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फ्रांस की क्रान्ति: कारण, उद्देश्य एवं परिणाम [French Revolution UPSC NCERT Notes]

by mayank
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फ्रांस की क्रान्ति: कारण, उद्देश्य एवं परिणाम [French Revolution UPSC NCERT Notes]
फ्रांस की क्रान्ति: कारण, उद्देश्य एवं परिणाम [French Revolution UPSC NCERT Notes]

फ्रांस की क्रान्ति –

फ्रांस की क्रान्ति कोई अनहोनी घटना नहीं थी बल्कि वर्षों से चली आ रही दुर्व्यवस्था एवं कुशासन का परिणाम थी। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में फ्रांस में निरंकुश और स्वेच्छाचारी सम्राटों का शासन था। इस समय पादरियों, सामन्तों एवं उच्च अधिकारियों को राज्य की ओर से विशेषाधिकार प्राप्त थे। ये लोग वैभव एवं विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते। थे लेकिन साधारण वर्ग की दशा अत्यधिक शोचनीय थी। उनका जीवन-स्तर निम्न कोटि का था।

इसका मुख्य कारण राजाओं की निरंकुशता, अयोग्यता एवं शासन सम्बन्धी विभिन्न अनियमितताएँ थीं। इन परिस्थितियों का ज्ञान इस उदाहरण से हो जाता है कि जब फ्रांस के राजा और रानी की सवारी के पीछे भूखी-नंगी जनता भूख से व्याकुल होकर ‘रोटी दो- रोटी दो’ के नारे लगाते हुए दौड़ रही थी तो परिस्थिति से अनजान रानी ने कहा था- “यदि रोटी नहीं मिलती तो केक क्यों नहीं खाते।”

फ्रांस की बिगड़ी हुई आर्थिक दशा के कारण जनसाधारण का जीवन कष्टों से भरा हुआ था। इसके परिणामस्वरूप 1789 ई० में आन्त्वानेत फ्रांस में भीषण जन-विद्रोह हुआ और यहाँ के निरंकुश राजतन्त्र का अन्त हुआ तथा फ्रांस में लोकतन्त्र की स्थापना हुई। इस क्रान्ति में फ्रांस के तत्कालीन राजा लुई सोलहवाँ एवं उसकी रानी मेरी आन्त्वानेत को मौत के घाट उतार दिया गया। इस क्रान्ति के फलस्वरूप सम्पूर्ण यूरोप युद्ध की ज्वाला में जलता रहा। यह रक्तपात 14 जुलाई, 1789 ई० को बास्तील की घटना के साथ प्रारम्भ हुआ और 18 जून, 1815 ई० को वाटर लू के युद्ध के साथ समाप्त हुआ।

फ्रांस की क्रान्ति के कारण –

फ्रांस में 1789 की क्रान्ति संसार की अनोखी घटनाओं में से एक थी। फ्रांस की अव्यवस्थित राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा के कारण फ्रांस की क्रान्ति का बीज अंकुरित हुआ। फ्रांस की क्रान्ति के निम्न कारण थे –

1. राजनीतिक कारण –

  • निरंकुश राजा – 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में राजा की निरंकुशता, अयोग्यता एवं शासन सम्बन्धी अनियमितताओं ने जनता को क्रान्ति के लिए प्रेरित किया। फ्रांस के राजा अपनी शान-शौकत के लिए राजकोष का दुरुपयोग करते थे जिसके कारण फ्रांस की जनता ने राजतन्त्र का मुखर विरोध किया। राजाओं की निरंकुशता के कारण जनसाधारण के मन में क्रान्ति की चिनगारी सुलगने लगी ।
  • असमान और अनिश्चित कानून – इस समय फ्रांस की कानून-व्यवस्था में अनेक मौलिक दोष उत्पन्न हो गये थे। धनी, पादरी और सामन्त (कुलीन वर्ग) राजकीय करों से मुक्त थे, जबकि गरीब जनता करों के भारी बोझ से दबी थी। देश पर विदेशी ऋण का बोझ बढ़ता जा रहा था। व्यापार की दशा भी सन्तोषजनक नहीं रह गयी थी। फलतः इन परिस्थितियों ने फ्रांस की जनता को क्रान्ति के लिए प्रेरित किया।

