संप्रत्ययीकरण एवं उपकल्पना का निर्माण [Conceptualization and Formulation of Hyothesis]


संप्रत्ययीकरण एवं उपकल्पना का निर्माण :-

संप्रत्ययीकरण एवं उपकल्पना के निर्माण का सम्बन्ध सामाजिक अनुसन्धान के मूल चरणों से है | अतः इन दोनों को समझने हेतु सामाजिक अनुसन्धान की सम्पूर्ण प्रक्रिया में अपनाए जाने वाले चरणों को समझना अनिवार्य हो जाता है | अनुसन्धान के मूल चरण कितने हैं ? इसमें विद्वानों के कई मत-भेद हैं फिर भी यह कहा जा सकता है कि अनुसन्धान का प्रारंभ किसी प्रकार की समस्या या प्रश्न से होता है और इस समस्या से सम्बन्धित उपकल्पनाएँ बनाई जाती हैं, आंकड़े तैयार किये जाते हैं, और इन सभी आंकड़ों का वर्गीकरण एवं निर्वचन करके प्रतिवेदन तैयार किया जाता है |

सामान्यः हमें किसी सामाजिक या वैज्ञानिक अनुसन्धान में निम्नांकित चरणों से होकर गुजरना पड़ता है –

  1. समस्या का निर्माण (Formulation of the Problem)
  2. संप्रत्ययों का स्पष्टीकरण अथवा संप्रत्ययीकरण (Clarification of concepts or Conceptualization)
  3. उपकल्पनाओं का निर्माण (Formulation of Hypothesis)
  4. चरों का चयन (Selection of Variables)
  5. निदर्शन (Sampling)
  6. सामग्री का संकलन (Collection of Data)
  7. सामग्री का विश्लेषण (Analysis of Data)
  8. प्रतिवादन (Report Writing)

संप्रत्ययीकरण (Conceptualization) :-

दुनिया भर में उपलब्ध प्रत्येक विशन में अनेकों संप्रत्यय पाए जाते हैं जिनका प्रयोग किसी समस्या का निर्माण करने और उस समस्या के समाधान के लिए किया जाता है | संप्रत्यय एक तार्किक रचना है जिसका प्रयोग अनुसन्धानकर्ताओं द्वारा आंकड़ों को व्यवस्थित करने एवं उनके बीच सम्बन्ध का पता लगाने के लिए किया जाता है | यह किसी अवलोकित घटना का भाववाचक अथवा अमूर्त रूप है | इन अमूर्त, रचनाओं अर्थात् अवधारणाओं की सहायता से प्रत्येक विषय अपनी विषय-वस्तु समझाने का प्रयास करता है

संप्रत्यय किसी मूर्त प्रघटना का भावात्मक रूप है अर्थात् संप्रत्यय स्वयं प्रघटना न होकर इसे समझने में सहायता देती है | एक संप्रत्यय कुछ प्रघटनाओं के चयन का प्रतिनिधित्व करती है जिन्हें एक श्रेणीं में वर्गीकृत किया गया है | यह चयन न ही तो वास्तविक है और न ही कृत्रिम, अपितु इसकी उपयोगिता वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के रूप में आँकी जा सकती है | संप्रत्यय वास्तविक प्रघटना के कितनी नजदीक है यह इस बात पर निर्भर करता है कि भाववाचक किस स्तर पर किया गया है | उच्च स्तर पर किए गए भाववाचकों को ही संप्रत्यय कहा गया है |

संप्रत्यय का विकास अनेक प्रकार से होता है | सामान्यतया इसके निम्नलिखित स्रोत हो सकते हैं –

