वन एवं जीव संसाधन [Forest and Living Resources UPSC NCERT Notes]


वन एवं जीव संसाधन [Forest and Living Resources UPSC NCERT Notes]
वन एवं जीव संसाधन (Image by Freepik)

पृथ्वी पर बिना मानवीय प्रयास के अपने-आप उग आये पेड़-पौधे, घासों और झाड़ियों के समूह को प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं। सामान्य भाषा में इसे ‘वन’ या ‘वनस्पति’ कहते हैं। पृथ्वी पर उपस्थित पेड़-पौधे और वनस्पति सूर्य से ऊर्जा ग्रहण करके उसको खाद्य ऊर्जा में बदल देते हैं, जिससे जीवधारी अपना भोजन ग्रहण करते हैं।

प्राकृतिक पारितन्त्र –

भौतिक पर्यावरण, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु और सूक्ष्म बैक्टीरिया आपस में मिलकर पारितन्त्र की रचना करते हैं। इसी को ‘पारिस्थितिकी तन्त्र’ या ‘Ecosystem’ कहते हैं। पारिस्थितिकी जीव विज्ञान का वह भाग है जिसमें जीव और उसके पर्यावरण के बीच पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। इस तरह से जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों द्वारा पुनः भौतिक पर्यावरण से सम्बन्धों का अध्ययन ‘पारिस्थितिकी विज्ञान’ कहलाता है। जीव और उसका पर्यावरण पारिस्थितिकी तन्त्र के बहुत ही जटिल और गतिशील घटक हैं। समस्त पारिस्थितिक तन्त्र पर्यावरण द्वारा ही संचालित होता है। पारिस्थितिक तन्त्र में पाये जानेवाले समस्त घटकों के बीच परस्पर ऊर्जा का विनिमय होता है। इसी के द्वारा समस्त जीव अपने-आप को उस पर्यावरण के अनुसार बदल लेते हैं।

समस्त पारितन्त्र में मनुष्य का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पारितन्त्र का उपयोग और विदोहन करता है। मनुष्य द्वारा इस प्रकार पारितन्त्र का इस्तेमाल बिना सोचे-समझे करने से अनेक दुष्परिणाम होते हैं। इसलिए हमें प्राकृतिक पारितन्त्र के विषय में समस्त जानकारी कर लेने के बाद ही उसका उपयोग करना चाहिए, जिससे प्राकृतिक पारितन्त्र का उपयोग लम्बे समय तक हो सके।

भारतीय वनस्पति में विविधता –

किसी भी स्थान पर पायी जानेवाली वनस्पति पर वहाँ के उच्चावच, जलवायु और मिट्टी का प्रभाव पड़ता है। भारत में प्राकृतिक वनस्पति के रूप में वनों का विस्तार है जो भारत के लिए अमूल्य उपहार है। भारत में पौधों की लगभग 5,000 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो अन्य देशों की तुलना में अधिक हैं। हमारे देश में पुष्पी और गैरपुष्पी पौधे भी पाये जाते हैं। फर्न, शैवाल और कवक गैरपुष्पी पौधे हैं, जो कि उच्चावच में विभिन्नता, मिट्टी की संरचना, दैनिक – वार्षिक तापान्तर, वर्षा की मात्रा आदि पर निर्भर करती हैं। हमारे देश में उष्ण कटिबन्धीय वनस्पति से लेकर ध्रुवीय वनस्पति तक पायी जाती है। हमारे देश में वनस्पति में अन्तर ऊँचाई के हिसाब से पाया जाता है क्योंकि ऊँचाई के आधार पर ही वर्षा और तापमान में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। इसीलिए भारत में अनेक प्रकार की वनस्पतियों का आवरण है।

भारत के प्रमुख वनस्पति प्रदेश (वन) –

भारत के विस्तृत धरातल, मिट्टी और जलवायु की दशाओं में अन्तर के कारण अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ मिलती हैं। इसी आधार पर भारत को पाँच प्राकृतिक वनस्पति प्रदेशों में बाँटा गया है जो निम्न प्रकार हैं-

  1. उष्ण कटिबन्धीय वर्षावाले प्रदेश
  2. उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन प्रदेश
  3. कँटीले वन तथा झाड़ियाँ
  4. ज्वारीय वन प्रदेश
  5. पर्वतीय वन प्रदेश ।

1. उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वाले सदाबहार प्रदेश (Tropical Evergreen Rainfall Region) –

उष्ण कटिबन्धीय वर्षांवाले वन प्रदेश को ‘सदाबहार वन’ (Evergreen Forest) कहते हैं। इस प्रकार के वनों का विस्तार भूमध्य रेखा के दोनों ओर उष्णार्द्र प्रकार की जलवायु में है। इन वन प्रदेशों में औसत 200 सेमी से अधिक वर्षा होती है। भारत में महाराष्ट्र, केरल का पश्चिमी तट, कर्नाटक, बंगाल व असोम के पर्वतीय और अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में ये वन अधिक पाये जाते हैं। इन वनों में हरे-भरे पेड़ पाये जाते हैं जो किसी भी ऋतु में अपने पत्ते नहीं गिराते, जिससे ये वन अत्यन्त सघन होते हैं। इन वनों में वृक्ष की ऊँचाई 60 मीटर से भी अधिक होती है। इन वनों में वृक्ष की शाखाएँ छोटी-छोटी तथा ऊपरी सिरा छतरीनुमा होती है। इन वनों में महोगनी, सिनकोना, बेंत, रबड़, रोजवुड, आबनूस, नागकेशर आदि के वृक्ष बहुतायत से मिलते हैं। इन वनों से प्राप्त लकड़ी का व्यापारिक महत्त्व ज्यादा है। इनसे फर्नीचर इत्यादि बनाया जाता है। इन वृक्षों की लकड़ी इतनी कठोर होती है कि इनको काटना अत्यन्त कठिन है। ये वन इतने सघन होते हैं कि इनमें आसानी से प्रवेश नहीं किया जा सकता, जिससे इन वनों का पूरी तरह से उपयोग नहीं हो पा रहा है।

2. उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन प्रदेश (Tropical Monsoon Forest)

उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती प्रकार के वनों को ‘पतझड़ी वन’ कहते हैं। इन वनों की जलवायु मानसूनी प्रकार की होती है। इन वनों में औसतन 100 से 200 सेमी तक वर्षा होती है। भारत में लगभग 225 लाख हेक्टेयर भूमि पर इस प्रकार के वन प्रदेश पाये जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ में ये वृक्ष अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इसे भारत में पतझड़ का मौसम कहते हैं। आर्थिक दृष्टि से इन वनों की लकड़ियों का विशेष महत्त्व है। इन वनों की लकड़ियों में आग शीघ्रता से पकड़ लेती है इसलिए इन वनों की देखभाल की अधिक आवश्यकता होती है। इस प्रकार के वन पर्वतों के निचले भाग, विन्ध्याचल, सतपुड़ा पर्वत, छोटा नागपुर का पठार, असोम की पहाड़ियों, दक्षिणी-पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट पर पाये जाते हैं। ये वन दो प्रकार के हैं-

  • आर्द्र पर्णपाती दक्षिणी वन – आर्द्र पर्णपाती वन दक्षिणी भारत की पहाड़ियों में जहाँ तापमान 24 सेल्सियस तक पाया जाता है, ये वृक्ष उगते हैं। ये वृक्ष पतझड़ में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं परन्तु हरे-भरे लगते हैं। इन वृक्षों की ऊँचाई 30 मीटर से अधिक होती है। इनमें साल, सागौन, सेमल, हलदू तथा बाँस के वृक्ष पाये जाते हैं।
  • शुष्क पर्णपाती वन – इन वनों का विस्तार मुख्यतः उत्तरी भागों में है, जहाँ तापमान 27° सेल्सियस पाया जाता है। इन भागों में 150 सेमी तक वर्षा होती है। इस प्रकार के वन प्रायद्वीपीय भारत के उत्तर में मध्यप्रदेश, झारखण्ड, ओडिसा, छोटा नागपुर के पठार तथा गंगा के मैदान में पाये जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु में वृक्ष अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। यहाँ जामुन, चन्दन, शीशम, साल, बहेड़ा, आँवला और महुआ के वृक्ष पाये जाते हैं। इन वनों का व्यापारिक महत्त्व है, इसीलिए ये वन अत्यन्त उपयोगी हैं। इन वनों का विस्तार 297 लाख हेक्टेयर भूमि पर है। इनकी टिकाऊ लकड़ी का उपयोग फर्नीचर तथा इमारतों का सामान बनाने में किया जाता है। चन्दन की लकड़ी से सुगन्धित तेल निकाला जाता है।

3. कँटीले वन तथा झाड़ियाँ (Thorny Forest and Bushes) –

इनको ‘शुष्क मरुस्थलीय वन’ कहते हैं। इस प्रकार के वन उन भागों में पाये जाते हैं जहाँ 50 सेमी वर्षा होती है। इनका विस्तार क्षेत्र राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में है। इन वनों में पाये जाने वाले वृक्षों में पत्तियाँ कम, छोटी व काँटेदार होती हैं। इन वृक्षों की जड़ें अत्यन्त गहरी होती हैं, जिनसे ये अपनी नमी बनाये रखते हैं। इस प्रकार के वन भारत में 52 लाख हेक्टेयर भूमि पर हैं। इन वनों में बबूल, बेर, खजूर, रामबाँस, नागफनी, खेजड़ा आदि के वृक्ष पाये जाते हैं। इन वृक्षों में खजूर का विशेष आर्थिक महत्त्व है। खेर लकड़ी का उपयोग भी बढ़ रहा है। ये वन बिखरे रूप में पाये जाते हैं। कँटीली झाड़ियाँ केवल मरुस्थलीय भागों में उगती हैं। इन वनों के वृक्ष कड़े, छोटे और काँटेदार होते हैं। इनकी छाल मोटी होती है और उनमें काँटे पाये जाते हैं। इन वृक्षों के तने एवं पत्तियाँ मोटी गूदेदार होती हैं। नागफनी यहाँ का मुख्य पौधा है। इन वनों का महत्त्व केवल स्थानीय होता है।

4. ज्वारीय वन प्रदेश (Tidal Forest) –

इन वनों को ‘डेल्टाई वन’ (Deltai forest) भी कहते हैं। इन वनों का विस्तार नदियों के डेल्टा एवं ज्वारीय भाग में पाया जाता है। भारत में इन वनों का विस्तार पूर्वी एवं पश्चिमी तटवर्ती भागों तथा गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी के डेल्टाई क्षेत्रों में अधिक है। इन वनों में मैनग्रोव नारियल, ताड़, सुन्दरी, गोरेन, नीपा, फोनिक्स, केसूरिना आदि के वृक्ष पाये जाते हैं। इन वृक्षों की मुख्य विशेषता यह है कि खारे और ताजे जल दोनों में ही पनप सकते हैं। सुन्दरी यहाँ का मुख्य वृक्ष है। इन वृक्षों के आधार पर ही गंगा और ब्रह्मपुत्र के डेल्टाई भागों में पाये जानेवाले वन को ‘सुन्दर वन’ कहते हैं। खारे जल के कारण इन वनों के वृक्ष कठोर हो जाते हैं। इनकी लकड़ियों का उपयोग नाव बनाने के लिए किया जाता है। इन वृक्षों की नमकीन छालों का उपयोग चमड़ा रँगने के लिए किया जाता है। इस प्रकार के वन कृष्णा, गोदावरी, कावेरी और महानदी के डेल्टाई भागों में भी पाये जाते हैं। ज्वारीय भागों के कारण इन वन प्रदेशों में हमेशा जल भरा रहता है। इन भागों की जलवायु अस्वास्थ्यकर होती है। इन भागों में आवागमन के लिए नावों का सहारा लेना पड़ता है।

5. पर्वतीय वन प्रदेश (Mountain Forest) –

हिमालय या पर्वतीय भागों पर ऊँचाई के आधार पर वनस्पतियों में भिन्नता पायी जाती है। जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती है तापमान कम होने लगता है और वर्षा भी हिम के रूप में बदल जाती है। इसलिए पर्वतीय वन प्रदेश का विस्तार उष्ण कटिबन्धीय प्रदेश से लेकर ध्रुवीय वन प्रदेश तक है। इसका विस्तार केवल 6,000 मीटर तक ही पाया जाता है। ऊँचाई के आधार पर इस वनस्पति को निम्न भागों में बाँटा जाता है-

  • उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र पर्णपाती वन – शिवालिक की श्रेणियों में उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन पाये जाते हैं। इन वनों में साल एवं बाँस के वृक्ष अधिक उगते हैं। साल के वृक्ष आर्थिक दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं।
  • शीतोष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वन – इन्हें ‘आर्द्र पर्वतीय वन’ कहते हैं। इनका विस्तार 4,000 से 2,000 मीटर की ऊँचाई तक है। इन वनों में चेस्टनट, चीड़, ओक, देवदार, बर्च, एल्डर पोपलर, मैपिल आदि के वृक्ष पाये जाते हैं। उत्तर पूर्वी भाग में जहाँ भारी वर्षा होती है वहाँ पर उपोष्ण कटिबन्धीय चीड़ के वृक्ष पाये जाते हैं।
  • शंकुल या कोणधारी वन – इन वनों का विस्तार 16,00 मीटर से 3,600 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है। इन वनों में चीड़, सीडर, सिल्वर, फर, स्प्रूस, सनोवर, ओक, मैपिल, बर्च, सल्डर और ब्लूपाइन के वृक्ष मिलते हैं। इन वृक्षों की लकड़ियाँ कोमल होती हैं। इसलिए इनका उपयोग कागज की लुग्दी और दियासलाई बनाने के लिए किया जाता है।
  • अल्पाइन वन – इन वनों का विस्तार 3,600 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है। 3,600 मीटर से अधिक ऊँचाई पर टुण्ड्रा प्रदेश सदृश वनस्पति पायी जाती है। इस प्रदेश के निम्न भागों में सिल्वर, फर और बर्च के वृक्ष पाये जाते हैं। अत्यधिक ऊँचाई के कारण अल्पाइन वनों का स्थान झाड़ियाँ, गुल्म तथा घास भूमियाँ ले लेती हैं। अत्यधिक ऊँचाई पर प्राकृतिक वनस्पति काई तथा लिचेन के रूप में उगती है और अधिक ऊँचाई पर बर्फ पायी जाती है।

भारतीय वनों की विशेषताएँ (Characteristics of Indian Forests) –

भारत में पाये जानेवाले वनों की निम्न विशेषताएँ हैं –

  1. भारत में जलवायु विभिन्नता के कारण अनेक प्रकार के वन पाये जाते हैं। जलवायु के आधार पर भारत में विषुवत् रेखीय उष्ण सदाबहार वन से लेकर ध्रुवीय अल्पाइन वनस्पति तथा मरुस्थलीय कँटीले वन पाये जाते हैं।
  2. भारत में वन क्षेत्रों का विस्तार अन्य देशों की तुलना में कम है। 1995 के आँकड़ों के अनुसार जापान के 66.8%, कोरिया के 77.2%, ब्राजील के 65.2%, श्रीलंका के 27.8%, मैक्सिको के 29%, स्वीडन के 59%, स्विट्जरलैण्ड के 28% तथा जर्मनी के 30% भूभाग पर वन पाये जाते हैं। वन स्थिति रिपोर्ट-2015 के अनुसार, भारत में 21.34% भाग पर वन क्षेत्र फैला है।
  3. भारत में पाये जानेवाले वनों में मुलायम लकड़ी के वन कम पाये जाते हैं। इस प्रकार के वन क्षेत्र हिमालय के ऊँचे भाग पर पाये जाते हैं। इन वनों की लकड़ियों का आर्थिक महत्त्व है। इनका उपयोग फर्नीचर बनाने और मकान के लिए उपयोगी सामान बनाने के लिए किया जाता है।
  4. भारत में सबसे ज्यादा मानसूनी वन पाये जाते हैं जो गर्मियों की शुरुआत में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इसलिए इन्हें ‘पतझड़ी वन’ (Deciduous) कहते हैं।
  5. भारत में पाये जानेवाले वनों में अनेक प्रकार के वृक्ष मिलते हैं। कुछ वन क्षेत्र इतने सघन होते हैं कि उनका उपयोग पूरी तरह से नहीं हो पाता है। कुछ वृक्षों की लकड़ियाँ इतनी कठोर होती हैं कि उन्हें आसानी से नहीं काटा जा सकता है।

भारतीय वनों के ह्रास के कारण (Reasons Behind the Loss of Indian Forest) –

भारत के वनों को तेजी से काटा जा रहा है जिससे भारत में वन क्षेत्र कम होता जा रहा है और वनों का ह्रास होता जा रहा है। भारत में प्रतिवर्ष 13 लाख हेक्टेयर भूमि के वन नष्ट हो रहे हैं। यहाँ वन विनाश में मध्य प्रदेश सबसे आगे है। यहाँ 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र के वन नष्ट हुए हैं। महाराष्ट्र, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में से प्रत्येक में 10 लाख हेक्टेयर तथा हिमाचल प्रदेश व राजस्थान में 5 लाख हेक्टेयर के वन नष्ट हो गये हैं। भारत में वनों के ह्रास के निम्न कारण हैं-

  1. भारत के वनों को साफ करके कृषि के लिए भूमि प्राप्त की जाती है।
  2. वन क्षेत्र में पशुचारण के कारण वनों का ह्रास हुआ है।
  3. वनों से प्राप्त लकड़ी का उपयोग ऊर्जा प्राप्ति या जलाऊ ईंधन के रूप में अधिक होता है जिससे वनों का विनाश होता जा रहा है।
  4. वनों पर आधारित विद्युत् गृहों के लिए वनों की अन्धाधुन्ध कटाई होती है।
  5. बाँधों के निर्माण के कारण बहुत से वन क्षेत्र जलमग्न हो गये हैं।
  6. वनों को काटकर यातायात के लिए सड़कों और रेलमार्गों का निर्माण किया जाता है।
  7. एक स्थान की भूमि की उर्वराशक्ति खत्म हो जाने पर दूसरे स्थान पर खेती के लिए वनों को काटा जाता है।
  8. आँधी, तूफान व वनाग्नि के कारण भी वनों का ह्रास होता है।
  9. लोगों के अन्दर वन संवर्द्धन के प्रति जागरूकता का अभाव भी इसका मुख्य कारण है।