2. आर्थिक कारण –

राजघराने द्वारा धन पानी की तरह बहाया जाता था। राजघराने के इर्द-गिर्द घूमने वाले लोग जनकल्याण की और ध्यान न देकर अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति में लिप्त थे। अन्दर ही अन्दर इन लोगों ने राजकोष को खाली कर दिया था। साथ ही इंग्लैण्ड के साथ लगातार युद्ध होने से भी राजकोष पर बुरा प्रभाव पड़ा। देश का आर्थिक ढाँचा चरमराकर टूट गया। देश की बहुसंख्यक जनता रोटी के लिए हाय-हाय करने लगी।

धन की कमी को पूरा करने के लिए जनता पर अनेक कर लगाये जाते थे और इनकी वसूली भी बड़ी निर्दयतापूर्वक की जाती थी। कृषकों की आय एवं उपज का अधिकांश हिस्सा करों के रूप में ले लिया जाता था। फ्रांस में पादरियों और सामन्तों तथा उच्च वर्ग के लोगों पर कोई कर नहीं लगाया जाता था। इस प्रकार दोषपूर्ण अर्थव्यवस्था ने भी फ्रांस में क्रान्ति को प्रेरित करने का कार्य किया।

3. सामाजिक कारण –

फ्रांस का समाज वर्ग-भेद पर आधारित था। इस समय फ्रांस के समाज में तीन वर्ग थे-पादरी वर्ग, कुलीन वर्ग, जनसाधारण वर्ग। पादरी वर्ग में कैथोलिक चर्च के उच्च पादरी (पुरोहित) या उच्च धर्माधिकारी आते थे। उच्च पादरी वर्ग अनेक विशेषाधिकारों से युक्त था। इनका जीवन भोग-विलास एवं वैभव से परिपूर्ण था। धन की अधिकता से इस वर्ग का चारित्रिक एवं नैतिक पतन हो गया था। वास्तव में इस वर्ग के लोग समाज में घृणा के पात्र बन गये थे। कुलीन वर्ग में सामन्त, राज परिवार के सदस्य एवं उच्च अधिकारी शामिल थे। इस वर्ग के लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त थे तथा ये लोग विशेषाधिकारों का प्रयोग जनसाधारण के शोषण के लिए भी करते थे। फलतः इस वर्ग के प्रति जनाक्रोश स्वाभाविक था। जनसाधारण वर्ग भी तीन उपवर्गों में विभाजित था – मध्यम वर्ग, किसान वर्ग, मजदूर वर्ग ।

मध्यम वर्ग में अध्यापक, वकील, व्यापारी, कवि, लेखक, कलाकार, दार्शनिक तथा धनी व्यवसायी आदि सम्मिलित थे। इस वर्ग की आर्थिक स्थिति तो ठीक थी किन्तु ये समाज में उपेक्षित थे। पादरी एवं कुलीन वर्ग के लोगों द्वारा इन्हें समय-समय पर अपमानित होना पड़ता था। आर्थिक सम्पन्नता होने पर भी यह वर्ग समाज में उच्च वर्ग द्वारा उपेक्षित होने के कारण असन्तुष्ट था।

किसान वर्ग में मुख्य रूप से किसान सम्मिलित थे। फ्रांस में इनकी जनसंख्या 80% के लगभग थी। इनका आर्थिक जीवन संकटग्रस्त था तथा यह वर्ग करों के बोझ से दबा था। दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण यह वर्ग भी सन्तुष्ट न था। मजदूर वर्ग समाज का सबसे निम्न वर्ग था। इस वर्ग के पास कोई अधिकार भी नहीं था। इनका जीवन अमानवीय था। यह वर्ग अत्यधिक खिन्न था। इस प्रकार सामाजिक असमानता और असन्तोष फ्रांस में क्रान्ति के रूप में फूट पड़ा।