  1. मन की कल्पना (Imagination) –संप्रत्यय के विकास अथवा निर्माण का सबसे बड़ा स्रोत हमारी अपनी मन की कल्पनाएँ हैं | हम यह पाते हैं कि किसी विशेष प्रकार की प्रघटनाओं अथवा क्रियाओं को कोई नाम नहीं दिया गया है अथवा अगर नाम दिया भी गया है तो इससे प्रघटनाओं अथवा क्रियाओं के कुलाक अथवा एक कुलक के उपकुलकों का पता नहीं चल पाता है तो ऐसी परिस्थिति में हम प्रघटनाओं अथवा क्रियाओं को विशिष्ट नाम देकर संप्रत्यय का विकास कर सकते हैं | उदाहरन के लिए, जब व्यक्तियों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करने का प्रयास किया गया तो सामाजिक-आर्थिक स्थिति (Socio-economic status) तथा व्यावसायिक स्थिति (Occuptional status) जैसी संप्रत्ययाओं का विकास हुआ |
  2. अनुभव (Experience) – संप्रत्यय का दूसरा स्रोत व्यक्तिगत अनुभव है | विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं का अवलोकन संप्रत्ययाओं के विकास में सहायक हो सकता है | उदाहरण के लिए संगठन के संप्रत्यय का प्रयोग हम अपने अनुभवानुसार ऐसे समूहों के लिए करते हैं जोकि पूर्व निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बनाए गए हैं तथा जिनमें सभी व्यक्ति नियमानुसार कार्य करते हैं | संप्रत्यय वास्तव में प्रघटना की विशेषताओं को परिसीमत करती है जिससे व्यक्ति उन विशेषताओं वाली प्रघटनाओं को विशेष नाम से पुकार सके |
  3. आचार विधि या परिपाटी (Convention) – संप्रत्ययाओं के विकास का तीसरा स्रोत आचार विधि है | समूह, समुदाय अथवा किसी संस्कृति के लिए शब्दों का अर्थ आचार विधि द्वारा निर्धारित किया जाता है जिनसे सामाजिक सिद्धान्तकार संप्रत्यय का निर्माण कर सकते हैं | अल्पसंख्यक (Minority) तथा जन संचार (Mass Media) ऐसी ही संप्रत्ययाएँ |
  4. अन्य संप्रत्यय (Other Concepts) – एक संप्रत्यय का निर्माण अन्य संप्रत्ययाओं से भी किया जा सकता है | उदाहरण के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थिति के संप्रत्यय से ही स्थिति असन्तुलन का संप्रत्यय विकसित हुआ जिसका अर्थ है कि एक व्यक्ति सामाजिक-आर्थिक स्थिति के एक सूचक में तो ऊँचा है परन्तु अन्य सूचक में निम्न है तथा इसमें विभिन्न स्थितियों का समन्वय नहीं है |

इस प्रकार संप्रत्यय के निर्माण तथा विकास के अनेक स्रोत हैं | संप्रत्यय का अर्थ उस विषय के विकास के साथ-साथ परिवर्तित होता रहता है क्योंकि विषय जितना अधिक विकसित होगा संप्रत्यय की परिभाषा उतनी ही यथार्थता से दी जा सकती है |

उपकल्पना (Hypothesis) :-

उपकल्पना (प्राकल्पना अथवा परिकल्पना) वैज्ञानिक अनुसन्धान का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है | उपकल्पना दो अथवा दो से अधिक चरों के बीच अनुभवमूलक सम्बन्ध का अनुमानित विवरण है | यह मात्र अनुमान है जिसका परिक्षण करना आभी बाकी है | अधिकांश अनुसंधानों का उद्देश्य या तो उपकल्पनाओं का निर्माण करना होता है अथवा निर्मित उपकल्पनाओं का संकलित सामग्री द्वारा परिक्षण करना होता है | उपकल्पनाओं का निर्माण करना सरल कार्य नहीं है |

उपकल्पनाओं के प्रकार (Types of Hypotheses) :-

क्योंकि सामाजिक प्रघटनाओं, तथ्यों एवं समस्याओं की प्रकृति अति जटिल होती है, इसलिए वैज्ञानिक अनुसन्धान में अनेक प्रकार की उपकल्पनाएँ प्रयोग में लाई जाती है | अतः हम उपकल्पनाओं को निम्न प्रकार की श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. आनुभविक समानताएँ बताने वाली उपकल्पनाएँ (Hypotheses stating existing empirical uniformities) :- ये वे उपकल्पनाएँ हैं जोकि व्यक्ति के सामान्य दैनिक जीवन में प्रचलित विचारधाराओं, मान्यताओं, निषेधों, व्यवहार प्रतिमानों इत्यादि पर आधारित होती है | यद्यपि ऐसी उपकल्पनाओं का आधार सामान्य ज्ञान है तथापि इनका वैज्ञानिक परीक्षण किया जा सकता है |
  2. जटिल आदर्श-प्ररूप से सम्बन्धित उपकल्पनाएँ (Hypotheses concerned with complex ideal-types) :- इन उपकल्पनाओं का निर्माण अनुभवाश्रित एकरूपता पर आधारित विभिन्न कारकों में तार्किक अंतर्सम्बन्धों का परीक्षण करने हेतु किया जाता है | इनमें सामग्री संकलन के पश्चात् कारकों के तर्कपूर्ण क्रम को आदर्श मानकर सामान्यीकरण किया जाता है |
  3. विवेचनात्मक चरों में सम्बन्ध बताने वाली उपकल्पनाएँ (Hypotheses related with analytical variables) :- इस प्रकार की उपकल्पनाएँ जटिल आदर्श-प्ररूपों से भी अधिक अमूर्त होती है | इनका प्रयोग परिवर्तन के लिए उत्तरदायी विभिन्न कारकों के तर्कपूर्ण विश्लेषण करने के साथ-साथ अनेक पारस्परिक अंतर्सम्बन्धों का पता लगाने के लिए भी किया जाता है |