वनों के ह्रास का प्रभाव (Impact of Loss of Forest) –

भारत में वनों की अन्धाधुंध कटाई के कारण कई हानिकारक प्रभाव देखने को मिलते हैं, जो निम्न हैं-

  1. वनों की कटाई के कारण वायु प्रदूषण में तेजी से वृद्धि हुई है।
  2. वनों के विनाश के कारण वर्षा की बूँदों से मिट्टी का अपरदन तेजी से होता है।
  3. वनों के कटने से पृथ्वी की जल सोखने की क्षमता कम हो जाती है जिससे बाढ़ का प्रकोप उत्पन्न हो जाता है।
  4. वनों में औषधीय पादप अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। वनों की कटाई के कारण औषधीय व सुगन्ध पादपों का भारी विनाश हुआ है।
  5. वनों की कटाई के कारण मरुस्थलीय क्षेत्र का विस्तार अधिक हो रहा है।
  6. वनों की कटाई के कारण पर्यावरण असन्तुलन बढ़ा है, जिससे अतिवृष्टि, बाढ़, भूजल स्तर इत्यादि में कमी होती जा रही है।
  7. वनों के ह्रास के कारण वन में पाये जानेवाले जीव जन्तुओं की संख्या में भी निरन्तर कमी होती जा रही हैं।
  8. वनों के विनाश से हरितगृह (ग्रीन हाउस) के प्रभाव में वृद्धि हो रही है।

वनों का आर्थिक महत्त्व (Importance of Forests in Indian Economics) –

मानव के आर्थिक विकास में वनों का विशेष महत्त्व है। वन ही हमारी राष्ट्रीय सम्पत्ति है। वनों के द्वारा अर्थव्यवस्था में वृद्धि की जा सकती है। वनों से हमें निम्न आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं-

  1. लकड़ी वनों की प्रधान उपज है। वनों से हमें ईंधन हेतु लकड़ी प्राप्त होती है।
  2. वनों से अधिक मात्रा में इमारती लकड़ी प्राप्त होती है जिसके लिए सागौन, साल, शीशम, देवदार एवं चीड़ की लकड़ी मुख्य हैं।
  3. वनों से ही कागज, दियासलाई, रबड़, लुग्दी तथा अन्य बहुत से उद्योगों के लिए कच्चा माल मिलता है।
  4. वनों से ही राजस्व और रायल्टी के रूप में प्रति वर्ष सरकार को ₹ 500 करोड़ से अधिक की पूँजी प्राप्त होती है।
  5. भारतीय वनों से अनेक उप-उत्पाद भी प्राप्त होते है जिनमें कत्था, रबड़, मोम, कुनैन तथा जड़ी-बूटी मुख्य हैं।
  6. भारतीय वनों से लगभग 8 करोड़ लोगों को रोजगार मिला है। इसीलिए भारत सरकार ने वनों के संरक्षण द्वारा और अधिक रोजगार उपलब्ध कराया है।
  7. वनों में वृक्षों के नीचे उग आयी घास क्षेत्रों का इस्तेमाल चरागाह के रूप में किया जा सकता है।
  8. वनों में वन्य जीवों को संरक्षण मिलता है।
  9. वनों में लाख, गोंद, बाँस, बेंत, कत्था, बिरोजा, तारपीन का तेल, चमड़ा रंगने का पदार्थ, जड़ी-बूटियाँ आदि प्राप्त होती हैं।

वनों का संरक्षण (Conservation of Forest ) –

वन से होनेवाले प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ को देखते हुए सरकार ने वन विकास की एक नयी नीति तैयार की है। इस नीति के द्वारा चनों के संरक्षण में काफी मदद मिली है। इस नीति के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं-

  1. मानव निर्मित वनों का विस्तार करके वनों से प्राप्त होने वाले उत्पादनों को बढ़ाना।
  2. वन विकास को वन-निर्भर उद्योगों की आवश्यकता से जोड़ना।
  3. वनों का विकास ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सहायक विकास के रूप में करना।

देहरादून स्थित वन अनुसन्धान संस्था तथा कोयम्बटूर, जबलपुर, बंगलरु में स्थित इसके प्रादेशिक केन्द्र विभिन्न वन-उत्पादन व उनके विदोहन की सम्भावनाओं तथा उपयोग पर शोध कार्य कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश और गुजरात राज्यों में विश्व बैंक की सहायता से वनों के विकास पर लगभग ₹ 100 करोड़ की योजनाएँ तैयार की गयी हैं। इस प्रकार पिछले कुछ सालों में वनों के महत्त्व को स्वीकार करके उनके संरक्षण पर बल दिया गया है।

वन संरक्षण अधिनियम, 1980 (Forest Conservation Act, 1980) –

  1. वन (संरक्षण) अधिनियम 25 अक्टूबर, 1980 को लागू किया गया। इसे 1988 में संशोधित किया गया। अधिनियम का उद्देश्य वन-विनाश पर प्रभावी रोकथाम करते हुए इस महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन को बचाना है।
  2. अधिनियम के अनुसार किसी भी आरक्षित वन या वनभूमि के गैर-वानिकी उपयोग की घोषणा से पूर्व केन्द्र सरकार का अनुमोदन राज्यों के लिए अनिवार्य कर दिया गया।
  3. वन अधिनियम का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध दण्डात्मक प्रावधानों को और कड़ा करने के लिए 1988 में संशोधन किया गया। ‘गैर-वानिकी उद्देश्य’ का विस्तार करते हुए चाय व कॉफी बागानों, रबर, पाम, ओषधीय पौधों व गरम मसालों की कृषि को सम्मिलित किया गया।
  4. केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं वन्य जीव विभाग द्वारा वनों की सुरक्षा व संरक्षण पर निगरानी हेतु छह प्रादेशिक कार्यालय स्थापित करने का प्रावधान किया गया, जो कि बंगलुरू, भोपाल, भुवनेश्वर, लखनऊ, शिलांग तथा चण्डीगढ़ में खोले गये।
  5. केन्द्र सरकार के सुझाव पर विभिन्न राज्यों व संघशासित प्रदेशों में पर्यावरण संरक्षण परिषदें (Environment Protection Council. E.P.C.) स्थापित करने का प्रावधान रखा गया।