4. दार्शनिकों तथा लेखकों के विचार का प्रभाव –

तत्कालीन दार्शनिकों ने फ्रांस की दयनीय दशा के बारे में अपने लेखों के माध्यम से जनता को यह बताने का प्रयास किया कि उनके दुःख-दर्द का मूल कारण फ्रांस की भ्रष्ट राजतन्त्रीय शासन-प्रणाली है। प्रसिद्ध विचारक जॉ जॉक रूसो’ ने अपनी कृति ‘सामाजिक समझौता’ (सोशल कान्ट्रैक्ट) में राजा के दैवी अधिकारों पर कठोर प्रहार किया। इसी प्रकार प्रसिद्ध विचारक माण्टेस्क्यू ने अपनी रचना ‘स्पिरिट ऑफ लॉ’ (Sprit of Laws) में राजा की दैवी शक्ति व उसकी निरंकुशता की खुलकर आलोचना की। परिणामत: फ्रांस में एक बौद्धिक जागृति का संचार हुआ और यहाँ के निवासी न्याय, स्वतन्त्रता और समानता की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हो गये।

5. तात्कालिक कारण –

वित्तीय संकट के समाधान हेतु तत्कालीन शासक लुई सोलहवें ने 1789 ई० में एस्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाकर कतिपय नये कर लगाने का प्रस्ताव किया किन्तु जनसाधारण वर्ग ने इसका जमकर विरोध किया और माँग की कि एस्टेट्स जनरल’ की संयुक्त बैठक बुलायी जाय। राजा ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया और सभा को भंग करने का निर्णय लिया। इसके विरोध में जनसाधारण वर्ग ने पास के टेनिस कोर्ट में एक सभा कर संविधान बनाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। जनविरोध के चलते राजा को झुकना पड़ा। राजा ने एक गुप्त योजना के माध्यम से सभा (एस्टेट्स जनरल) को समाप्त करने की योजना बनायी। ज्योंही जनता को इसकी सूचना मिली त्योंही 14 जुलाई, 1789 को फ्रांस में एक भीषण क्रान्ति प्रारम्भ हो गयी।

फ्रांस की क्रान्ति की प्रमुख घटनाएँ –

1. क्रान्ति का आरम्भ –

एस्टेट्स जनरल फ्रांस की प्राचीन संसद थी जिसमें तीन सदन थे अर्थात् तीन वर्गों का प्रतिनिधित्व था। प्रत्येक वर्ग का अलग-अलग अधिवेशन होता था। 1614 ई० के बाद अब तक इसका कोई अधिवेशन नहीं हुआ था। एस्टेट्स जनरल के सदस्यों की कुल संख्या 1214 थी जिसमें 308 पादरी वर्ग के, 285 कुलीन वर्ग के और 621 जनसाधारण वर्ग के सदस्य थे। राजा ने धन की कमी को पूरा करने के लिए इस आशा से 1789 ई० में इसका अधिवेशन बुलाया कि वह नया कर लगाने की अनुमति दे देगी। जनता वर्ग ने करों का विरोध किया और संयुक्त अधिवेशन की माँग की। राजा तथा दरबारी वर्ग ने इसका विरोध किया तथा सभा को भंग करना चाहा। जनता वर्ग ने सभा से हटने से इंकार कर दिया। इसी बीच बैठक में ‘तृतीय सदन क्या है?’ के प्रश्न पर हंगामा होने लगा। फ्रांस के प्रसिद्ध विधिवेत्ता ‘एबीसीएज’ ने एक पुस्तिका वितरित की जिसमें लिखा था- “तृतीय सदन ही राष्ट्र का पर्याय है किन्तु देश की सरकार ने उसकी पूर्णतया उपेक्षा कर रखी है।” 6 मई, 1789 ई० को तीनों वर्गों के सदस्यों ने अलग-अलग भवनों में बैठक की। जनसाधारण वर्ग का नेतृत्व ‘मिराबो’ ने ग्रहण किया।

2. टेनिस कोर्ट की शपथ –

फ्रांस के तत्कालीन राजा लुई सोलहवाँ ने सामन्तों, कुलीनों व पादरियों के दबाव में आकर साधारण वर्ग के सभा भवन को बन्द करा दिया तथा इस वर्ग को सभा स्थगित रखने का आदेश दिया। राजा के इस आदेश के विरोध में तृतीय सदन (वर्ग) के सभी सदस्य सभा भवन के निकट स्थित टेनिस कोर्ट के मैदान में एकत्रित हो गये तथा तृतीय वर्ग के नेता मिराबो की अध्यक्षता में शपथ ग्रहण की जिसमें संकल्प लिया गया कि “हम यहाँ से उस समय तक नहीं हटेंगे, जब तक हम देश के लिए संविधान का निर्माण नहीं कर लेंगे, भले ही हमारे विरुद्ध संगीनों से ही क्यों न काम लिया जाय।” फ्रांस के इतिहास में यह संकल्प ‘टेनिस कोर्ट’ की शपथ के नाम से विख्यात है।