अच्छी या कार्यवाहक उपकल्पना की विशेषताएँ (Characteristics of a Good or Working Hypothesis) :-

उपकल्पनाओं का निर्माण अनुसन्धान का एक महत्वपूर्ण चरण है | अतः इनके निर्माण में विशेष सावधानी रखने की जरुरत है | एक अच्छी अथवा कार्यवाहक उपकल्पना में अग्रलिखित प्रमुख विशेषताएँ होना अनिवार्य हैं –

  1. अवधारणात्मक स्पष्टता (Conceptual clarity) :- उपकल्पना अवधारणा की दृष्टि से स्पष्ट होनी चाहिए अर्थात् इसमें भाषा सम्बन्धी स्पष्टता होनी चाहिए | उपकल्पना में प्रयोग किए जाने वाली प्रत्येक अवधारणा एवं शब्द का अर्थ सुनिश्चित एवं स्पष्ट होना चाहिए ताकि इसे सरलता से समझा जा सके |
  2. विशिष्टता तथा यथार्थता (Specificity and precision) :- उपकल्पना अध्ययन विषय से सम्बन्धित विशिष्ट पहलू से सम्बन्धित होनी चाहिए | यदि उपकल्पना सामान्य है तो इसे विशिष्ट उपकल्पनाओं में विभाजित किया जा सकता है | उपकल्पना का परिसीमन इस प्रकार से किया जाना चाहिए की यह पूर्णतः विशिष्ट तथा निश्चित हो जाए ताकि तथ्यों की खोज अपेक्षाकृत सुविधाजनक रूप से की जा सके |
  3. आनुभविक सन्दर्भ (Empirical referents) :- एक अच्छी उपकल्पना ऐसी होनी चाहिए जिसकी प्रमाणिकता की जाँच अनुभवाश्रित रूप से की जा सके | यह आदर्शात्मक नहीं होनी चाहिए क्योंकि आदर्शात्मक निर्णयों को अनिवार्य रूप से अनुभवाश्रित विधि द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता | वास्तव में यदि उपकल्पना में आनुभविक सिद्धता का गुण नहीं है तो उसे उपकल्पना कहा ही नहीं जा सकता |
  4. सरलता (Simplicity) :- उपकल्पना का सरल एवं प्रसंग अनुरूप होना अनिवार्य है चाहे यह सामान्य व्यक्ति की समझ में न आए | अधिक सरल उपकल्पनाओं को ओक्कम का उस्तरा (Occam’s razor) कहा गया है तथा राजनीतिशास्त्र एवं अर्थशास्त्र में प्रचलित अनेक सरल उपकल्पनाएँ अधिक घातक होता हैं |
  5. उपलब्ध प्रविधियों से सम्बन्धित (Related to available techniques) :- एक अच्छी उपकल्पना वह मानी जाती है जिसकी प्रमाणिकता की जाँच उपलब्ध प्रविधियों द्वारा की जा सके | यदि उपलब्ध प्रविधियों द्वारा उपकल्पना की जाँच सम्भव नहीं है तो ऐसी उपकल्पना अव्यावहारिक कहलाती है |
  6. सिद्धान्त से सम्बन्धित (Related to theory) :- उपकल्पना विषय में प्रचलित किसी-न-किसी पूर्व-निर्मित सिद्धान्त से सम्बन्धित होनी चाहिए और साथ ही उसमें सिद्धान्त का परिष्कार, समर्थन अथवा संशोधन करने की क्षमता होनी चाहिए |

उपकल्पनाओं के स्रोत (Sources of Hypotheses) :-

उपकल्पना के अनेक स्रोत होते हैं | किसी घटना के बारे में हमारे अपने विचार, हमारे व्यक्तिगत अनुभव एवं प्रतिक्रियाएँ, सामजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण, सिद्धान्तों में पाए जाने वाले अपवाद, समरूपता तथा साहित्य इत्यादि उपकल्पनाओं के निर्माण में सहायक हो सकते हैं | उपकल्पनाओं के निम्न चार स्रोत बताये गए हैं –