वन्य जीव –

प्राकृतिक पर्यावरण में मिलने वाले विभिन्न जीवों को वन्य जन्तु कहा जाता है। भारत में भौतिक तथा जलवायु से संबंधित तत्त्वों के वितरण में असमानता के कारण यहाँ विभिन्न प्रकार के वन्य जीव एवं जलीय जन्तु पाये जाते हैं। जैसे महासागर में प्रवाल मछलियाँ तथा अन्य समुद्री जीव, गुजरात में शेर, असोम में गैंडा, मध्य प्रदेश में चीता वन्य जन्तु पाये जाते हैं।

भारत की जैव-विविधता –

भारत में जीव-जन्तुओं में बहुत अधिक विविधता पायी जाती है। भारत में लगभग 300 लाख जैव प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें केवल 14 लाख प्रजातियों का ही ज्ञान हो पाया है। इनमें 7 लाख 50 हजार कीड़े-मकोड़े तथा 41 हजार रीढ़धारी जीव हैं। भारत में लगभग 75 हजार जैव प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें 40 हजार किस्म की वनस्पति पायी जाती है। 25 हजार किस्म की मछलियाँ, 2 हजार किस्म के पक्षी तथा अन्य बहुत से जीव हैं जिनमें सरीसृप, स्तनपायी तथा अनेक छोटी छोटी किस्म के कीट एवं कृमि सम्मिलित हैं। पशु एवं वन्य जीव संरचना की दृष्टि से भारत में 3 मुख्य वर्ग पाये जाते हैं, जो निम्न हैं-

  1. उपयोगी पशु तथा स्तनपायी वन्य पशु – भारत में पाये जानेवाले स्तनपायी पशुओं में हाथी सबसे विशाल है। यह उष्णाई वर्षा के वनों में पाया जाता है। असम, केरल और कर्नाटक के जंगलों में इसे देखा जा सकता है। ऊँट और जंगली गधे अत्यन्त उष्ण तथा शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं। ये भारवाहन के मुख्य पशु हैं। ऊँट को ‘रेगिस्तान का जहाज’ (Ship of desert) कहते हैं। जंगली गधे कच्छ के रन में पाये जाते हैं। एक सींगवाला गैंडा असोम और पश्चिमी बंगाल के दलदली क्षेत्र में पाये जाते हैं। भारतीय जीवों में सबसे सुन्दर हिरण है। भारत में हिरण की अनेक प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें चौसिंगा, काला हिरण, चीतल तथा सामान्य हिरण मुख्य हैं।
  1. आखेटक जन्तु – आखेटक और हिंसक पशुओं में भारतीय शेर का मुख्य स्थान है। अफ्रीका महाद्वीप को छोड़कर यह केवल भारत में पाया जाता है। इसका निवास स्थान सौराष्ट्र और गिरि का जंगल है। इस प्रकार की जलवायु वाले वन क्षेत्रों में सरकार द्वारा इनके विकास के प्रयास किये जा रहे हैं। बाघ जंगली जीवों में सबसे शक्तिशाली पशु है। यही भारतीय राष्ट्रीय पशु है। चीतों में बंगाल टाइगर का प्राकृतिक निवास स्थान ‘सुन्दरवन’ है। इसके अलावा बिल्ली प्रजाति के अन्य जन्तुओं में तेंदुआ मुख्य है जिनमें क्लाउडेड तेंदुआ और हिम- तेंदुआ मुख्य हैं। लमचिता तथा हिम तेंदुआ हिमालय पर्वत के ऊँचे शिखर पर पाये जाते हैं।
  1. अन्य जीव-जन्तु – हिमालय पर्वत की श्रृंखला में अनेक आर्कषक जीव-जन्तु निवास करते हैं। इनमें जंगली भेड़, पहाड़ी बकरियाँ, आइबेक्स, स्टियू और तापिर मुख्य हैं। भारत में बन्दरों की भी अनेक प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें लंगूर मुख्य है। सिंह जैसी अयाल और पूँछवाला बन्दर बड़ा ही विचित्र जीव हैं जिसके मुँह पर चारों ओर बाल पाये जाते हैं। भारत में अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी पाये जाते हैं। मोर हमारा ‘राष्ट्रीय पक्षी’ है। हंस, बतख, मैना, टुइयाँ, तोते, कबूतर, सारस, बगुला आदि मुख्य पक्षी हैं। झीलों, तालाबों और नदियों में अनेक प्रकार की मछलियाँ पायी जाती हैं। भारत सरकार दुर्लभ जीवों के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास कर रही है।

जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकीय-जैव सन्तुलन में उनका योगदान –

विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों या जैव समुदायों में मिलने वाले विभिन्न प्रजातियों, वनस्पतियों जीवों तथा सूक्ष्म जीवों के समूह को जैव विविधता कहा जाता है। ये पारिस्थितिक तंत्र के जननिक विविधता का संरक्षण करती हैं। जैसे किसी एक समान भौतिक विशेषताओं वाले प्रदेश में कुछ निश्चित प्रजाति, वनस्पतियों एवं जीवों का मिश्रण मिलता है जिसे हैविराट निचे कहा जाता है। दोनों के योग को सिम्बायोसिस कहते हैं। सिम्बायोसिस के अन्तर्गत पाये जाने वाले विभिन्न प्रजाति की वनस्पतियों को समुदाय कहते हैं। इन्हीं वनस्पति तथा जीव समुदाय के सम्मिलित रूप को जीवमण्डल कहते हैं। किसी वनस्पति समुदाय के एक प्रजाति की कई संख्या को उस प्रजाति की जनसंख्या कहते हैं। किसी एक भौतिक विशेषताओं वाले क्षेत्र में वनस्पति एवं जीव एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं जिसमें पारिस्थितिक तंत्र के दो प्रक्रम कार्यशील रहते हैं-

  1. ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow)
  2. जैव भू-रसायन चक्र (Bio-Geo chemical cycle)

