भारतीय इतिहास के पुरातात्विक स्रोत क्या है?

प्राचीन भारतीय पुरातात्विक इतिहास के स्रोत
प्राचीन भारतीय पुरातात्विक इतिहास के स्रोत

भारतीय इतिहास के पुरातात्विक स्रोत

प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए पुरातात्विक सामग्रियाँ सर्वाधिक प्रमाणिक है|भारतीय इतिहास के पुरातात्विक स्रोत के अंतर्गत प्राचीन अभिलेखों, मुद्राओं, स्मारक एवं भवन, मूर्तिकला, चित्रकला, एवं प्राचीन अवशेष को संग्रहित किया गया है|

अभिलेख

अभिलेख भारतीय इतिहास के स्रोतों में से एक महत्व पूर्ण स्रोत है|इसकी मदद से लोगों की जीवन शैली, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था का समुचित ज्ञान प्राप्त होता है|

  • अभिलेख पाषण शिलाओं, स्तंभों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं एवं प्रतिमाओं पर उत्खनित है|
  • सर्वाधिक प्राचीन पठनीय अभिलेख अशोक के है, प्राकृत भाषा में लिखे हैं|
  • पूर्व हैदराबाद राज्य के मास्की एवं गुर्जरा(मध्यप्रदेश) से प्राप्त अभिलेखों में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख है, उसे प्रायः देवताओं का प्रिय ‘ प्रियदर्शी ‘ राजा कहा गया है|
  • अशोक के अधिकांश अभिलेख ‘ ब्राह्मी लिपि ‘ में लिखे हैं, जो बायें से दायें लिखी जाती थी|
  • पश्चिमोत्तर प्रान्त से प्राप्त उसके अभिलेखों में ‘ खरोष्ठी लिपि ‘ का प्रयोग किया गया है जो दायें से बायें जाती है|
  • पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान से प्राप्त अशोक के शिलालेखों में यूनानी एवं आर्मेइक लिपियों का प्रयोग हुआ है|
  • सर्वाधिक प्राचीन भारतीय अभिलेख 2500 ई०पू० हड़प्पा सभ्यता के है, जो मुहरों पर भावचित्रात्मक लिपि में हैं|जिनका पाठ अभी तक असंभव बना हुआ है|

अभिलेखों के प्रकार

अभिलेखों को मुख्यत: तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है –

  1. प्राथमिक श्रेणी के अभिलेख
  2. द्वितीय श्रेणी के अभिलेख
  3. तृतीय श्रेणी के अभिलेख

प्राथमिक श्रेणी के अभिलेख

प्राथमिक श्रेणी के अभिलेखों में अधिकारों और जनता के लिए जारी किये गए सामाजिक, आर्थिक, एवं प्रशासनिक राज्यादेशों एवं निर्णयों की सूचना रहती है जैसे- अशोक के अभिलेख|

द्वितीय श्रेणी के अभिलेख

द्वितीय श्रेणी के अभिलेखों में अनुष्ठानों, धर्म इत्यादि के बारे में व्याख्या की गयी है|जिन्हें बौद्ध, जैन, वैष्णव, आदि सम्प्रदायों के मतानुययियो ने स्तंभों, प्रस्तर फलकों, मंदिरों एवं प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण कराया|

तृतीय श्रेणी के अभिलेख

तृतीय श्रेणी के अभिलेखों में राजाओं की विजय प्रशस्तियोंका आख्यान तो है, लेकिन दोषों का उल्लेख नहीं है|

महत्वपूर्ण अभिलेख एवं उनकी विशेषताएँ

क्र. स.अभिलेखशासक एवं अभिलेख की विशेषता
1.हाथी गुम्फा का अभिलेख
( तिथि रहित अभिलेख )
कलिंग राज खारवेल
2.जूनागढ़ ( गिरनार अभिलेख )रूद्रदामन ( सुदर्शन झील के बारे में जानकारी )
3.नासिक अभिलेख( गौतम बलश्री तथा सातवाहनों की उपलब्धियाँ )
4.प्रयाग स्तम्भ अभिलेखसमुद्रगुप्त ( इनकी दिग्विजयों की जानकारी )
5.ऐहोल अभिलेखपुलकेशिन द्वितीय
6.मन्दसौर अभिलेखमालवा नरेश यशोवर्मन ( रेशम बुनकर की श्रेणियों की जानकारी )
7.ग्वालियर अभिलेखप्रतिहार नरेश भोज
8.भितरी एवं जूनागढ़ अभिलेखस्कंदगुप्त ( हूणों पर विजय का विवरण )
9.देवपाड़ा अभिलेखबंगाल शासक विजयसेन
10.बांसखेड़ा और मधुबन अभिलेखहर्षवर्धन की उपलब्धियाँ
11.बालाघाट अभिलेख एवं कार्ले अभिलेखसातवाहनों की उपलब्धियाँ
12.अयोध्या अभिलेखशुंगों की उपलब्धियाँ
13.भरहुत अभिलेखसुंगनरेण शब्द खुदे होने से शुंगों द्वारा निर्मित
14.एरण अभिलेखभानगुप्त सती-प्रथा का पहला लिखित साक्ष्य