3. राष्ट्रीय सभा-

तृतीय सदन के सदस्यों की इस घोषणा से लुई 16वाँ भयभीत हो गया और उसने 27 जून, 1789 ई० को तीनों सदनों की संयुक्त बैठक (अधिवेशन) की अनुमति दे दी तथा एस्टेट्स जनरल को राष्ट्रीय सभा की मान्यता प्रदान की। इस सभा ने 9 जुलाई, 1789 ई० को संविधानसभा का कार्यभार ग्रहण कर लिया।

4. बास्तील का पतन –

राजा और सामन्तों ने मिलकर इस सभा को भंग करने की योजना बनायी। पेरिस में यह अफवाह फैल गयी कि राजा विदेशी सेना की मदद से देशभक्तों व क्रान्तिकारियों को मार डालना चाहता है। इस पर पेरिस की जनता उत्तेजित हो गयी और 14 जुलाई, 1789 ई० को फ्रांस की जनता ने हिंसक आक्रमण कर राजा के अत्याचार की प्रतीक समझी जाने वाली बास्तील की जेल को नष्ट कर दिया और कैदियों को मुक्त कर दिया। यह घटना राजा की निरंकुशता को समाप्त करने का प्रथम सोपान था। इसलिए फ्रांसवासी इस तिथि को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाते हैं।

5. व्यवस्थापिका सभा –

दरबारियों की सलाह पर राजा ने 21 जून, 1791 ई० को फ्रांस से भागने की योजना बनायी, किन्तु भागते – समय वह सपरिवार पकड़ लिया गया। अब उसे कैद करके रखा गया। एक अक्टूबर, 1791 ई० को व्यवस्थापिका सभा का प्रथम अधिवेशन हुआ। इस समय तक फ्रांस की जनता दो विचारधाराओं में बँट चुकी थी-जैकोबिन’ और जिरोंदिस्त’। जिरोंदिस्त अहिंसक तरीके से धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहते थे, जबकि जैकोबिन बहुसंख्यक थे और वे क्रान्ति को तेजी से बढ़ाना चाहते थे। व्यवस्थापिका सभा के प्रथम अधिवेशन में सदस्यों की संख्या 745 थी इसमें 260 संविधानवादी, 100 जैकोबिन, 36 जिरोंदिस्त तथा 349 स्वतन्त्र विचारधारा के सदस्य थे। इस सभा के अधिवेशन की अवधि में फ्रांस का 20 अप्रैल, 1792 ई० को आस्ट्रिया के साथ युद्ध हुआ। 21 सितम्बर, 1792 ई० को फ्रांस में गणतन्त्र की घोषणा करके व्यवस्थापिका सभा भंग हो गयी।

6. राष्ट्रीय सम्मेलन –

21 सितम्बर, 1792 ई० को राष्ट्रीय सम्मेलन का पेरिस में अधिवेशन हुआ। इस सभा में सदस्यों की कुल संख्या 782 थी। इस सभा ने 24 जून, 1793 ई० में फ्रांस के लिए एक नया गणतंत्रात्मक संविधान बनाया। इस काल में शासन-सत्ता पर जैकोबिनों का प्रभुत्व स्थापित रहा। जैकोबिनों ने लुई 16वें को क्रान्ति का विरोधी बताकर 21 जनवरी, 1793 ई० को गिलोटिन’ मशीन द्वारा मौत के घाट उतार दिया। इस समय फ्रांस में अराजकता पैदा हो गयी, सामूहिक हत्याएँ की गयीं तथा जिरोंदिस्त सदस्यों का कत्लेआम कराया गया। फ्रांस में यह घटना ‘सितम्बर का हत्याकाण्ड’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस समय के क्रान्ति दल के नेता दांते, मैरेट तथा रोब्सपियरे थे जो एक के बाद एक मारे गये। इनकी मृत्यु के बाद फ्रांस में आतंक के शासन का अंत हो गया। अंत में राष्ट्रीय सम्मेलन ने 26 अक्टूबर, 1795 को फ्रांस के लिए एक गणतन्त्रात्मक संविधान बनाकर स्वयं को भंग कर दिया।