यह जैव विविधता किसी एक वनस्पति या प्रजाति के नष्ट होने पर उस पर आश्रित वनस्पति या प्रजाति भी नष्ट हो जाती है। जिससे समस्त पारिस्थितिक तंत्र असंतुलित हो जाता है। जैसे किसी पारिस्थितिक तंत्र में घास के नष्ट होने पर उस पर आश्रित तृणभक्षी जैसे- खरगोश इत्यादि मरने लगते हैं जिससे इन पर आश्रित माँसाहारी जानवर जैसे शेर, चीता इत्यादि का जीवन भी संकट में पड़ जाता है।

जैव सुरक्षा एवं संरक्षण –

भारत में विभिन्न पर्यावरणीय दशाएँ पायी है जिनमें विभिन्न प्रकार की जैव-विविधता देखने को मिलती हैं। लेकिन पारिस्थितिकीय असन्तुलन के कारण इन क्षेत्रों की जैवविविधता नष्ट हो रही हैं जिसके संरक्षण के लिए भारत सरकार ने निम्न 18 जैविक भण्डार स्थापित किये है –

क्र.सं.जैवमंडलीय सुरक्षित क्षेत्रसम्बन्धित राज्यस्थापना वर्ष
1.नीलगिरीकर्नाटक, केरल1986
2.नन्दादेवीउत्तराखंड1988
3.नोकरेकमेघालय1988
4.ग्रेट-निकोबारअंडमान निकोबार द्वीप1989
5.मन्नार की खाड़ीतमिलनाडु1989
6.मानसअसोम1989
7.सुन्दरवनपश्चिम बंगाल1889
8.सिमलीपलओडिशा1994
9.डिब्रू सैखोवअसोम1997
10.देहांत देबांगअरुणाचल प्रदेश1998
11.पंचमढ़ीमध्य प्रदेश1999
12.अगस्था मालाईकेरल2005
13.खंगनडेजांग (कंचनजंघा)सिक्किम2000
14.अचानकमार (अमरकंटक)मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़)2005
15.कच्छगुजरात2008
16.शीत मरुस्थलहिमाचल प्रदेश2009
17.शेषाचलमआन्ध्र प्रदेश2010
18.पन्नामध्य प्रदेश2011

उपर्युक्त जैविक भण्डारों के निम्न तीन उद्देश्य हैं-

  1. चुने हुए क्षेत्र से एकत्रित वनस्पतियों, जीवों तथा सूक्ष्म जीवों की विविधता एवं एकता को संरक्षित करना।
  2. शिक्षा, जनजागरण एवं प्रशिक्षण की उचित सुविधा ।
  3. पारिस्थितिक संरक्षण एवं अन्य पर्यावरणीय पहलुओं पर अनुसंधान को बढ़ावा देना।

पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी विभिन्न कार्यक्रम –

1. वन महोत्सव –

सन् 1950 में केन्द्रीय वनमण्डल की स्थापना की गई। सन् 1950 में ही केन्द्र सरकार ने ‘अधिक वृक्ष लगाओ आन्दोलन’ प्रारम्भ किया जिसे ‘वन महोत्सव’ का नाम दिया गया। यह आन्दोलन अब भी चल रहा है। यह प्रत्येक वर्ष पूरे देश में 1 जुलाई से 7 जुलाई तक मनाया जाता है। सरकार निःशुल्क या नाम मात्र के मूल्य पर पौधे प्रदान करती है। इस आन्दोलन का उद्देश्य वन क्षेत्र में वृद्धि तथा जनता में वृक्षारोपण की प्रवृत्ति उत्पन्न करना है।

2. वन्य जीवों का संरक्षण –

पर्यावरण संरक्षण में वन्य जीवों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। पर्यावरण में वन्य जीवों का अपना महत्त्व है। इसलिए भारत में 45 बाघ आरक्षित क्षेत्र हैं। असम में गैंडे के संरक्षण के लिए विशेष योजना चलायी जा रही है। विलुप्त हो रहे वन्य जीवों की समय-समय पर गणना की जानी चाहिए। वर्तमान में ये सभी कार्य एवं क्षेत्र राष्ट्रीय नीति के अन्तर्गत ले लिये गये हैं। विभिन्न पहलुओं, जीवनों या इनसे सम्बन्धित तथ्यों जो वन्य प्राणियों, जीव-जन्तुओं से सम्बन्धित हैं, वे भी इसी संरक्षण नीति के अन्तर्गत आते हैं। हाल ही में भारत सरकार के एक अध्यादेश के द्वारा नैनीताल व इस घाटी में प्रदूषण फैलाने वाले उन सभी उद्योगों को बन्द कर दिया गया जो पर्यावरण संरक्षण के लिए खतरा थे।

3. शान्त घाटी विकास –

जब सारे भारत में वैज्ञानिक व पर्यावरण संरक्षकों के मध्य पर्यावरण संरक्षण को लेकर बहस चल रही थी उस समय केरल की शान्त घाटी विकास परियोजना के विकास ने एक नया मोड़ लिया। केरल के प्रशासक व अन्य केन्द्रीय सरकार के विशेषज्ञ यह चाहते थे कि केरल की शान्त चाटी जिसमें पर्यावरण व पारिस्थितिकी का अच्छा सम्बन्ध है, उसमें बदलाव करके जल विद्युत् केन्द्र बनाया जाय जिससे विद्युत् उत्पादन के साथ ही सिंचाई भी हो। इसके निर्माण में हजारों एकड़ भूमि के पेड़- पौधों को काटना पड़ेगा जिससे वन्य प्राणियों को अपने जान से हाथ भी धोना पड़ सकता है। इसका परिणाम वर्तमान में लाभ से कई गुना भविष्य के लिए नुकसानदेह साबित होगा। इसलिए इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर जनमत द्वारा इस परियोजना का कार्य सरकार ने रुकवा दिया जिससे पर्यावरण के संरक्षण को बढ़ावा मिला।