  1. सामान्य संस्कृति (General Culture) :- सामान्य संस्कृति उपकल्पना के निर्माण का एक महत्वपूर्ण स्रोत है | विभिन्न संस्कृतियों की विशेषताएँ, प्रथाएँ, रीति-रिवाज, रूढ़ियाँ, लोकरीतियाँ, विश्वास, जाति प्रथा, संयुक्त परिवार, ग्रामीण संरचना, विवाह इत्यादि में होने वाले परिवर्तन भी उपकल्पनाओं के निर्माण में सहायता देते हैं |
  2. वैज्ञानिक सिद्धान्त (Scientific theory) :- अनेक उपकल्पनाओं का निर्माण स्वयं विज्ञान तथा वैज्ञानिक सिद्धांतों द्वारा ही होता है | प्रत्येक विज्ञान में भिन्न विषयों के बारे में कुछ समान्यीकरण प्रचलित होते हैं और यह सामान्यीकरण अन्य विज्ञानों में समस्याओं को भी प्रभावित करते हैं | यह सामान्यीकरण तथा इनमें पाए जाने वाले सार्वभौमिक तत्व उपकल्पनाओं के मुख्यस्रोत हैं | सिद्धांतों में पाए जाने वाले अपवाद भी उपकल्पना का स्रोत हो सकते हैं |
  3. उपमाएँ या समरूपता (Analogies) :- उपकल्पनाओं के निर्माण में दो विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली उपमाओं का भी विशेष महत्व है | उपमाओं के आधार पर अनुसन्धानकर्ता एक क्षेत्र में पाए जाने वाले तथा व्यवहार को एक दूसरे क्षेत्र में ढूँढने का प्रयास करता है | यदि दो भिन्न परिस्थितियों में हमें कुछ समानता दिखाई देती है तो स्वाभाविक रूप में अनुसन्धानकर्ता के मन में यह प्रश्न पैदा होता है कि ऐसा क्यों है ? अतः विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली समानताएँ उपकल्पनाओं के उद्गम में महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं |
  4. व्यक्तिगत अनुभव (Personal experience) :- व्यक्तिगत अनुभव भी उपकल्पनाओं के निर्माण का महत्त्वपूर्ण स्रोत है | एक कुशल अनुसन्धानकर्ता अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर, जिन सामजिक समस्याओं को वह अपने दैनिक जीवन में देखता है, उनके प्रति अपने दृष्टिकोण के आधार पर अनेक घटनाओं के सम्बन्ध के बारे में उपकल्पनाओं का निर्माण कर सकता है | परम्परागत व्यवहार में जो परिवर्तन हम देखते हैं, उसके बारे में सोचते हैं या विभिन्न इकाइयों की जो परिवर्तित परिस्थितियाँ पाई जाती हैं उनसे भी उपकल्पनाओं के निर्माण में सहायता मिलती है |

अनुसन्धान में उपकल्पना का महत्त्व (Importance of Hypotheses in Research) :-

उपकल्पना वैज्ञानिक अनुसन्धान का एक महत्त्वपूर्ण चरण है जोकि समस्या के परिसीमन एवं उससे सम्बन्धित तथ्यों के संकलन में सहायता देता है | उपकल्पना अनुसन्धान का केन्द्रीय बिन्दु है | वैज्ञानिक अनुसन्धान में उपकल्पनाओं का महत्त्व निम्नांकित तथ्यों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है –