7. डायरेक्टरी का गठन –

नवीन संविधान के अनुसार फ्रांस में डायरेक्टरी की स्थापना की गयी। इस व्यवस्था के अनुसार फ्रांस का शासन दो सदनों वाली डायरेक्टरी के हाथ में आ गया और शासन के सर्वोच्च अधिकार 5 सदस्यों वाले एक संचालक मण्डल (डाइरेक्टरी) को दिये गये। डाइरेक्टरी ने 27 अक्टूबर, 1795 से 10 नवम्बर, 1799 तक फ्रांस का शासन चलाया। इस काल में फ्रांस की आन्तरिक दशा बिगड़ती चली गयी किन्तु वैदेशिक क्षेत्र में फ्रांस को महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त हुईं। डायरेक्टरी के शासन काल में फ्रांस में ‘नेपोलियन बोनापार्ट’ का उत्थान हुआ। नेपोलियन के काल में फ्रांस में सैनिक शासन स्थापित हो गया

8. नेपोलियन बोनापार्ट का युग –

नेपोलियन बोनापार्ट फ्रांसीसी सेना का सेनापति एवं विलक्षण प्रतिभा का धनी था। फ्रांस में देश के शासन की कमान सँभालने वाली डायरेक्टरी को 1799 ई० में भंग कर उसका अस्तित्व समाप्त कर दिया गया। 1799 से 1804 ई० तक उसने फ्रांस में कई महत्त्वपूर्ण सुधार किये। नेपोलियन के समय में फ्रांस यूरोप का सर्वाधिक समृद्ध और शक्तिशाली देश बन गया। नेपोलियन ने फ्रांस में अपनी शक्ति मजबूत कर ली और 1804 ई० में फ्रांस का सम्राट् बन बैठा। नेपोलियन 1805 में आस्ट्रिया, 1806 में प्रशा तथा 1807 ई० में रूस को पराजित कर अपनी शक्ति के चरम शिखर पर पहुँच गया। अब उसने व्यापार निषेध नियम लागू कर इंग्लैण्ड को निशाना बनाया किन्तु अंग्रेजों की नौ सैनिक शक्ति के कारण वह असफल रहा। अंत में यूरोप के मित्र राष्ट्रों ने संगठित होकर 1813 ई० में उसे लिपिजिंग में हराया। फिर भी भारी जन समर्थन के कारण वह पुनः सत्तासीन हो गया। 1815 ई० में मित्र राष्ट्रों ने ‘वाटर लू’ नामक स्थान पर उसे पुनः पराजित कर दिया। अंत में 5 मई, 1821 ई० को सेण्ट हेलना द्वीप में निर्वासन में उसकी मृत्यु हो गयी। नेपोलियन द्वारा लागू की गयी शासन-व्यवस्था बहुत समय तक चली। नेपोलियन बोनापार्ट के पतन के पश्चात् फ्रांस में 1848 ई० में द्वितीय गणतंत्र की स्थापना हुई।

    राष्ट्रीय महासभा के महत्त्वपूर्ण कार्य –

    राष्ट्रीय महासभा ने 27 जून, 1789 ई० से 30 सितम्बर, 1791 ई० के मध्य फ्रांस की सामन्तवादी व्यवस्था को समाप्त कर समाजवादी व्यवस्था की आधारशिला रखी। इसके महत्त्वपूर्ण कार्य इस प्रकार हैं –

