्पन्न किया जाता है। केरल में 20% कहवा उत्पन्न होता है। तमिलनाडु के नीलगिरि, मदुराई, कोयम्बटूर मुख्य कहवा उत्पादक जिले हैं। यहाँ 10% कहवा उत्पन्न होता है। महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना एवं ओडिशा राज्यों में भी कहवा का उत्पादन होता है।
उत्पादन एवं व्यापार – सन् 1970-71 में 1 लाख टन कहवा का उत्पादन हुआ था। 1990 91 में उत्पादन बढ़कर 2 लाख टन हो गया व 1998-99 में यह उत्पादन बढ़कर 2.32 लाख टन हो गया। 2011-12 में भारत में कहवा (Coffee) का उत्पादन 3.02 लाख टन हुआ था जिसमें 1.78 लाख टन विदेशों को निर्यात किया गया शेष की खपत भारत में हुई।
3. तम्बाकू (Tobacco) :-
तम्बाकू उत्पादन में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर है। भारत में तम्बाकू का उपयोग बीड़ी, सिगरेट और सिगार बनाने में किया जाता है। भारत में इसका प्रयोग लोग खाने के लिए भी करते हैं।
भौगोलिक दशाएँ – तम्बाकू की खेती के लिए ढालू भूमि का होना अनिवार्य है। इसके लिए 15°C से 40°C तापमान और 50 सेमी से 100 सेमी वर्षा आवश्यक है। तम्बाकू की खेती के लिए भूरी दोमट मिट्टी और उर्वरक खादों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया जाता है। तम्बाकू की फसल को तैयार होने में कम समय लगता है।
उत्पादन क्षेत्र – भारत में आन्ध्र प्रदेश और गुजरात राज्य में तम्बाकू की खेती की जाती हैं। गुजरात में भारत की 1/4 तम्बाकू पैदा की जाती है। खेड़ा एवं बड़ोदरा प्रमुख तम्बाकू उत्पादक जिले हैं।
उत्पादन एवं व्यापार – भारत प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख टन तम्बाकू का उत्पादन करता है। वर्ष 1998-99 में देश में 5.760 लाख किग्रा तम्बाकू का उत्पादन हुआ जिसमें से 91.1 हजार टन तम्बाकू विदेशों को निर्यात कर दी गयी जिसका मूल्य 779 करोड़ रुपया था। वर्ष 2011-12 के बीच 4626.90 करोड़ मूल्य की तम्बाकू का निर्यात हुआ।
4. रबड़ (Rubber) :-
रबड़ भी एक व्यापारिक फसल है। इससे उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है। रबड़ मूलतः अमेजन बेसिन का पौधा है। इसके वृक्ष से दूध एकत्र कर रबड़ का निर्माण किया जाता है। 19वीं शताब्दी के आरम्भ में मारक्विस ऑफ सेलिसबरी ने रबड़ के बगीचे लगवाये थे।
भौगोलिक दशाएँ- रबड़ की खेती के लिए 15°C से 40°C तापमान तथा 50 सेमी से 100 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। रबड़ के बाग ढालू भूमि पर लगाये जाते हैं। भूरी दोमट और उर्वरक मिट्टी रबड़ की खेती के लिए उपयुक्त होती है।
उत्पादन क्षेत्र – भारत में रबड़ का उत्पादन मुख्य रूप से केरल, तमिलनाडु तथा कर्नाटक राज्यों में होता है। केरल भारत का 90% रबड़ अकेले उत्पन्न करता है।
उत्पादन एवं व्यापार – सन् 1960-61 में भारत में लगभग एक लाख हेक्टेयर भूमि पर रबड़ की खेती की जाती थी। सन् 2001-02 ई० में इसका क्षेत्रफल बढ़कर 5.6 लाख हेक्टेयर हो गया तथा उत्पादन एक लाख टन से बढ़कर 6.3 लाख टन हो गया। 2008-09 में रबड़ की वस्तुओं का निर्यात 2438 करोड़ का रहा। भारत हर साल ₹ 12,000 करोड़ से अधिक की रबड़ का उत्पादन करता है। वर्ष 2013-14 में देश में प्राकृतिक रबड़ का उत्पादन 947 हजार टन था।
भारत में हरित क्रान्ति :-