मुद्राएँ

  • 206 ई०पू० से लेकर 300 ई०पू० तक के भारतीय के इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से मुद्राओं की सहायता से प्राप्त होता है|
  • इसके पूर्व के सिक्कों पर लेख नहीं है और उन पर जो चिन्ह बने हैं उसका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है|
  • ये सिक्के ‘ आहत सिक्के(Punch Marked) ‘ कहलाते हैं|
  • मुद्राओं का प्रयोग दान-दक्षिणा, क्रय-विक्रय, तथा वेतन-मजदूरी के भुगतान के लिए किया जाता था|
  • शासकों की अनुमति से व्यापारिक संघों ने भी अपने सिक्के चलाये थे|
  • सर्वाधिक मात्रा में मुद्रायें मौर्योत्तर काल की मिलती हैं, जो सीसा, पोटीन, ताँबा, कांसे, चाँदी, तथा सोने से बनी थी|
  • कुषाण शासकों द्वारा जारी स्वर्ण सिक्कों में जहाँ सर्वाधिक शुद्धता थी, वहीं गुप्तों ने सर्वाधिक मात्रा में स्वर्ण सिक्के जरी किये|
  • धातु के टुकड़ों पर टप्पा मारकर बनायी गयी बुद्धकालीन आहत मुद्राओं पर पेड़, मछली, सांड, हाथी, अर्द्धचन्द्र, आदि वस्तुओं की आकृति होती थी|
  • मुद्राओं के तत्कालीन आर्थिक दशा तथा सम्बंधित राजाओं की साम्राज्य सीमा का भी ज्ञान हो जाता है|

स्मारक एवं भवन

  • प्राचीन भारतीय स्मारक एवं भवन भी भारतीय प्राचीन इतिहास के प्रमुख स्रोत है|
  • उत्तर भारतीय मंदिरों की कला शैली ‘ नागर शैली ‘ कहलाती है|
  • जबकि दक्षिणापथ के वे मंदिर जिनमें नागर शैली एवं द्रविड़ शैली दोनों शैलियों का प्रयोग हुआ है|यह मंदिर वेसर शैली के मंदिर कहलाते है|
  • जावा के ‘ बोरोबुदुर मंदिर ‘ से वहाँ नवीं शताब्दी में महायान बौद्ध धर्म की लोकप्रियता प्रमाणित होती है|

मूर्तिकला

  • कुषाण काल, गुप्त काल और गुप्तोत्तर काल में जो मूर्तियाँ निर्मित की गयी, उनसे जन-साधारण की धार्मिक आस्थाओं और मूर्तिकला का ज्ञान मिलता है|
  • कुषाण काल की मूर्तिकला में जहाँ विदेशी प्रभाव अधिक है, वही गुप्त काल की मूर्तिकला में स्वाभाविकता परिलक्षित होती है, जबकि गुप्तोत्तर काल में सांकेतिकता अधिक है|
  • भरहुत, बोधगया, साँची, और अमरावती की मूर्तिकला में जन-सामान्य के जीवन की यथार्थ झांकी मिलती है|

चित्रकला

चित्रकला किसी भी जन-सामान्य व शासन की सांस्कृतिक उन्नति एवं सीमा के बारे में पता चलता है, जैसे– अजंता गुफा में उत्कीर्ण माता और शिशु तथा मरणासन्न राजकुमारी जैसे चित्रों की शाश्वता सर्वकालिक है, जिससे गुप्कालीन कलात्मक और तत्कालिक जीवन की झलक मिलती है|

अवशेष

  • पाकिस्तान में सोहन नदी घाटी के उत्खनन द्वारा प्राप्त पुरापाषाण युग के पत्थर के खुरदुरे हथियारों/औजारों से अनुमान लगाया गया है की भारत में 4 से 2 लाख वर्ष ईसा पूर्व मानव रहता था|
  • 10 से 6 हजार ईसा पूर्व वह कृषि कार्य, पशुपालन, कपडा बुनना, मिट्टी के बर्तन बनाना तथा पत्थर के चिकने औजार बनाना सीख गया था|
  • गंगा-यमुना के दोआब में पहले काले और लाल मृदभांड मिले और फिर चित्रित भूरे रंग के मृदभांड मिले|
  • मोहनजोदड़ो में 500 से अधिकमुहरें प्राप्त हुई हैं जो हडप्पा संस्कृति के निवासियों के धार्मिक विश्वासों की ओर इंगित करती है|
  • बसाढ़(प्रारंभिक वैशाली) से 274 मिट्टी की मुहरें मिली हैं|
  • कौशाम्बी में व्यापक स्तर पर किये गए उत्खनन कार्य में उदयन का राजप्रसाद तथा घोषिताराम नामक एक विहार मिला|
  • अंतरजीखेड़ा आदि की खुदाइयों से ज्ञात होता है कि देश में लोहे का प्रयोग ईसा पूर्व 1000 के लगभग आरम्भ हो गया था|
  • दक्षिण भारत में अरिकमेडु नामक स्थल की खुदाई से रोमन सिक्के, दीप का टुकड़ा तथा बर्तन आदि मिले हैं|जिससे यह पुष्ट होता है कि ईसा की आरंभिक शताब्दियों में रोम तथा दक्षिण भारत के मध्य घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था|

महत्व पूर्ण बिंदु

  • अभिलेखों के अध्ययन को इपीग्राफी कहते है|
  • अशोक के अभिलेखों को पढने में सर्वप्रथम जेम्स प्रिन्सेप को 1837 ई० में सफलता मिली|
  • गैर-राजकीय अभिलेखों में यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर(विदिशा) से प्राप्त गरुड़ स्तम्भ लेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है|जिससे द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य भारत में भागवत धर्म विकसित होने का प्रमाण मिलता है|
  • भारतवर्ष शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख हाथीगुम्फा अबिलेख में मिलता है|
  • एरण (मध्यप्रदेश) से प्राप्त वराह भगवान् पर हूण तोरमाण का लेख अंकित है|

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