    1. मानव और नागरिक अधिकारों की घोषणा – राष्ट्रीय सभा ने 27 अगस्त, 1789 ई० को मानव और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा की जिसके अनुसार कानून की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान थे।
    1. विशेषाधिकारों की समाप्ति – 4 अगस्त, 1789 ई० को राष्ट्रीय सभा ने सामन्तीय विशेषाधिकारों की समाप्ति के लिए प्रस्ताव पारित किये।
    1. चर्च द्वारा सम्पत्ति संग्रह पर रोक – 10 अक्टूबर, 1789 ई० को राष्ट्रीय सभा ने कानून बनाकर चर्च द्वारा सम्पत्ति संग्रह पर रोक लगा दी और चर्च की सम्पूर्ण जायदाद को छीनकर नीलाम कर दिया गया तथा इस आय को राष्ट्रीय आय में सम्मिलित कर लिया गया। अब चर्च किसी व्यक्ति पर किसी प्रकार का कर नहीं लगायेगी।
    1. पादरियों की पोप की अधीनता से मुक्ति – जुलाई, 1790 ई० में राष्ट्रीय सभा ने पादरियों को पोप की अधीनता से मुक्ति दिलाकर उन्हें राज्य के अधीन कर दिया तथा मठों आदि को बन्द कर दिया गया।
    1. समान कर प्रणाली – राष्ट्रीय महासभा ने देश के सभी नागरिकों पर समान कर-भार लागू किया। इस प्रकार अब कोई भी नागरिक कर मुक्त नहीं रह गया।
    1. धार्मिक स्वतन्त्रता – राष्ट्रीय महासभा ने फ्रांस के प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक विचारों की स्वतन्त्रता प्रदान की।
    1. राजा के सीमित अधिकार- राष्ट्रीय महासभा ने देश के लिए संविधान की व्यवस्था करके राजा के असीमित अधिकारों को सीमित कर दिया। राष्ट्रीय सभा ने निर्णय लिया कि यदि विधानसभा द्वारा पारित किसी भी प्रस्ताव पर राजा हस्ताक्षर नहीं करेगा तो वह प्रस्ताव तीन बार विधानसभा में पारित होने के पश्चात् स्वतः ही कानून बन जायेगा। इस प्रकार राष्ट्रीय महासभा ने फ्रांस में सामन्तवादी व्यवस्था को समूल नष्ट कर दिया। अब फ्रांस में किसी भी व्यक्ति को बिना कानून की सहायता से दंडित अथवा कैद न किया जा सकेगा तथा सभी व्यक्तियों का सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार होगा। इस प्रकार स्वतन्त्रता, समानता तथा बंधुत्व राष्ट्रीय सभा के मूल मंत्र थे। राष्ट्रीय सभा के सुधारवादी कार्यों के फलस्वरूप फ्रांस में जनतन्त्र स्थापित हुआ।
    1. पेरिस की महिलाओं का वर्साय अभियान (चुड़ैलों का धावा) – पेरिस में राष्ट्रीय सभा के अधिवेशन-काल में 5 अक्टूबर, 1789 ई० को पेरिस की दस हजार महिलाओं ने लुई 16वाँ को पकड़कर पेरिस लाने के लिए वर्साय की ओर प्रस्थान किया और वे उसे उसके परिवार सहित पेरिस लाने में सफल हुईं। फ्रांस में यह घटना ‘चुड़ैलों का धावा’ नाम से प्रसिद्ध है।

    फ्रांस की क्रान्ति के परिणाम-

    फ्रांस की क्रान्ति निःसन्देह एक युगान्तकारी घटना थी। इस क्रान्ति के फलस्वरूप फ्रांस में नयी राजनीतिक एवं सामाजिक चेतना जागृत हुई। इस क्रान्ति के निम्न प्रमुख परिणाम थे :

    1. फ्रांस की इस क्रान्ति ने सदियों से चली आ रही यूरोप की पुरातन व्यवस्था का अन्त कर दिया।
    2. इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप देश की बहुसंख्यक जनता को सामंतवाद से छुटकारा मिल गया।
    3. व्यापार पर कुलीनों व सामंतों का एकाधिकार समाप्त हो गया।
    4. फ्रांस में राजनीतिक चेतना के कारण नये राजनीतिक वातावरण का सृजन हुआ तथा फ्रांस में सम्प्रभुता के सिद्धान्त की प्रतिस्थापना हुई।
    5. मध्यमवर्गीय जनता की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। अब यह वर्ग प्रत्येक क्षेत्र में स्वतन्त्रतापूर्वक प्रगति के मार्ग पर चलने लगा।
    6. इस क्रान्ति के कारण फ्रांस में जनतन्त्र की शुरुआत हुई।
    7. फ्रांस में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ।
    8. राजा की दैवी शक्ति की मान्यता समाप्त हो गयी।
    9. फ्रांसीसी क्रान्ति ने मानव जाति को स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व का नारा प्रदान किया।
    10. फ्रांस की क्रान्ति ने विश्व के अन्य देशों में भी प्रजातन्त्र के विकास को गति प्रदान की।
    11. इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप फ्रांस ने कृषि, उद्योग, कला, साहित्य, शिक्षा व सैनिक गौरव के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की।

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