हरित क्रान्ति कृषि विकास की ऐसी क्रान्ति है जिसके अन्तर्गत कृषि का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्नत किस्म के बीजों का अधिकाधिक प्रयोग किया गया। कृषि में वैज्ञानिक तकनीकी को अपना कर रासायनिक उर्वरक का प्रयोग एवं सिचाई के साधनों में वृद्धि करके और बहुफसली प्रणाली अपनाकर उत्पादन बढ़ाया गया। हरित क्रान्ति के कारण कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। इसकी मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं-
- कृषि में अधिक उपज वाली किस्मों के प्रयोग में वृद्धि करना ।
- प्रामाणिक और उन्नत बीजों का ही प्रयोग करना ।
- रासायनिक उर्वरकों का उचित मात्रा में प्रयोग करना।
- उत्तम भूमि और सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में सघन कृषि कार्यक्रम के अन्तर्गत कृषि के उत्पादन में वृद्धि करना।
- कृषि में वैज्ञानिक यन्त्रों और उपकरणों का उपयोग करना।
- कृषि की शिक्षा एवं प्रशिक्षण सुविधाओं का विकास करना ।
- पौधों के संरक्षण के लिए कीटनाशक के उपयोग पर बल देना।
- कृषि अनुसन्धानों की उचित व्यवस्था करना।
- सघन कृषि कार्यक्रम को अपनाया जाना।
- भूमि संरक्षण द्वारा अधिक-से-अधिक भूमि पर कृषि का विस्तार करना।
खनन व्यवसाय (Mining Occupation) :-
पृथ्वी को खोदकर खनिज निकालने की प्रक्रिया को खनन व्यवसाय कहते हैं। वर्तमान समय में खनन का विकास व्यावसायिक स्तर पर हो गया है। भारत में खनिज का विशाल भण्डार पाया जाता है परन्तु यहाँ की खनन प्रक्रिया अत्यन्त पिछड़ी हुई है जिससे भारत का पूर्ण आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा है।
भारतीय खनन व्यवसाय की विशेषताएँ :-
- भारत में खनन कार्य के लिए आधुनिक तकनीक का प्रयोग नहीं किया जाता है। भारत में सिर्फ 800 खदानों का ही यन्त्रीकरण किया गया है, जबकि भारत में 3600 खदानें हैं। भारत में 85% खनिजों का उत्पादन हो सकता है परन्तु खनन कार्य में यन्त्रों का उपयोग न होने से केवल 15% ही खनिज का उत्पादन होता है।
- भारत में खनन व्यवसाय गैरसरकारी क्षेत्रों में स्थित है जिसके कारण खनन कार्य ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। अब सरकार ने कुछ खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया है।
- भारत में सबसे अधिक खनिज पदार्थ छोटा नागपुर के पठारी भागों में पाये जाते हैं। गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और गोवा में भी अनेक प्रकार के खनिज पाये जाते हैं
- हिमालय के पर्वतीय भागों में खनिज के विशाल भण्डार हैं परन्तु इसका अभी तक पूर्ण सर्वेक्षण नहीं किया जा सका है क्योंकि इन स्थानों पर आवागमन के साधनों का अभाव है।
- भारत में सबसे अधिक अभ्रक, मैंगनीज एवं लोहा पाया जाता है, इसलिए भारत इन खनिजों का निर्यात करता है।
खनन व्यवसाय में सुधार के उपाय :-
भारतीय खनन व्यवसाय में सुधार के लिए निम्न उपाय करने चाहिए-
- भारत में स्थित समस्त खदानों का राष्ट्रीयकरण करना ।
- अधिक-से-अधिक खनिज प्राप्त करने के लिए समस्त खदानों का यन्त्रीकरण करना ।
- खनन कार्य व्यवस्थित ढंग से करने की व्यवस्था करना ।
- खनन के समय खनिजों की बर्बादी पर नियन्त्रण लगाना ।
- जिन खदानों तक मानव आसानी से नहीं पहुँच पाता वहाँ पर परिवहन के साधनों का विकास करना ।
- खनिजों का उपयोग सीमित करना ।
- खनिजों को खुले स्थानों पर न छोड़ना क्योंकि इससे खनिज की गुणवत्ता प्रभावित होती है ।
- जिन खनिजों का भण्डार सीमित है उनके स्थान पर वैकल्पिक साधनों की खोज करना । खनन व्यवसाय के विकसित होने से इससे सम्बन्धित अन्य व्यवसायों को भी विकसित होने का अवसर प्राप्त होता है।