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ब्राह्मण ग्रन्थ क्या हैं?
मूल संहिता के भाष्यों के रूप में लिखे गये ग्रन्थों को ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं। ये ग्रन्थ प्रायः गद्यात्मक हैं। “ब्रह्म” शब्द के “ मन्त्र” और “यज्ञ” दो प्रमुख अर्थ हैं। मन्त्रों और यज्ञों तथा इन दोनों की व्याख्या होने के कारण “ब्रह्म” शब्द से ” ब्राह्मण” शब्द निष्पन्न हुआ है।
ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रतिपाद्य विषय
ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय यज्ञ का विधि-विधान है। विषय की दृष्टि से ब्राह्मण ग्रन्थों के दो प्रमुख भाग हैं “ – विधि,” और अर्थवाद” ।
विधि- यज्ञ का अनुष्ठान कब किया जाय, कैसे किया जाय, उसमें किन-किन साधनों की आवश्यकता होती है, उन यज्ञों के अधिकारी कौन-कौन होते हैं, इत्यादि विषयों का समाधान “विधि” के अन्तर्गत आता है। यज्ञ के विषय में यदि कुछ विरोध प्रतीत हो तो उसका परिहार करना ब्राह्मणभाग का उद्देश्य है।
अर्थवाद – अर्थवाद में निन्दा एवं प्रशंसा का सन्निवेश रहता है, जिसमें याग निषिद्ध वस्तुओं की निन्दा तथा यागोपयोगी वस्तुओं की प्रशंसा होती है। अर्थवाद वैदिक मन्त्रों की पुष्टि करते हैं । ब्राह्मणग्रन्थों की यह विशेषता रही है कि इनमें यज्ञों के विधि-विधान और अर्थवाद को समझने के लिए रोचक आख्यानों का आश्रय लिया गया है। वैदिक शब्दों के अर्थ स्पष्ट करने के लिए भी ब्राह्मण ग्रन्थों में व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं।
(क) ऋग्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ-
ऋग्वेद के “ऐतरेय” और “कौषीतकि” (शांखायन) दो प्रमुख ब्राह्मण उपलब्ध हैं। “ऐतरेय ” ब्राह्मण के प्रवक्ता महीदास ऐतरेय हैं। इस ब्राह्मण की भाषा संहिता की भाषा के सन्निकट है। इस ब्राह्मण में 40 (चालीस) अध्याय हैं। तथा पाँच-पाँच अध्यायों की आठ पंचिकाएँ हैं तथा प्रत्येक अध्याय में कण्डिका की परम्परा है। ऐतरेय ब्राह्मणयज्ञ में होतृनामक ऋत्विक् के विशिष्ट कार्यकलापों का विशेष विवरण प्रस्तुत करता है। वैदिक आख्यानों की दृष्टि से यह ब्राह्मण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
(ख) यजुर्वेदीय ब्राह्मण- शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ-
शुक्ल यजुर्वेद का एक मात्र शतपथ ब्राह्मण सभी ब्राह्मणग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण माना गया है। यह ग्रन्थ विशालकाय तथा यागानुष्ठान का सर्वोत्तम प्रतिपादक है। इसमें (14) चौदह (काण्ड), (100) सौ अध्याय, (68) अड़सठ प्रपाठक, चार सौ अड़तीस (438) ब्राह्मण तथा (7624) सात हजार छः सौ चौबीस कण्डिकाएँ हैं।
इस ब्राह्मण के प्रथम काण्ड में दर्शपूर्णमासयज्ञ, द्वितीय में आधान आदि, तृतीय, चतुर्थकाण्डों में सोमयाग, पञ्चमकाण्ड में वाजपेययाग, तथा राजसूय याग का विवेचन है। षष्ठ से दशम काण्डों के अन्तर्गत चयन आदि का वर्णन है। अन्तिम चार काण्डों में उपनयन, स्वाध्याय, और्ध्वदैहिक (श्राद्ध), अश्वमेध आदि का वर्णन है। चौदहवें काण्ड के अन्त में विपुलकाय बृहदारण्यकोपनिषद् है।
गार्गी तथा याज्ञवल्क्य का शास्त्रार्थ, ऋषियों की शिष्य – परम्परा तथा प्रसिद्ध मनु एवं मत्स्य की कथा शतपथ में आती है जो सर्वत्र विख्यात है। कृष्ण यजुर्वेदीय ब्राह्मण- कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय ब्राह्मण प्रसिद्ध है। यह तीन भागों में विभक्त है जिन्हें ” काण्ड” कहते हैं। प्रथम तथा द्वितीय काण्ड में आठ-आठ प्रपाठक तथा तृतीय काण्ड में 12 प्रपाठक हैं। इनके अवान्तर खण्ड ‘अनुवाक’ नाम से प्रसिद्ध हैं। इन काण्डों में अग्न्याधान, अग्निहोत्र, नक्षत्रेष्टि आदि यज्ञों का विवरण दिया गया है।