4. चिपको आन्दोलन –

चिपको आन्दोलन ऐसा आन्दोलन है जिसने समस्त विश्व का ध्यान पर्यावरण संरक्षण के लिए अपनी ओर खींचा है। इसकी शुरुआत सन् 1970 में सुन्दरलाल बहुगुणा ने की थी। गढ़वाल, टिहरी व कुमाऊँ के क्षेत्रों में पेड़-पौधों की अन्धाधुंध हो रही कटाई को रोकने के लिए इन्होंने एक मानवीय रास्ता अपनाया जिसके लिये उन्होंने वहाँ के आदिवासी व जनजाति के लोगों को तैयार किया जिसमें वे पेड़ की कटाई के समय उससे चिपक जाते थे और कहते थे कि पहले हमें काटो फिर पेड़ों को। इस आन्दोलन ने पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

5. गंगा-कार्य योजना –

गंगा-कार्य योजना का उद्देश्य नदी में प्रवाहित होने वाली गन्दगी को अन्य स्थानों पर एकत्र करना और उन्हें उपयोगी ऊर्जा स्रोत में परिवर्तित करना है। प्रतिदिन 87 करोड़ 30 लाख लीटर घरेलू गन्दगी को गंगा में गिरने से रोकने, उसकी दिशा बदलने तथा उसका उपचार करने के लिए बुनियादी ढाँचा खड़ा करने का लक्ष्य रखा गया है। इसमें से 64 करोड़ 50 लाख लीटर कचरे को बीच में रोकने और 48 करोड़ 45 लाख लीटर शहरी अपशिष्ट का प्रतिदिन उपचार करने योग्य बुनियादी ढाँचा तैयार कर लिया गया है। स्वीकृत 261 परियोजनाओं में से 254 परियोजनाओं को 30 सितम्बर, 1998 ई० तक पूरा कर लिया गया था। इनमें से कम लागत वाली लगभग सभी मल व्ययन परियोजनाओं तथा विद्युत शवदाह गृहों के निर्माण का कार्य पूरा कर लिया गया। इससे गंगा नदी के प्रदूषण में उल्लेखनीय कमी आयी है। केन्द्र में सत्तारूढ़ एन० डी० ए० सरकार ने गंगा की स्वच्छता के लिए ‘नमामि गंगे’ योजना की घोषणा की है। इस कार्य का उत्तरदायित्व केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती को सौंपा गया है। बजट 2017-18 में इस योजना के लिए ₹2250 करोड़ का आवंटन किया गया है, ‘नमामि गंगे प्रोजेक्ट’ में ग्रामीण विकास, जहाजरानी और जल संसाधन मंत्रालय सम्मिलित रूप से प्रयास करेंगे। इसके तहत गंगा की सफाई, घाट में रिवर फ्रंट (नदी घाट) का निर्माण किया जाएगा।

6. ओजोन समस्या का हल –

ओजोन परत के विनाश के विश्वव्यापी खतरे की समस्या का हल निकालने के लिए सितम्बर, 1998 ई० में कनाडा के मांट्रियल शहर में हुई 47 राष्ट्रों की एक बैठक में विचार किया गया और मांट्रियल प्रोटोकॉल नामक एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते में एक निश्चित समय के भीतर ओजोन-रक्षक रसायनों का उपयोग रोकने की बात कही गयी, और ओजोन-नाशक द्रव्यों के दो अलग-अलग समूहों की पहचान की गयी, जिनमें पहला था क्लोरोफ्लोरो कार्बन या सी०एफ० सी० और दूसरा था अग्निशमन में प्रयुक्त होने वाला हेलन्स । 1997 में मांट्रियल संशोधन को अन्तिम रूप दिया गया जिसके तहत मिखाइल ब्रोमाइड से मुक्ति पाने की योजना बनाई गयी। 1999 में बीजिंग संशोधन के तहत ब्रोमोक्लोरोमिथेन के उपयोग से तत्काल छुटकारा पाने के लिए इसे शामिल किया गया। इस संशोधन के तहत एच० सी०एफ० सी० के उत्पादन पर नियन्त्रण के साथ-साथ दूसरे पक्षों के साथ इनके कारोबार पर लगाम लगाने की योजना भी बनाई गई। ऐसा अनुमान है कि यदि इस समझौते का पूरी तरह से पालन हो तो वर्ष 2050 तक ओजोन परत ठीक हो सकती है। माँट्रियल समझौते को विश्व के 197 देशों ने मान्यता प्रदान की है।

वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में ओजोन परत को क्षति पहुँचाने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन रसायनों का विकल्प खोजने के लिए शोध-कार्य चल रहा है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार मांट्रियल समझौते के अन्तर्गत प्रतिबन्धित 20 क्लोरोफ्लोरो कार्बन रसायनों में से 7 का उत्पादन और उपयोग भारत द्वारा किया जाता है। मांट्रियल समझौते के अन्तर्गत विकासशील देशों को ओजोन-संगत तकनीक के विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय ऋण उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था की गयी है और इस दिशा में भारत में शुरुआत भी हो चुकी है। वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् की दो राष्ट्रीय प्रयोगशालाएँ- (1) राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला (पुणे) एवं (2) भारतीय रासायनिक तकनीक संस्थान (हैदराबाद ) – इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं तथा यहाँ क्लोरोफ्लोरो कार्बन के दो विकल्प-एच० सी० एफ० सी०-22 तथा एच० सी० एफ० सी०- 134 विकसित भी किये जा चुके हैं।

जैव-विविधता –

जलवायु और प्राकृतिक विविधता के कारण भारत में लगभग 65,000 प्रजाति के जीव-जन्तु निवास करते हैं। इनमें 2,546 प्रजाति की मछलियाँ, 1,228 प्रजाति के पक्षी, 5,000 प्रजाति के चूर्ण प्रावार प्राणी, 40,000 प्रजाति के कीड़े-मकोड़े, 248 प्रजाति के सरीसृप, 372 प्रजाति के स्तनपायी और 204 प्रजाति उभयचरों की हैं। इनमें से 81 प्रजातियाँ स्तनधारियों की, 47 प्रजातियाँ पक्षियों की, 15 प्रजातियाँ सरीसृपों को, 3 प्रजातियों में उभयचरों की हैं। अन्य अनेक प्रजातियाँ कीड़े- मकोड़े लुप्तप्राय हैं।

