वेदांग क्या हैं एवं इसके प्रकार क्या हैं?

वेदांग क्या हैं एवं इनका विभाजन

कालक्रम से वैदिक संस्कृत के स्थान पर लौकिक संस्कृत का प्रचलन होने पर, वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करना तथा अर्थ समझना कठिन हो गया। यास्क ने कहा है कि वैदिक अर्थों को समझने में कठिनाई का अनुभव करने वाले लोगों ने निरुक्त तथा अन्य वेदांग की रचना की। वेदों के छ: अंग माने गए –

  1. शिक्षा
  2. कल्प
  3. व्याकरण
  4. निरुक्त
  5. ज्योतिष तथा
  6. छन्द।

इन्हें समझने वाला व्यक्ति ही वेदों का सही उच्चारण, अर्थबोध एवं यज्ञ कार्य कर सकता था। इन सभी शास्त्रों के ग्रन्थ लौकिक संस्कृत में लिखे गए, क्योंकि इनके विकास का कारण ही था वैदिक संस्कृत का प्रयोग समाप्त हो जाना। इनका काल 800 ई. पू. से प्रारम्भ होता है।

वेदांग क्या हैं एवं उनका विभाजन
वेदांग क्या हैं एवं इसके प्रकार

शिक्षा –

यह उच्चारण का विज्ञान है, जो स्वर- व्यञ्जन के उच्चारण का विधान करता है। इसका विस्तार प्रातिशाख्य ग्रन्थों में मिलता है। वेदों की पृथक्-पृथक् शाखाओं का उच्चारण बतलाने के कारण इन्हें प्रातिशाख्य कहा जाता है। ऋक्प्रातिशाख्य शौनक – रचित ग्रन्थ है, जो ऋग्वेद के अक्षरों, वर्णों एवं स्वरों की संधियों का विवेचन करता है। इसी प्रकार अन्य वेदों के भी प्रातिशाख्य हैं, जो उन वेदों के उच्चारणों का वैशिष्ट्य बतलाते हैं। ये सभी सूत्र रूप में हैं।

कल्प –

यह मुख्यत: वैदिक कर्मकाण्ड का प्रतिपादन करने वाला वेदाङ्ग है। कल्प का अर्थ है विधान। यज्ञ-सम्बन्धी विधान कल्प सूत्रों में दिए गए हैं। कल्प के चार भेद हैं, जिन्हें श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र तथा शुल्वसूत्र कहते हैं। ये चारों विभिन्न वेदों के लिए पृथक्-पृथक् हैं।

श्रौतसूत्रों में श्रीतयज्ञों का विधान है, जैसे— दर्शपूर्णमास, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य, वाजपेय, अतिरात्र, पितृमेध इत्यादि। इस समय आश्वलायन, शांखायन (ऋग्वेद), कात्यायन (शुक्लयजुर्वेद), जैमिनीय (सामवेद) वैतान (अथर्ववेद) इत्यादि श्रौतसूत्र उपलब्ध हैं।

गृह्यसूत्र गृह्याग्नि में होने वाले संस्कारों तथा गृह्ययागों का वर्णन करते हैं, जैसे – उपनयन, विवाह आदि। सभी वेदों से सम्बद्ध लगभग 20 गृह्यसूत्र प्राप्त हैं।

धर्मसूत्रों में मानव-धर्म, समाज-धर्म, राजधर्म तथा पुरुषार्थों का वर्णन है। इस समय छ: धर्मसूत्र मिलते हैं— गौतम, आपस्तम्ब, वसिष्ठ, बौधायन, हिरण्यकेशी और विष्णुधर्मसूत्र | ये धर्मसूत्र ही परवर्ती स्मृतियों के आधार हैं। शुल्व का अर्थ है मापने का सूत (धागा)। इन सूत्रों में यज्ञवेदिका के निर्माण आदि का वर्णन रेखागणित (ज्यामिति) की सहायता से किया गया है।

व्याकरण –

इसे वेदों का मुख कहा गया है। इस शास्त्र में प्रकृति और प्रत्यय के रूप में विभाजन करके पदों की व्युत्पत्ति बतलाई जाती है। व्याकरण की बहुत लम्बी परम्परा इन्द्र आदि वैयाकरणों से चली, किन्तु उस परम्परा के अवशेष यत्र-तत्र उद्धरणों में ही पाए जाते हैं। प्रथम उपलब्ध व्याकरण ग्रन्थ के प्रणेता पाणिनि हैं, जिन्होंने अष्टाध्यायी के रूप में वैदिक और लौकिक संस्कृत दोनों भाषाओं का व्याकरण लिखा है। व्याकरण से वेदों की रक्षा होती है तथा वही पदशुद्धि का विचार करता है। सम्प्रति पाणिनि की अष्टाध्यायी ही व्याकरण का प्रतिनिधि-ग्रन्थ है, जिस पर टीकाओं की समृद्ध परम्परा मिलती है।