(ग) सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ-
सामवेद के ब्राह्मणग्रन्थों की संख्या आठ है – ताण्ड्यमहाब्राह्मण, षड्विंश या साम विधान ब्राह्मण, आर्षेय, देवताध्याय, जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणसंहितोपनिषद् ब्राह्मण तथा वंशब्राह्मण। इनमें ताण्ड्य महाब्राह्मण प्रमुख है। सामवेद की तण्डिशाखा से सम्बद्ध होने के कारण इसे ताण्ड्यब्राह्मणकहा जाता है। इसमें पच्चीस अध्याय हैं, इसलिये इसे पंचविंश महाब्राह्मण भी कहते हैं। यज्ञीय अनुष्ठानों में उद्गाता के कार्यों का विशद विवेचन इन ग्रन्थों में किया गया है। इसकी यह विशेषता है कि एक दिन से लेकर सहस्रवर्ष तक चलने वाले यज्ञों का विधान इसमें मिलता है। ताण्ड्य महाब्राह्मण में सोमयाग का वर्णन मुख्य रूप से है।
(घ) अथर्ववेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ-
अथर्ववेद से सम्बद्ध केवल एक ही ब्राह्मण उपलब्ध है जो गोपथ ब्राह्मण कहलाता हैं। इसके दो भाग है – पूर्व गोपथ और उत्तर गोपथ। पूर्व गोपथ में पाँच प्रपाठक और उत्तर गोपथ में छः प्रपाठक हैं। प्रपाठकों का विभाजन कण्डिकाओं में किया गया है। कुल (258) कण्डिकायें इस ग्रन्थ में हैं। इस ब्राह्मण के प्रारंभ में स्वभावतः अथर्ववेद की महिमा गाई गयी हैं। द्वितीय प्रपाठक में ब्रह्मचारी के नियमों का वर्णन है। अवशिष्ट प्रपाठकों में ऋत्विजों की दीक्षा, संवत्सर सत्र, अश्वमेध आदि यज्ञों का वर्णन है।
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ब्राह्मण ग्रन्थों से जुड़े प्रश्नों के उत्तर
मूल संहिता के भाष्यों के रूप में लिखे गये ग्रन्थों को ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं। ये ग्रन्थ प्रायः गद्यात्मक हैं। “ब्रह्म” शब्द के “ मन्त्र” और “यज्ञ” दो प्रमुख अर्थ हैं। मन्त्रों और यज्ञों तथा इन दोनों की व्याख्या होने के कारण “ब्रह्म” शब्द से ” ब्राह्मण” शब्द निष्पन्न हुआ है।
ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय यज्ञ का विधि-विधान है। विषय की दृष्टि से ब्राह्मण ग्रन्थों के दो प्रमुख भाग हैं “ – विधि,” और अर्थवाद” ।
विधि- यज्ञ का अनुष्ठान कब किया जाय, कैसे किया जाय, उसमें किन-किन साधनों की आवश्यकता होती है, उन यज्ञों के अधिकारी कौन-कौन होते हैं, इत्यादि विषयों का समाधान “विधि” के अन्तर्गत आता है। यज्ञ के विषय में यदि कुछ विरोध प्रतीत हो तो उसका परिहार करना ब्राह्मणभाग का उद्देश्य है।
अर्थवाद – अर्थवाद में निन्दा एवं प्रशंसा का सन्निवेश रहता है, जिसमें याग निषिद्ध वस्तुओं की निन्दा तथा यागोपयोगी वस्तुओं की प्रशंसा होती है। अर्थवाद वैदिक मन्त्रों की पुष्टि करते हैं । ब्राह्मणग्रन्थों की यह विशेषता रही है कि इनमें यज्ञों के विधि-विधान और अर्थवाद को समझने के लिए रोचक आख्यानों का आश्रय लिया गया है। वैदिक शब्दों के अर्थ स्पष्ट करने के लिए भी ब्राह्मण ग्रन्थों में व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थ ग्रंथ मुख्यतः चार प्रकार के हैं-
- ऋग्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ
- यजुर्वेदीय ब्राह्मण- इसके दो भाग हैं- 1.शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ 2. कृष्ण यजुर्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ
- सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ
- अथर्ववेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