जून, 1992 ई० में रियो डि जेनेरो के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में ऐतिहासिक जैव-विविधता सन्धिपर विश्व के लगभग प्रत्येक देश के प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर कर वर्तमान विश्व में जैव विविधता के संकट एवं उसके संरक्षण की आवश्यकता को स्वीकार किया। यह ऐतिहासिक सन्धि दिसम्बर, 1993 ई० से क्रियान्वित हुई। इस सन्धि के अन्तर्गत जैव-विविधता बनाये रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में परस्पर संसाधनों एवं तकनीकों के द्वारा सहयोग करने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है।

भारत में अन्तर्राष्ट्रीय जैव-विविधता कानूनों की पर्यावरण जानकारी के अभाव में हमारी निष्क्रियता के कारण अन्य देशों के वैज्ञानिक हमारी मूल सम्पदा, जैसे – नीम, हल्दी, बासमती आदि वस्तुओं को पेटेण्ट कराने में सक्षम हो गये हैं। इसके तहत भारत सरकार द्वारा सन् 1998 ई० में ‘जैव-विविधता एक्ट, 1998’ का प्रारूप तैयार किया गया। इसके अनुसार एक ‘नेशनल बायोडाइवर्सिटी ऑथोरिटी’ की स्थापना का प्रस्ताव है जो जैव संरक्षण की समीक्षा एवं समुचित कार्यवाही पर ध्यान देगा। इसके लिए राज्य व स्थानीय स्तर पर भी ‘जैव-विविधता बोर्ड’ व जैव-विविधता कमेटियाँ गठित की गयीं।

विलुप्त होने वाली जातियों का संरक्षण –

वन्य प्राणियों के आर्थिक लाभों को सुरक्षित रखने के लिए उनका संरक्षण करना अत्यन्त जरूरी है। सभी प्राणी मेहनती होते हैं। उनमें प्यार, लगाव, आक्रमण, सुरक्षा, सामंजस्य, साहस, समझदारी, चतुराई, क्रीड़ा आदि के भाव देखे जा सकते हैं। प्राकृतिक परिवर्तन तथा मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण अनेक जीव-जातियाँ विलुप्त हो रही हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं। इसलिए इन जीवों का संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए निम्न उपाय करने चाहिए-

  1. संकटापन्न वन्य जीवों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
  2. विलुप्त हो रहे वन्य जीवों की समय-समय पर गणना की जानी चाहिए।
  3. बाघ परियोजना को सफलता मिल चुकी है। इस समय भारत में 45 बाघ आरक्षित क्षेत्र हैं। इसी प्रकार जल जीवों तथा पक्षी विहार की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  4. असोम में गैंडे के संरक्षण के लिए एक विशेष योजना चलायी जा रही है।
  5. देश में सिंहों की कमी एक चिन्ता का विषय है। इसके लिए सरकार द्वारा उनके विकास पर बल दिया जा रहा है।

देश में जैव विविधता की सुरक्षा और संरक्षण के लिए अनेक उपाय किये जा रहे हैं-

  1. सबसे पहले नीलगिरि में सन् 1986 में पहले जीव आरक्षित क्षेत्र की स्थापना की गयी जो 5,500 वर्ग किमी क्षेत्र में फैलाहै। ऐसे ही 18 और आरक्षित केन्द्रों की स्थापना का उद्देश्य है।
  2. दूसरा जीव आरक्षित केन्द्र हिमालय क्षेत्र के नन्दा देवी में 1988 में स्थापित किया गया।
  3. 1988 में मेघालय के नोक्रेक में तीसरा आरक्षित क्षेत्र स्थापित किया गया है।
  4. चौथा आरक्षित क्षेत्र अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में बनाया गया जहाँ विचित्र और विविध प्रकार की वनस्पति और जीव-जन्तु पाये जाते हैं और जहाँ इन जीवों और वनस्पतियों को संरक्षण प्रदान किया जा रहा है। इस योजना के अन्तर्गत भारत के विभिन्न जलवायु क्षेत्रों को शामिल किया जा रहा है।

इसके अन्तर्गत अरुणाचल प्रदेश में पूर्वी हिमालय क्षेत्र, तमिलनाडु में मन्नार की खाड़ी, राजस्थान में थार का मरुस्थल, गुजरात में कच्छ का रन, असम के काजीरंगा और मानस उद्यान को भी इसमें शामिल किया गया है। इन क्षेत्रों में जीव आरक्षण के लिए वन्य भूमि, जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के मूल रूप को संरक्षित किया जा रहा है। असम गैंडों का प्राकृतिक आवास है। इन्हीं क्षेत्रों के निकट वन्य उत्पादों के विकास और शोध के लिए अनेक शोधशालाएँ बनायी जा रही हैं। इस समय भारत में 100 राष्ट्रीय उद्यान, 515 वन्य प्राणी अभयारण्य और 42 प्राणी उद्यान (चिड़ियाघर) हैं, जो देश के कुल भू-भाग का 1.21% है।

वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम –

भारत सरकार ने 1983 में वन्य जीव संरक्षण के लिए एक कार्यकारी योजना तैयार की। देश के सम्पूर्ण भाग का लगभग 4 प्रतिशत भाग पर 103 राष्ट्रीय पार्क तथा 528 वन्य अभ्यारण्य का आच्छादन है। यहाँ वन्य जीव का संरक्षण होता है। वन्य जीवों के संरक्षण एवं नियन्त्रण के लिए 1972 में वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम पारित किया गया जो जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में लागू हुआ जिसके अन्तर्गत केन्द्र सरकार सभी राज्यों को वन्य जीव संरक्षण के लिए निम्न सहायता देगी-

  1. शत-प्रतिशत आर्थिक अनुदान वन्य जीवों के संरक्षण के लिए बनाये गये राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्य जीव अभयारण्य के प्रबन्धन एवं विकास के लिए देगा।
  2. वन्य-जीव एवं वन्य-जीव आधारित उत्पादों की सुरक्षा एवं गैर-कानूनी शिकार आदि से सुरक्षा का दायित्व होगा।
  3. वन्य-जीव प्रजातियाँ जो विलुप्तप्राय होंगी, की बन्दीगृह प्रजनन के लिए व्यवस्था होगी।
  4. चिड़ियाघर की पुनर्स्थापना एवं विकास।
  5. असोम में गैण्डों का संरक्षण।
  6. शेर, हाथी आदि के संरक्षण की व्यवस्था ।