निरुक्त –

इसका अर्थ है निर्वचन । वैदिक शब्दों का अर्थ व्यवस्थित रूप से समझाना ही निरुक्त का प्रयोजन है। इस समय यास्क – रचित निरुक्त ही एक मात्र
उपलब्ध निरुक्त है। वैदिक शब्दों का संग्रह निघण्टु (पाँच अध्याय) के रूप में प्राप्त होता है । उसी की व्याख्या यास्क ने निरुक्त के 14 अध्यायों में की है । यास्क का काल 800 ई. पू. माना जाता है । निरुक्त वेदार्थज्ञान की कुंजी है।

ज्योतिष –

यह काल का निर्धारण करने वाला वेदाङ्ग है। वैदिक-यज्ञ काल की अपेक्षा रखते हैं और वे किसी निश्चित काल में ही सम्पादित होते हैं, तभी उनका फल मिलता है। इसका निश्चय ज्योतिष करता है। काल का विभाजन, मुहूर्त का निश्चय, ग्रहों-नक्षत्रों की गति का निर्धारण इत्यादि ज्योतिष के ही विषय हैं। लगधाचार्य ने इन कार्यों के लिए वेदाङ्ग ज्योतिष नामक ग्रन्थ लिखा था। इसके दो संस्करण हैं— आर्च ज्योतिष (ऋग्वेद से सम्बद्ध) जिसमें 36 श्लोक हैं तथा याजुष् ज्योतिष (यजुर्वेद से सम्बद्ध), जिसमें 43 श्लोक हैं।

छन्द –

यह पद्यबद्ध वेदमन्त्रों के सही-सही उच्चारण के लिए उपयोगी वेदाङ्ग है। इससे वैदिक मन्त्रों के चरणों का ज्ञान होता है। इसका ज्ञान वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के लिए आवश्यक है। इससे छन्द: शास्त्र का महत्त्व सिद्ध होता है। वेदों में सात मुख्य छन्द प्रयुक्त हैं — गायत्री (आठ अक्षरों के तीन चरण), अनुष्टुप् (आठ अक्षरों के चार चरण), त्रिष्टुप् (11 अक्षरों के चार चरण) बृहती, जगती, पङ्क्ति, उष्णिक्। छन्द: शास्त्र जानने से वैदिक मन्त्रों के चरणों की व्यवस्था समझी जा सकती है तथा मन्त्र-पाठ के समय उचित विराम हो सकता है।

अन्य ग्रंथ (परिशिष्ट ग्रन्थ) –

वेदों और वेदांग के सम्यक् ज्ञान के लिए कालान्तर में कुछ परिशिष्ट ग्रन्थ भी लिखे गए। इन ग्रन्थों को अनुक्रमणी कहते हैं। इनमें देवता, ऋषि, छन्द, सूक्त इत्यादि की गणना हुई है। सभी वेदों की पृथक्-पृथक् अनुक्रमणियाँ हैं। ऋग्वेद की अनुक्रमणियाँ शौनक ने लिखीं। ऋग्वेद के देवताओं की अनुक्रमणी के रूप में छन्दोबद्ध ग्रन्थ बृहद्देवता उपलब्ध है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें आठ अध्याय तथा 1204 श्लोक हैं।

इसी प्रकार, ऋक्सर्वानुक्रमणी, छन्दोऽनुक्रमणी, आर्षानुक्रमणी आदि परिशिष्ट ग्रन्थ हैं। यजुर्वेद के परिशिष्ट कात्यायन ने रचे । अथर्ववेद के परिशिष्टों में सर्वानुक्रमणी महत्त्व रखती है। इसमें अथर्ववेद के प्रत्येक काण्ड के देवताओं, ऋषियों, सूक्तों और मन्त्रों का विवरण है। ये परिशिष्ट वेदों की रक्षा करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करते रहे हैं। इन्हीं के कारण वेदों में एक अक्षर की भी न्यूनता और वृद्धि नहीं हो सकी है।
संस्कृत साहित्य के प्रथम चरण में विकसित वैदिक वाङ्मय की व्याख्याएँ परवर्ती युग में बहुत दिनों तक होती रहीं। व्याख्याओं के संबंध में विभिन्न मत चलते रहे और विभिन्न भाषाओं में इनके अनुवाद भी होते रहे हैं । आधुनिक युग में इन वैदिक ग्रन्थों के अच्छे-अच्छे संस्करण व्याख्याओं और अनुवादों के साथ प्रकाशित हुए हैं।

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