  1. अध्ययन-क्षेत्र को सीमित करना (Delimiting the scope of study) :- अनुसन्धानकर्ता किसी घटना, इकाई या समस्या का अध्ययन सभी पहलुओं को सामने रखकर नहीं कर सकता, अतः गहन एवं घटना, इकाई या समस्या का अध्ययन के लिए अध्ययन-क्षेत्र को सीमित करना अनिवार्य है | उपकल्पना इस कार्य में हमारी सहायता करती है | इससे हमें यह पता चलता है कि किसी वस्तु का क्या, कितना और कैसे अध्ययन करना है | अनुसन्धान क्षेत्र जितना सीमित होगा, त्रुटियों की सम्भावना उतनी ही कम होती जाएगी |
  2. अध्ययन को उचितदिशा प्रदान करना (Providing suitable direction to the study) :- उपकल्पना केवल अध्ययन क्षेत्र को सीमित करने में सहायक नहीं है अपितु वह अध्ययन को उचित दिशा भी प्रदान करती है | पी०वी० यंग का कहना है कि उपकल्पना दृष्टिहीन खोज (Blind search) से हमारी रक्षा करती है | यह हमें पहले से ही इस बात की ओर इशारा करने में सहायता देती है कि हमें किस दिशा में आगे बढना है | इससे व्यर्थ का परिश्रम बच जाता है और व्यय भी कम होता है |
  3. अध्ययन में निश्चितता लाना (Bringing definiteness in the study) :- उपकल्पना अनुसन्धान को सुनियोजित एवं सुनिश्चित बनाने में सहायता देती है | इससे हमें यह पता चलता है कि कौन सी सूचनाएँ, कहाँ से तथा कब प्राप्त करनी हैं, अतः इससे अनुसन्धान में अस्पष्टता एवं अनिश्चितता की सम्भावना प्रायः समाप्त हो जाती है |
  4. अध्ययन के उद्देश्य का निर्धारण (Stating the purpose of study) :- उपकल्पना से अध्ययन के उद्देश्य का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है क्योंकि किसी अमुक घटना या समस्या के अध्ययन के पीछे अनेक उद्देश्य हो सकते हैं | उपकल्पना से हमें यह पता चलता है की हम किसकी खोज करें |
  5. सम्बद्ध तथ्यों के संकलन में सहायक (Helpful in collection of relevant data) :- उपकल्पना अध्ययन को दिशा प्रदान करके इसमें केवल निश्चितता ही नहीं लाती अपितु समस्या से सम्बन्धित तथ्यों के संकलन में भी सहायता देती है | अनुसन्धानकर्ता केवल उन्ही तथ्यों को एकत्रित करता है जिनके आधार पर उपकल्पना की सत्यता की जाँच हो सकती है तथा इस प्रकार वह अनावश्यक तथ्यों के संकलन से बच जाता है |
  6. निष्कर्ष निकालने में सहायक (Helpful in drawing conclusion) :- उपकल्पना के द्वारा दो चरों में जिस प्रकार के सम्बन्ध का अनुमान लगाया गया है वह अनुसन्धान द्वारा या तो सत्य प्रमाणित होता है या असत्य | अतः यह निष्कर्ष निकालने एवं यहाँ तक कि समस्याओं के समाधान निकालने में सहायता सिद्ध हो सकती है |
  7. सत्यता की खोज करने में सहायक (Helpful in searching the truth) :- उपकल्पना अध्ययन को स्पष्ट एवं निश्चित बना कर तथा प्रमाणित आँकड़ों के कारण सत्यता की खोज में सहायता देती है क्योंकि उपकल्पना की जाँच वास्तविक तथ्यों के आधार पर ही की जाती है |

उपकल्पनाओं की सीमाएँ (Limitations of Hypotheses) :-

यदि कार्यवाहक उपकल्पना का निर्माण बड़ी सावधानी पूर्वक किया गया है तो यह निश्चित रूप से वैज्ञानिक अनुसन्धान में पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है, परन्तु यदि इसका निर्माण ठीक प्रकार से नहीं किया गया तो यह घातक सिद्ध हो सकती है तथा उसके पूरे निष्कर्ष भ्रामक हो सकते हैं | उपकल्पनाओं की प्रमुख सीमाएँ निम्नांकित हैं –

  1. उपकल्पना में अटूट विश्वास (Perfect confidence in hypothesis) :- उपकल्पना क्योंकि अनुसन्धानकर्ता के अपने अनुभव पर आश्रित है तथा कई बार उसे प्रारंभ में ही उपकल्पना में अटूट विश्वास हो जाता है, अतः वह सभी तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर उपकल्पना को सत्य साबित करने का प्रयास करता है जोकि हो सकता है कि वास्तविकता के विपरीत हो |
  2. तथ्य संकलन की सीमित प्रकृति (Limited nature of data collection) :- यदि अनुभवहीनता के कारण उपकल्पना का निर्माण ठीक प्रकार से नहीं किया गया है तो हो सकता है कि घटना की वास्तविकता का कभी भी पता न चले, क्योंकि उपकल्पना तो अनुसन्धानकर्ता को केवल सीमित तथ्यों के संकलन करने पर ही बल देती है |
  3. पक्षपात (Bias) :- उपकल्पना के निर्माण में पक्षपात या अभिनति हो सकती है | यदि अनुसन्धानकर्ता को किसी विशेष प्रकार के सम्प्रदाय के प्रति रूचि है तो हो सकता है कि उपकल्पनाओं का निर्माण, सामग्री संकलन एवं निष्कर्ष पक्षपातपूर्ण हों |